जम्मू कश्मीर अधिमिलन के 7 नायक
   25-अक्तूबर-2018



 

1947 में ब्रिटेन समेत अंतरराष्ट्रीय ताकतें जम्मू कश्मीर राज्य को भारत में शामिल न होने देने की चालें चल रही थी। क्योंकि एशिया में जम्मू कश्मीर का बहुत बड़ा भौगोलिक औऱ सामरिक महत्व है। ब्रिटिश शासन ने तमाम कूटनीतिक चालें चली। जब पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर हमला किया और राज्य में सांप्रदायिक भावनाएं भड़कायीं। तब भी ब्रिटेन मूकदर्शक बना रहा। लेकिन तमाम साजिशों के बावजूद जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। जम्मू कश्मीर का भारत के साथ अधिमिलन के अनेकों अनेक लोगों की भागीदारी से संभव हो पाया। राजनीतिज्ञों से लेकर सैनिक तक सबने अहम भूमिका निभायी। लेकिन हम आपको रूबरू करा रहे हैं उन 7 हस्तियों से जिन्हें जम्मू कश्मीर अधिमिलन का नायक माना जाता है। 

 

1. महाराजा हरि सिंह

अधिमिलन का सर्वप्रथम श्रेय जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को जाता है। अधिमिलन प्रस्तावों के नियमों के मुताबिक किसी भी राज्य के सिर्फ राजा को ही ये अधिकार था कि वो पाकिस्तान का हिस्सा बने या भारत का औऱ महाराजा हरि सिंह ने भारत को चुना। एक राजा के तौर पर ये उनके लिए बहुत बड़ा निर्णय था। क्योंकि महाराजा पर मांउटबेटन, जिन्ना और खुद उनके प्रधानमंत्री रामचंद्र काक की तरफ से लगातार जवाब बनाया जा रहा था कि महाराजा जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बना दें। जम्मू कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री रामचंद्र काक की पत्नी ब्रिटिश थी। जिसकी शह पर काक महाराजा तक गलत सलाह दे रहे थे। लेकिन 22 अक्टूबर 1947 को जब पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया। तब महाराजा हरि सिंह ने तय कर लिया कि राज्य की जनता का हित भारत के साथ ही है, लिहाजा राज्य को भारत का हिस्सा बनाना ही दूरदृश्टिता होगी। अन्यथा वो ब्रिटिश औऱ पाकिस्तान के हाथों की कठपुतली बन कर रह जायेंगे। फिर 26 अक्टूबर 1947 को अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर कर जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बना दिया।


 

 

2. सरदार वल्लभ भाई पटेल

1947 में जब भारत 546 रियासतों में बंटा था, तब एक ही शख्स था, जिसने तमाम भारत के एकीकरण का सपना साकार किया। जाहिर है जम्मू कश्मीर के अधिमिलन में भी सरदार वल्लभ भाई पटेल की अहम भूमिका थी। पटेल की कूटनीति औऱ दूरदृष्टि से ही अधिमिलन संभव हो पाया। पटेल को पता था कि जम्मू कश्मीर सामरिक दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण है, लेकिन पटेल महाराजा हरि सिंह पर सीधा को दबाव नहीं बनाना चाहते थे। क्योंकि हरि सिंह पहले ही जिन्ना औऱ ब्रिटिश ही दबाव बनाये हुए थे। ऐसे में ये नीति उल्टी पड़ सकती थी। पटेल को पता था कि महाराजा के प्रधानमंत्री काक उनको गलत सलाह दे रहे हैं। इसीलिए पटेल ने महाराजा को मेहरचंद महाजन को अपना प्रधानमंत्री बनाने की मित्रवत सलाह दी। मेहरचंद महाजन एक जाने माने वकील थे, औऱ ऐसे नाज़ुक मौके पर मेहरचंद महाजन की सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे क्योंकि वो भारत पाकिस्तान के बीच सीमा तय करने के लिए रेडक्लिफ कमीशन में मेंबर भी बनाया गया था। इसी दौरान मेहरचंद ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण गुरूदासपुर को भारत में शामिल कर एक दूरदर्शी निर्णय किया था। ऐसी सामरिक दृष्टि वाले शख्स को जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री बनवा देने पटेल की सबसे बड़ी कूटनीटिक जीत थी। जिसका परिणति जम्मू कश्मीर अधिमिलन के रूप में देखने को मिली।

 
 

