कर्नल नरेंद्र "बुल" कुमार- एक गुमनाम नायक/ किंवदंती जिन्होंने भारत के लिए सियाचीन हासिल किया-
   06-मार्च-2019
 
 
आइये आपको पर्वतारोहण के एक ऐसे गुमनाम नायक से परिचित करवाते हैं जिन्होंने लगभग अकेले ही 1981 में भारत की उपस्तिथि सियाचीन में सुनिश्चित की I पर्वतारोहण में एक किंवदंती बन गए हमारे नायक हैं कर्नल नरेंद्र 'बुल'कुमार I भारतीय सेना की दुनिया में ये बुल कुमार के नाम से जाने जाते हैं I अंग्रेज़ी के 'बुल' शब्द का उपनाम कर्नल नरेंद्र कुमार के नाम के साथ तब जुड़ा जब नॅशनल डिफेंस अकाडेमी में वे अपने पहले बॉक्सिंग मैच खुद से 6 इंच लम्बे और कहीं ज़्यादा तगड़े प्रतिद्वंद्वी से एक बैल की तरह भीड़ गए I
 
वो बात और है कि उनके प्रतिद्वंद्वी और सीनियर, सुनिथ फ्रांसिस रोड्रिग्स मैच जीते और बाद में आर्मी स्टाफ के प्रमुख भी बने, जब कि कर्नल कुमार मैच तो हार गए लेकिन बुल उपनाम हमेशा के लिए उनके साथ जुड़ गया I अपना उपनाम उन्होंने सफल किया I एक तगड़े बैल की तरह वे नाटे और गठीले शरीर के थे, चुनौतियाँ उन्हें पसंद थीं, और नतीजे की परवाह किये बिना वे एकाग्रता से वे उस चुनौती का सामना करते I
 
संभवतः उनकी इन्ही विशेषताओं के कारण 1981 में अकेले अपने दम ख़म पर कर्नल कुमार ने सियाचीन में भारत की उपस्तिथि दर्ज़ कराई, वो भी उस बर्फीले विका इलाके में अपने एक भी जवान का खून बहाये बिना I
 
 
ये हे इस गुमनाम नायक की इस अद्भुत उपलब्धि की अनकही कहानी
 
कहानी की शुरुआत हुई एक जर्मन पर्वतारोही और एक अमेरिकन नक़्शे से I 1970 के दशा के अंत में कर्नल कुमार गुलमर्ग में स्थित हाई अल्टीट्यूड वारफेयर स्कूल के प्रभारी थे , यही स्कूल माउंटेन वारफेयर स्कूल ऑफ़ इंडियन आर्मी भी थी I
 
एक जर्मन खोजकर्ता और पर्वतारोही, जिनके साथ कर्नल कुमार लद्दाख के ऊपरी पहाड़ी इलाके पार कर चुके थे, ने उन्हें उत्तरी कश्मीर का एक अमेरिकन नक्शा दिखाया, जिसमें एल ओ सी यानि नियंत्रण रेखा पूर्व दिशा में जहाँ दिखाई गयी थी , वो कर्नल कुमार की अपेक्षा से कहीं आगे थी I कर्नल कुमार समझ गए कि अमेरिका ने मानचित्र में पूर्वी काराकोरम (जिसमें सियाचीन भी शामिल था) का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान कि हिस्से में दिखाया था , आगबबूला कर्नल कुमार ने वो नक्शा सीधे मिलिट्री ऑपरेशन्स यानि सैन्य अभियानों के प्रबंध निदेशक / डायरेक्टर जनरल को भेज दिया I
 
कर्नल कुमार शंकित और चिंतित हो गए और उन्होंने स्वेच्छा से नक़्शे को सही करने के लिए एक अभियान ले जाने का निर्णय लिया I इस अभियान को लालफीताशाही और तकनीकी उलझनों में पड़ने से बचाने के लिए उन्होंने इस एक्सपीडिशन को विद्यार्थियों के लिए "प्रैक्टिकल ट्रेनिंग सेशन" यानी व्यावहारिक प्रशिक्षण का नाम दे दिया I
 
