जानिए राजौरी, जम्मू कश्मीर के वीर बंदा बैरागी बहादुर की कहानी
   27-अक्तूबर-2018

 
 
18वीं सदी की शुरूआत में वीर बंदा बैरागी एक ऐसा नाम था, जिसको सुनकर दिल्ली की सल्तनत पर बैठे मुगल भी थर्राते थे। खालसा के पहले जत्थेदार बन्दा सिंह बहादुर बैरागी एक सिख सेनानायक थे। उन्हें माधो दास के नाम से भी जाना जाता है। वे पहले ऐसे सिख सेनापति हुए, जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में ख़ालसा राज की नींव रखी।
 
1.
बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर के राजौरी में 27 अक्टूबर 1670 को हुआ था। बंदा बैरागी का बचपन का नाम लक्ष्मणदेव था।
 
 
 
2.
लक्ष्मण देव ने औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी। लेकिन छोटी सी उम्र में पहाड़ी जवानों की भांति कुश्ती और शिकार आदि का बहुत शौक़ था। 15 वर्ष की में एक गर्भवती हिरणी के उनके हाथों हुए शिकार ने उन्हें अत्यंत शोक में ङाल दिया। इस घटना का उनके मन में गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपना घर-बार छोड़कर एक बैरागी बनने का निश्चय किया औऱ जानकी दास नाम के एक बैरागी के शिष्य बन गए और यहीं पर उनका नाम माधोदास बैरागी पड़ा।
 
3.
बाद में उन्होंने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहने लगे। वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र चले आये और जहाँ गोदावरी के तट पर उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की। यहीं पर 3 सितंबर 1708 को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह से बंदा बैरागी की मुलाकात हुई। इसी के बाद उनका नाम बंदा सिंह बैरागी पड़ा।
 
 
 
4.
पंजाब और बाक़ी अन्य राज्यो के हिन्दुओं के प्रति दारुण यातना झेल रहे तथा गुरु गोबिन्द सिंह के सात और नौ वर्ष के उन महान बच्चों की सरहिंद के नवाब वज़ीर ख़ान के द्ववारा निर्मम हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए रवाना किया।  जहां उन्होंने गुरूपुत्रों की हत्या का बदला  लिया। 
 

 
 
 5. 
गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वे पंजाब आये और सिक्खों के सहयोग से मुग़ल अधिकारियों को पराजित करने में सफल हुए। मई, 1710 में उन्होंने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। उन्होंने ख़ालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।
 
 
6.
बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। 1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फ़र्रुख़सियर की शाही फ़ौज ने अब्दुल समद ख़ाँ के नेतृत्व में उन्हें गुरुदासपुर ज़िले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उन्होंने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया।
 
 
 
 
7.
फ़रवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाये गए जहाँ 5 मार्च से 12 मार्च तक सात दिनों में 100 की संख्या में सिक्खों की बलि दी जाती रही । 16 जून को बादशाह फ़ार्रुख़शियार के आदेश से बन्दा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये। 
 
8.
मरने से पूर्व बन्दा सिंह बहादुर जी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा किसानों को बड़े-बड़े जागीरदारों और ज़मींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे थे। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था। पाँच हज़ार मुसलमान भी उनकी सेना में थे। बन्दा सिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगे और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ पढ़ने और खुतवा करवाने में स्वतन्त्र होंगे।
 
 

बंदा बैरागी द्वारा जारी किये गये सिक्के 
 
 
9. 
सिख सैनिकों की वीरता और नायकत्व को याद रखने के उद्देश्य से पंजाब सरकार  ने एक युद्ध स्मारक बनाया गया है। यह उसी स्थान पर बना है जहाँ वीर बंदा बैरागी ने छप्पर चीरी का युद्ध लड़ा था।