3. मेहरचंद महाजन

मेहरचंद महाजन स्वतंत्र भारत के तीसरे मुख्य न्यायाधीश थे। इसके पहले वो पंजाब सूबे के जाने माने वकील थे। जो बाद में उत्तरी पंजाब हाईकोर्ट के जज भी बने। पटेल की सलाह पर महाराजा हरि सिंह ने उन्हें रामचंद्र काक की जगह प्रधानमंत्री नियुक्त किया। महाजन रेडक्लिफ कमीशन के मेंबर के तौर पर भारत पाकिस्तान की सीमा तय करने की जिम्मेदारी दी गई। सीमा तय करते वक्त पाकिस्तान समर्थित लॉबी चाहती थी कि पंजाब का गुरदासपुर पाकिस्तान का हिस्सा बन जाये। लेकिन महाजन ने तर्क दिया कि चूंकि गुरदासपुर में ज्यादातर सिख हैं औऱ रावी नदीं सिखों के लिए भावानात्मक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है तो रावी नदी को बॉर्डर मान लिया जाये और इस तरह गुरूदासपुर भारत का हिस्सा बन गया। गुरूदासपुर इसीलिए महत्वपूर्ण था क्यों कि सामरिक रूप से सिर्फ गुरुदासपुर ही जम्मू कश्मीर को सड़क के जरिये भारत से जोड़ता था। बाद में प्रधानमंत्री बनने के बाद मेहरचंद महाजन ही वो शख्स थे जिन्होंने महाराजा को भारत का हिस्सा बनाने के लिए मनाया। भारत हमेशा मेहरचंद महाजन के इस योगदान का ऋणी रहेगा।

 

 
 

4. ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह

ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह देश के सर्वप्रथम महावीर चक्र विजेता थे। उनको ‘The Savior of Kashmir’ और ‘Immortal Dogra’ भी कहा जाता है। महाराजा हरि सिंह की सेना के मुखिया होने के नाते उन्होनें जम्मू कश्मीर के लिए पाकिस्तानी हमलावरों से लड़ते लड़ते शहादत हासिल की। 22 अक्टूबर 1947 को जब पाकिस्तानी कबाइली सेना ने जम्मू कश्मीर पर हमला किय़ा तो महाराजा ने भारत को सैन्य सहायता के लिए कहा। लेकिन चूंकि अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर नहीं हुए थे, लिहाजा तुरंत सेना भेजना संभव नहीं था। ऐसे में ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने खुद कमान संभाली औऱ मोर्चे पर निकल पड़े। मोर्च पर ब्रिगेडियर के पास कुल 110 सैनिकों की यूनिट थी। जिसको लेकर मुज्जफराबाद पहुंचे, जहां उनको 6000 पाकिस्तानी हमलावरों से सामना करना था। ब्रिगेडियर ने गुरिल्ला युद्ध नीति अपनायी औऱ उड़ी ब्रिज को अपने काबू में कर उड़ा दिया। जिसके चलते हमलावर पाकिस्तानी आगे बढ़ने में काफी मुश्किल खड़ी हो गयी। ब्रिगेडियर 4 दिनों तक उस पोस्ट पर डटे रहे। ये वो महत्वपूर्ण समय था जब ब्रिगेडियर खुद मोर्च पर डटे रहे औऱ 4 दिनों तक दुश्मनों को रोके रखा। आखिरकार 26 अक्टूबर को अधिमिलन के बाद भारतीय सेना जम्मू कश्मीर में उतरी। लेकिन दुर्भाग्य से ब्रिगेडियर के करीब एक एलएमजी फट गयी। जिससे ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह घायल हो गये। लेकिन वो फिर भी दुश्मनों से लड़ते रहे। उनका कहना था कि वो अंतिम गोली और अंतिम सैनिक तक दुश्मन से लड़ते रहेंगे। ब्रिगेडियर का ही वो साहसी योगदान था जिसके चलते पाकिस्तानी सेना आगे नहीं बढ़ पायी और इससे ना सिर्फ हज़ारों लोगों की जान बची। बल्कि जम्मू कश्मीर का बाकी हिस्सा भी पाकिस्तानी हमलावरों के कब्ज़े में जाने से बचा लिया। ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह के साहस औऱ वीरता के चलते ही आज जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।

 

 

5. मेजर सोमनाथ शर्मा

मेजर सोमनाथ शर्मा देश के प्रथम परमवीर चक्र विजेता है। जिन्होने 1947 में पाकिस्तानी हमले के बाद जम्मू कश्मीर को बचाने में सबसे वीरता औऱ साहसी योगदान दिया। 3 नवंबर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के बड़गाम मोर्चे पर जाने का हुकुम दिया गया। प्रकाश की पहली किरण फूटने से पहले मेजर सोमनाथ बडगाम जा पहुँचे और उत्तरी दिशा में उन्होंने दिन के 11 बजे तक अपनी टुकड़ी तैनात कर दी। तभी दुश्मन की क़रीब 500 लोगों की सेना ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर हमला किया और भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे। अपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा। इस दौरान उन्होंने खुद को दुश्मन की गोली बारी के बीच बराबर खतरे में डाला और कपड़े की पट्टियों की मदद से हवाई जहाज को ठीक लक्ष्य की ओर पहुँचने में मदद की।

