जनगणना 2011 के मुताबिक जम्मू कश्मीर में मात्र 0.16% फीसदी लोग उर्दू बोलते हैं, फिर भी उर्दू आधिकारिक भाषा क्यों? कश्मीरी, डोगरी या लद्दाखी को क्यों नहीं!!
   02-अक्तूबर-2019
 
(Representative Image) 
 
 
 
26 जनवरी 1957 को जब जम्मू कश्मीर में राज्य का संविधान लागू किया गया। तो उसी के साथ उर्दू को राज्य की आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया गया। जबकि पूरे राज्य में उर्दू बोलने वालों की संख्या गिनी-चुनी थी। हालांकि महाराजा प्रताप सिंह 1889 में ही उर्दू को आधिकारिक दर्जा दे दिया था। जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों के साथ आधिकारिक पत्रचार में होता था। लेकिन इसके बावजूद भी पूरे राज्य में उर्दू बोलने वालों की संख्या 0.01 फीसदी भी नहीं थी। फिर भी जम्मू कश्मीर की संविधान सभा ने अन्य स्थानीय भाषाओं को नज़रअंदाज करते हुए उर्दू को ही आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया।
 
 
 
इसके बाद करीब 6 दशक बीत जाने के बावजूद भी जम्मू कश्मीर में उर्दू बोलने वालों की संख्या 1 फीसदी भी नहीं हो पायी है, बल्कि जनगणना 2011 के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक जम्मू कश्मीर में सिर्फ 19,956 लोग यानि 0.16 फीसदी लोग ही उर्दू बोलते हैं।
 
 
 
 
 
जनगणना 2011 के आंकड़ों के मुताबिक जम्मू कश्मीर में 5 भाषाएं सबसे ज्यादा बोली जाती है, जोकि भारत के संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल हैं। ये हैं कश्मीरी, हिंदी, डोगरी, पंजाबी और उर्दू। इसके अलावा गैर-अनुसूचित भाषाओं की लिस्ट में से 6 भाषाएं हैं, जैसे तिब्बती, शीना, अफगानी-पश्तो, बल्ती, लद्दाखी और अंग्रेजी।
 
 
 
 
 
 
जबकि जनगणना 2011 के ही मुताबिक राज्य में करीब 54.76 फीसदी कश्मीरी, बोलते हैं इस कैटेगरी में दार्दी, किश्तवाड़ी, सिराजी भी शामिल की गयी है।

 
 
करीब 21.41 फीसदी लोग हिंदी बोलते हैं, इसमें भद्रवाही, गोजरी और पहाड़ी भी शामिल है।
 
 

इसके अलावा 20.60 फीसदी लोग डोगरी भाषा बोलते हैं।
 
 

जबकि करीब 1.79 फीसदी निवासी पंजाबी बोलते हैं।
 
 
 
यहां गौर करने लायक तथ्य ये हैं कि कश्मीरी, हिंदी, पंजाबी, डोगरी के अलावा गैर-अनुसूचित भाषा शीना (32,027 लोग) और तिब्बती (1,00.499 लोग) बोलने वालों की संख्या भी उर्दू बोलने वालों से ज्यादा है।
 
 
 
आंकड़ों से स्पष्ट है कि उर्दू जम्मू कश्मीर में सबसे कम बोली जाने वाली भाषा है। फिर ऐसे में सवाल उठना जायज है कि आखिर ऐसे उर्दू को जम्मू कश्मीर पर थोपकर क्यों रखा गया।
 
 
यहां उर्दू आक्रांताओं के तर्क हैं कि चूंकि कश्मीरी भाषा की लिपि नहीं है, लिहाजा कश्मीरी को आधिकारिक भाषा बनाना व्यावहारिक नहीं है। लेकिन इसके कश्मीरी को हटाने के बाद भी हिंदी, डोगरी, पंजाबी, बोटी-तिब्बती भाषाएं ऐसी हैं, जिनकी मूल लिपि भी है और जोकि जनसंख्या के आधार पर उर्दू बोलने वालों की संख्या से बेहद ज्यादा भी है।
 
 
 
अब चूंकि जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेशों में पुनर्गठन कर दिया गया है। ये एक बेहतर अवसर है दोनों प्रदेशों में स्थानीय भाषाई और सांस्कृतिक पहचान की पुनर्स्थापना की जाये।
 
 

 
 
 
पहाड़ी-गोजरी भाषा की उपेक्षा
 
 
इसके अलावा कई और भाषाएं है, जैसे पहाड़ी और गोजरी । जोकि किसी रिकॉर्ड या सूची में शामिल नहीं हैं। जोकि पूरे राज्य में लगभग 20 फीसदी लोगों द्वारा बोली जाती है। लेकिन कश्मीर केंद्रित नेताओं ने पिछले 70 सालों में न सिर्फ पहाड़ी और गोजरी भाषाई संस्कृति को उपेक्षित रखा बल्कि सरकारी आंकड़ों में, सरकारी फाइलों में, यहां तक कि जनगणना 2011 के आंकड़ों में भी इन भाषाओं को कश्मीरी भाषा के साथ जोड़ा गया। जिससे कश्मीरी भाषा का वजन हमेशा ज्यादा तौला गया और पहाड़ी-गोजरी हमेशा उपेक्षित ही रही।
 
 
जम्मू कश्मीर भाषाई आंकड़े जानने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक कर आधिकारिक जानकारी डाउनलोड कर सकते हैं।