शीघ्र ही कर्नल कुमार हाई अल्टीट्यूड वारफेयर स्कूल के कुछ विद्यार्थियों के साथ एक अज्ञात ठिकाने की ओर चल पड़े I ये भारत का सियाचीन में पहला अभियान था - धरती पर सबसे बड़ा अल्पाइन ग्लेशियर - हिमनद, लगभग 2 ख़रब घन फ़ीट (2 ट्रिलियन कुबिक फ़ीट) बर्फ वाला इलाका I
 
कर्नल कुमार और उनकी टीम ने धीरे धीरे पर दृढ़ता से बहुत विकट बर्फीले ग्लेशियर पर चलना शुरू किया I रास्ते में उन्हें खरनाक हिमस्खलन और दरारों से बचते हुए आगे बढ़ना पड़ा, जहाँ तापमान जानलेवा, शून्य से 50 डिग्री तक नीचे था I सबसे महत्वपूर्ण बात यहाँ यह है कि इन बहादुर सिपाहियों कि पास ना तो कोई नक्शा था ना ही कोई आधुनिक उपकरण जो उस ऊंचाई और उतनी विकट हिमनद में उनकी सहायता करता I उन्हें केवल वहाँ की पहाड़ियों और चोटियों का थोड़ा बहुत अंदाज़ा था जिन्हे दशकों पहले ब्रिटिश सरकार ने कुछ नाम दिए थे I दुर्भाग्य से इस अभियान की सूचना सीमा पार चली गयी I कर्नल कुमार की निहत्थी टीम बर्फीले सियाचीन में पहुँची ही थी की वहाँ पाकिस्तान के लड़ाकू विमान पहुँच गए और रंगीन धुआं छोड़ने लगे !!
 
यह घटना और रास्ते में मिले पाकिस्तानी कचरे- जैसे सिगरेट के पैकेट्स, खाने के डब्बे, पर्वतारोहण के उपकरण आदि देखकर कर्नल कुमार को विश्वास हो गया कि पाकिस्तान चोरी छुपे सियाचीन पर अपना कब्ज़ा करने की कोशिश कर रहा है I उन्होंने हवा में उड़ते पाकिस्तानी लड़ाकू विमान, पाकिस्तान के छोड़े हुए कचरे आदि की फोटो खींच लीं जिस से पाकिस्तानी घुसपैठ को सबूत के एकत्रित हो जाएँ I इसके बाद कर्नल कुमार और उनकी टीम बेस कैंप में वापस लौट आये I बावजूद सियाचीन की टोह लगाने की रिपोर्ट के, कर्नल कुमार को अपने वरिष्ठ अधिकारियों को इस अपरिस्तिथि की गंभीरता के बारे में आश्वस्त करने में काफी समय लग गया I अंततः 1981 में उन्हें, सियाचीन ग्लेशियर केशुरू से लेकर चीन की सीमा तक, पूरे ग्लेशियर का नक्शा तैयार करने की अनुमति मिली I
 
इस बार कर्नल कुमार सियाचीन दोबारा आये, और 24350 फ़ीट ऊँची सिआ कांगरी को चढ़ने वाले पहले भारतीय बने I इस छोटी से पूरे ग्लेसियर का विस्तृत और अद्भुत नज़ारा मिलता है I कर्नल कुमार एक ब्योरेवार ( सिचुएशनल रिपोर्ट) रिपोर्ट बनाई जिसे तुरंत सेना के मुख्यालय भेज दिया गया I

 
इसके अगले साल बहुचर्चित मैगज़ीन 'इलूस्ट्रेटेड वीकली ' में उन्होंने इस अभियान के बारे में लिखा और सियाचीन पर भारत के दावे को सिद्ध कर दिया I जब पाकिस्तान ने देखा की अब सियाचीन इलाके में भारतीय सेना हरकत में आ गयी है, तो उसने सियाचीन को हथियाने के अपने गुप्त अभियान को तेज़ कर दिया I
 
1984 में यदि भारतीय ख़ुफ़िया विभाग ने पाकिस्तान सेना द्वारा लन्दन में ऊँच पहाड़ी इलाकों के लिए बने विशेष कपड़ों के बड़े आर्डर के बारे में पता न किया होता शायद पाकिस्तान चीन के साथ मिलकर काराकोरम पास में पाक- चीन कॉरिडोर बनाने में सफल हो जाता, जिस से सीधे लद्दाख को खतरा होता I
 