इस दौरान, सोमनाथ के बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और सैनिकों की कमी महसूस की जा रही थी। सोमनाथ बायाँ हाथ चोट खाया हुआ था और उस पर प्लास्टर बंधा था। इसके बावजूद सोमनाथ खुद मैग्जीन में गोलियां भरकर बंदूक धारी सैनिकों को देते जा रहे थे। तभी एक मोर्टार का निशाना ठीक वहीं पर लगा, जहाँ सोमनाथ मौजूद थे और इस विस्फोट में ही वो शहीद हो गये। सोमनाथ की प्राण त्यागने से बस कुछ ही पहले, अपने सैनिकों के लिए ललकार थी:-

"दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।"

 
 

6. मकबूल शेरवानी

मकबूल शेरवानी प्रारम्भ से ही द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध था। उसने जिन्ना को बारामूला में इस बारे में भाषण नहीं देने दिया। जिन्ना अपना सा मुँह लेकर मंच से नीचे उतर गया। इस नौजवान ने बड़ी कुशलता से बारामूला और श्रीनगर की तरफ कबायलियों के भेष में बढ़ती पाकिस्तानी सेना को रास्ते से भटका कर गलत रास्ते पर भेज दिया। इसकी होशियारी के कारण भारतीय सेना को चार दिन का बहुमूल्य समय मिल गया अन्यथा श्रीनगर और इसके हवाई अड्डे पर पाकिस्तान कब्जा कर लेता। जब पाकिस्तानी सेना को मकबूल की चालाकी का पता चला तो वह आगबबूला हो गई और उसे मृत्युदण्ड देने का निश्चय किया।

कश्मीर के इस नवयुवक को 7 नवम्बर 1947 को सूली पर लटका दिया गया I 8 नवम्बर को जब भारतीय सेना ने पाकिस्तानी आक्रमणकारियों से बारामूला स्वतंत्र करवाया तो पहला काम मकबूल शेरवानी के शव को पेड़ से उतारकर उसे स्थानीय जामा मस्जिद में पूर्ण सैनिक सम्मान के साथ दफनाया गया। प्रतिवर्ष भारतीय सेना इन्फ्रेन्ट्री डे पर शेरवानी को याद करती है। उसकी स्मृति में बारामूला में एक सभागृह भी बनाया गया है। पाकिस्तानी टुकड़ी के सरगना ने मकबूल को लोभ देकर अपनी तरफ मिलाने की कोशिश भी की। वह चाहता था कि मकबूल रियासती व भारतीय सेना की सही स्थिति बता दे। यह भी कि श्रीनगर हवाई अड्डे का छोटे से छोटा रास्ता भी बता दे। पर मकबूल ने यह मंजूर नहीं किया और प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु का आलिंगन किया। उसे पेड़ पर लटका दिया गया और उस पर 10 गोलियां भी दागी गई। भारतीय सेना ने ही आकर उसे वहां से उतार कर दफनाया। उसकी सगाई हो चुकी थी और कुछ ही दिनों में उसका विवाह होने वाला था। उसने अपने जीवन के रंगीन सपने मातृभूमि की रक्षा में होम कर दिये। ऐसे नवयुवक वास्तव में प्रणम्य हैं।

 
 
 

7. बीजू पटनायक

जब महाराजा हरिं सिंह ने भारत के साथ अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षार कर दिये तो भारत ने 27 अक्टूबर को सेना को मोर्चे पर लड़ने के लिए जम्मू कश्मीर भेजा। लेकिन चूंकि पाकिस्तान पहले ही जम्मू कश्मीर का काफी सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हिस्सा कब्जा चुका था। जिसमें सड़क संपर्क भी शामिल था। भारतीय सेना सिर्फ हवाई मार्ग से ही जम्म् कश्मीर में दाखिल हो सकती थी। आशंका ये थी कि श्रीनगर हवाई पट्टी पर पाकिस्तानी कब्ज़ा करने की कोशिश में जुटे हैं ताकि भारत किसी भी तरह की हवाई मदद ना कर पाये। लिहाजा नेहरू ने कहा कि श्रीनगर हवाई पट्टी पर उतरना खतरनाक हो सकता है। ऐसे में नेहरू ने पायलट बीजू पटनायक को मदद् के लिए कहा। तो बीजू पटनायक डकोटा डीसी-3 विमान, जिसमें सिख रेजीमेंट के 17 सैनिक थे, लेकर उड़े औऱ उन्होने सफलतापूर्वक श्रीनगर हवाई पट्टी पर विमान उतारने में कामयाबी पा ली। बीजू पटनाय़क ने इस कामयाबी से विमान उड़ाया कि विमान से जमीन पर हवाईपट्टी पर ये देखना संभव हो पाया कि हवाई पट्टी पर दुश्मन तो मौजूद नहीं है। इससे विमान में बैठे सैनिक ठीक से सर्वे कर पाये। जिसके बाद सैनिक हवाई पट्टी पर उतरे औऱ श्रीनगर को बचाया जा सका। आज बीजू पटनायक को हम उड़ीसा के पूर्व मुख्यमंत्री के रूप में जानते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से एक पायलट के रूप में उनकी ये वीर गाथा कम ही लोग जानते है। जिनकी कौशलता के चलते जम्मू कश्मीर बच पाया।