खुशबू जान: एक बेखौफ कश्मीरी लड़की की कहानी, जो आतंक के गढ़ देश के लिए सिर उठाकर कर लड़ीं
   19-मार्च-2019
 
 
कश्मीर में इस्लामी आतंकी आज तक कामयाब नहीं हो पाये, इसके पीछे वजह हैं वो देशभक्त कश्मीरी। जिन्होंने मौत के साये में रहते हुए भी देश के लिए खड़े होकर आतंकियों से डटकर मुकाबला किया। जान गंवाई, लेकिन देश की आन को कम नहीं होने दिया। करीब 19 साल की खुशबू जान एक ऐसा ही नाम है, जिसने बचपन से ही आतंकियों और पत्थरबाज़ों का मुकाबला किया। जब तक कि जम्मू कश्मीर पुलिस में एसपीओ के पद पर तैनात खुशबू जान को आतंकियों ने गोली मारकर शहीद नहीं कर दिया। खुशबू जान एक मिसाल है।
 
 
बात 2016 की है, जब साउथ कश्मीर के शोपियां जिले के वेहिल गांव में एक ऑपरेशन चल रहा था। पत्थबाज़ सुरक्षाबलों पर भारी पथराव कर रहे थे, पत्थरबाज़ों ने खुशबू जान और उसके मज़दूर पिता मंजूर अहमद भट को भी पत्थरबाज़ी के लिए उकसाया। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। ऑपरेशन के दौरान कुछ पुलिस वालों ने पानी मांगा, तो खुशबू के परिवार ने पीने का पानी दिया। लेकिन पत्थरबाजों के ये बात नागवार गुज़री। जब सुरक्षाबल के जवान चले गये। पत्थरबाज़ों ने खुशबू के घर को सिर्फ इसीलिए आग लगा दी। क्योंकि उन्होंने पुलिस कर्मियों की मदद की थी। खुशबू का सब कुछ जलकर तबाह हो गया।
 
 
जब जम्मू कश्मीर पुलिस के स्थानीय अफसरों को इस बात का पता चला तो उन्होंने मुवाआजे के तौर खुशबू को एसपीओ के पद पर तैनात कर दिया। स्पेशल पुलिस ऑफिसर होने के नाते खुशबू को 5 हज़ार प्रतिमाह मिलता था, जिससे उसका घर चलता था। खुशबू को 2 छोटे भाई हैं, फुरकान और आरिफ। स्कूल में पढ़ाई कर रहे हैं। खुशबू नौकरी के साथ पढ़ाई भी कर रही थी, ताकि वो आगे पढ़कर बड़ी अफसर बन सके। देश और अपने परिवार की सेवा कर सके।
 
 
लेकिन आतंकियों को ये सब नगवार गुज़रा और खुशबू का परिवार आतंकियों और पत्थरबाज़ों के निशाने पर आ गया। लेकिन खुशबू जान डरी नहीं..। खुशबू के पिता ने घर दोबारा बनाने के लिए लोन लिया था, जिसको चुकाने में खुशबू मदद कर रही थी। 16 मार्च को वेहिल गांव में खुशबू के घर के सामने जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों ने गोली मारकर शहीद कर दिया।
 
 
 
 
 
आतंकियों का खौफ इतना है कि खुशबू के घरवालों के सांत्वना देने के लिए भी चंद परिवार ही आगे आये। सबको डर है किसी ने आगे बढ़कर हेल्प की तो वो भी निशाने पर आ जायेंगे।
 
 
पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर आतंकियों की खोजबीन शुरू करने की बात कह रही है। लेकिन उससे ज्यादा हैरानी की बात ये है कि एक महिला एसपीओ के हत्या के बाद लिबरल मीडिया में मुर्दा शांति...। न्यूज़ीलैंट के हमले पर आर्टिकल लिखे जा रहे हैं, एक-एक पत्रकार दर्जनों ट्वीट कर चुका है। लेकिन खुशबू जान का ज़िक्र तक नहीं है। क्या खुशबू जान की कहानी भी उन सैंकड़ों-हजारों कहानियों की तरह पत्थरबाज़ों के मानवाधिकारों के शोर में खोकर रह जायेगीं। जिन्होंने आतंक के साये में रहकर आतंक का सामना किया, जान गंवाई..। नहीं.... हमें खुशबू की वीरगाधा को खोने नहीं देना है, संजो कर रखना है ताकि आने वाली पीढ़ियां याद कर सकें कि उनकी आजादी में किन-किन का लहू शामिल है।