इस सामरिक खतरे को भाँपते हुए भारत ने तुरंत कुमाऊं रेजिमेंट को सियाचीन भेज दिया जिस से सियाचीन और पास की सलतोरो रेंज पर हमारा दवा बना रहे I भारतीय वायुसेना ने ऑपरेशन मेघदूत शुरू किया और बिलाफॉण्ड ला (बाल्टी भाषा में जिसका मतलब है तितलियों का पास) में हमारे जवानो को उतरा Iऔर इस तरह भारत ने सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण सियाचीन पर अपने पाँव जमाये, जो कुछ समय बाद दुनिया की सबसे ऊँची रणभूमि की नाम से जाना जाने लगा I यहाँ भारत ने पाकिस्तान को एक सप्ताह के अंतर से हराया I और जानते हैं हमारा सबसे महत्वपूर्ण हथियार क्या था?? कर्नल कुमार और उनकी टीम के बांये नक़्शे और खींची हुई फोटोज I कुछ वर्षों बाद ही वहाँ कुमार बेस के नाम की एक महत्वपूर्ण आर्मी पोस्ट बनायीं गयी, जो कर्नल कुमार को समर्पित थी I अपने जीवनकाल में इतना बड़ा और विरला सम्मान पाने वाले कर्नल कुमार भारतीय सेना के पहले अफसर हैं I
 
अदम्य साहस और दूरदर्शिता का परिचय देकर सियाचीन को हासिल करना कर्नल कुमार की अनेक उपलब्धियों में से एक है I 1961 में इस पर्वतारोही सैन्य अफसर ने अपने पैर की 4 उँगलियाँ फ्रॉस्ट बाईट में खो दीं थीं, बावजूद इसके 1964 में वे नंदा देवी पर चढ़ने वाले पहले भारतीय थे , 1965 में एवरेस्ट में भारत का झंडा फहराने वाले पहले भारतीय और 1976 में कांचनजंगा को उत्तर पूर्व दिशा, जो सबसे विकट है, से चढ़नेवाले पहले भारतीय थे I ब्रिटिश अल्पाइन जर्नल के अनुसार ये चढ़ाई एवेरेस्ट की चढ़ाई से भी अधिक कठिन है I शेरपा तेनसिंग नोर्गे के अनन्य मित्र, कर्नल कुमार, 8000 मीटर से ऊँची पर्वतश्रेणियों में 20 से अधिक बार चढ़े , जहाँ ऑक्सीजन भी बहुत कम हो जाती है I
 
अपने पैर की उँगलियाँ खोने के बावजूद साहसी कर्नल कुमार इतनी कठिन चढ़ाइयों पर जाते समय नॉन लायबिलिटी सेर्टिफिकेट पर दस्तखत कर के जाते, जिस से, यदि कोई दुर्घटना हो जाती तो भारत सरकार पर उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती I
 
इसी कारण कर्नल नरेंद्र 'बुल' कुमार भारतीय सेना के सर्वाधिक पदकों से सुसज्जित अधिकारी हैं I वे एकमात्र कर्नल हैं जिन्हे परम विशिष्ट सेवा मैडल (PVSM) से सम्मानित किया गया है I उन्हें साथ ही पद्म श्री, कीर्ति चक्र , अति विशिष्ट सेवा मैडल , अर्जुन अवार्ड और इंडियन मॉउंटेनियेरिंग फाउंडेशन गोल्ड मैडल से सम्मानित किया गया I
 
इसके अलावा कर्नल कुमार मक्ग्रेगोर मैडल के विजेता हैं जो उन्हें , यूनाइटेड सर्विस इंस्टीटूशन ऑफ़ इंडिया ने देश में दूरस्थ इलाकों में उनकी सर्वश्रेष्ठ सैनिक परीक्षण, खोज और सर्वे की क्षमता के सम्मान में दिया I
ये हमारा दुर्भाग्य है कि भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा और पर्वतारोहण के क्षेत्र में कर्नल कुमार के इन अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान और उपलब्धियों के बारे में लोग नहीं जानते I अब समय आ गया है कि भारत कि इस वीर सपूत को वो सम्मान और पहचान दी जाये जिसके वो हक़दार हैं I