जम्मू कश्मीर में अलग प्रधानमंत्री का किस्सा, दादा शेख अब्दुल्ला का अधूरा ख्वाब पूरा करना चाहते हैं उमर अब्दुल्ला!लेकिन अब ज़माना नेहरू का नहीं मोदी का है...
   06-अप्रैल-2019
 
 
उमर अब्दुल्ला पिछले 20 सालों से भारतीय राजनीति का हिस्सा हैं। इन दो दशकों में उन्होंने कई बार आतंकियों का समर्थन किया है। एक बार तो वे अलगाववादियों के साथ पाकिस्तान की सीमा में अन्दर तक चले गए। कई विवाद ऐसे भी थे जब उन्हें विधानसभा में और सार्वजनिक रूप से माफी तक मांगनी पड़ी। अबकी बार उमर ने उस किस्से को फिर से याद दिला दिया, जिसकी शुरुआत उनके दादा शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने की थी। उस दौरान विरोध तो हुआ लेकिन समय के साथ समाप्त हो गया। अब समय आया है कि वर्तमान पीढ़ी को भी जानकारी होनी चाहिए जब एक व्यक्तिगत जिद्द के चलते भारत में कभी दो प्रधानमंत्री भी होते थे!
 
जम्मू-कश्मीर में 1947 से 1965 तक मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था। वास्तव में इस दौरान ही वहां अलगाववाद की शुरुआत होती है। शायद उमर को उस इतिहास की जानकारी नहीं है, जिसके अंतर्गत भारत में देशी रियासतों का अधिमिलन हुआ। अपने वजूद को बचाने के लिए वे वही कर रहे है जो शेख अब्दुल्ला और मोहम्मद अली जिन्ना ने किया था। हम इसे मात्र सांकेतिक मानने की भूल भी नहीं कर सकते क्योंकि शेख ने इसी एक शब्द के चलते भारतीय संविधान को दरकिनार कर दिया था।
 
शेख अब्दुल्ला भारत की संविधान सभा के सदस्य थे। संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसी भारतीय संविधान पर शेख ने संविधान सभा के अन्य सदस्यों के साथ अपने हस्ताक्षर किये थे। इससे पहले सरदार पटेल के नेतृत्व में देशी रियासतें भारतीय संघ में शामिल हो चुकी थी। जम्मू-कश्मीर रियासत भी उसी सामान्य प्रक्रिया के तहत 26 अक्तूबर, 1947 को भारत का अभिन्न हिस्सा बन गयी। यहाँ से स्थिति तब बिगड़ी जब शेख को वहां के अस्थाई आपातकालीन प्रशासन का मुखिया बना दिया गया। इसके सूत्रधार भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे।
 
जम्मू और कश्मीर राज्य की बागडौर अब एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में थी जिसकी महत्वाकांक्षाओं की सीमा कभी खत्म नही हुई। सरदार पटेल ने 24 नवम्बर, 1947 को शेख अब्दुल्ला को पत्र लिखा। उन्होंने शेख को ‘हेड ऑफ़ द एडमिनिस्ट्रेशन’ के पद से संबोधित किया। हालाँकि शेख कभी इस नाम से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू से इसपर अपनी नाराजगी जताई। जल्दी ही 9 दिसंबर, 1947 को नेहरू के करीबी गोपालस्वामी आयंगर ने महाराजा हरि सिंह को एक पत्र लिखा। जिसमें यह बताया गया कि शेख को राज्य का प्रधानमंत्री बनाया जाए। सरदार को भी इसकी एक प्रति भेजी गयी थी लेकिन उन्होंने इन सुझावों को सिरे से नकार दिया।
 
 
 
 Nehru showed blind faith in Sheikh Abdullah, that caused great damage to J&K
 
 
ब्रिटिश सरकार के दौरान अधिकतर देशी रियासतों में राजा के अधीन एक प्रशासन बनाया गया था। आमतौर पर वहां प्रशासन के मुखिया को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था। जम्मू-कश्मीर में भी ऐसी ही एक व्यवस्था कायम थी। वहां की विधानसभा को प्रजा सभा के नाम से जाना जाता था। एक मंत्रिमंडल भी था जिसका नेतृत्व महाराजा के अधीन प्रधानमंत्री के पास था। महाराजा के साथ काम करने वाले आखिरी प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन थे जोकि बाद में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने। अधिमिलन के बाद अन्य सभी रियासतों में यह पद समाप्त हो गया। अब वहां राज्य सरकार का नेतृत्व मुख्यमंत्री के पास होने लगा जबकि जम्मू-कश्मीर इस मामलें में उनसे अलग हो गया।
 
शेख एक मुस्लिम साम्प्रदायिक नेता थे। मुस्लिम लीग और उनकी नेशनल कांफ्रेंस में कोई विरोधाभास नहीं था। जिन्ना की तरह शेख भी हमेशा एकतरफा मोलभाव को तवज्जो दिया करते थे। उनका श्रीनगर से दिल्ली आने का मतलब नेहरू से अपनी बातें मनवाना ही रहता था। पहले तो उन्होंने नेहरू को यकीन दिला दिया कि वे ही राज्य के लोकप्रिय नेता हैं। दूसरी तरफ नेहरू के मन में डर बैठा दिया कि अगर उनकी बात नहीं मानी गयी तो जम्मू-कश्मीर या तो भारत से अलग नही तो पाकिस्तान में शामिल हो जाएगा। सरदार पटेल को शेख की इस साजिश की पूरी जानकारी थी। इसलिए शेख ने सरदार पटेल से मिलना तक बंद कर दिया। वे दिल्ली आते तो सिर्फ नेहरू और आयंगर से ही मुलाकात करते थे।
 
 
 
 
 Nehru With Young Dr. Karan Singh, Shekh Abdullah can be seen behind them 
 
 
नेहरू के सामने शेख हमेशा ऐसी मांगे रखते थे जिन्हें पूरा करना संविधान के खिलाफ ही होता था। खुद को प्रधानमंत्री कहलवाने के लिए उन्होंने नेहरू से रजामंदी ले ली। भारतीय जनसंघ के संस्थापक और लोकसभा सदस्य रहे, डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी पहले ऐसे नेता थे जिन्होंने शेख को मुख्यमंत्री कहकर संबोधित किया। डॉ. मुखर्जी ही थे जिन्होंने 7 अगस्त 1952 को लोकसभा में एक देश में ‘दो प्रधानमंत्री’ पर नेहरू से सीधे सवाल किये। कांग्रेस और नेहरू सरकार दोनों ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इस मौन स्वीकृति ने शेख को मनमानी करने के लिए खुली छूट दे दी।
 
 
 
भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में राज्य सरकार के मुखिया को प्रधानमंत्री की जगह मुख्यमंत्री कर दिया गया। शेख और नेशनल कांफ्रेंस विरोध करते रहे लेकिन भारत सरकार ने अपना निर्णय नहीं बदला। इसके बाद 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और शेख के बीच एक एकॉर्ड हुआ। उसके अनुसार मुख्यमंत्री की शब्दावली पर भारत सरकार ने किसी भी तरह के समझौते से इनकार कर दिया। तो इस प्रकार शेख की विभाजनकारी नीति को विराम लगा। आज उमर अब्दुल्ला को जानकारी न हो कि विश्व का कोई भी ऐसा देश नहीं हैं जहाँ एक समय दो प्रधानमंत्री होते हैं। भारत में ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अलगाववाद के प्रायोजकों को प्रोत्साहित करना था। इसके समर्थक एक जमाने में नेहरू थे और आज उमर अब्दुल्ला बन गए हैं।