'भारतीय संविधान के अंतर्गत देश के 4 करोड़ मुसलमान खुश रह सकते हैं, तो जम्मू कश्मीर के 25 लाख मुसलमान क्यों नहीं"- डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी
   17-मई-2019



 

विश्लेषण – टीम JKNow

जम्मू कश्मीर का इतिहास डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुकर्जी के बिना हमेशा अधूरा रहेगा. जब भी जम्मू कश्मीर राज्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चिंतन - मनन करता किया जाता है तो वह चौंका देता है। जम्मू कश्मीर में स्वतंत्र भारत का पहला आंदोलन हुआ जिसे प्रजा परिषद आंदोलन के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन देश भर के अध्येताओं और विशेषकर इतिहास, राजनीति विज्ञान या कानून के अध्येताओं के लिए रुचिकर साबित हो सकता है।
 
 
हम जानते हैं कि पूरे विश्व में कोई भी आंदोलन हो, उसका उद्देश्य तत्कालीन व्यवस्था में व्याप्त किसी विसंगति को समाप्त करने के लिए होता है किन्तु प्रजा परिषद आंदोलन इस मायने में अनूठा था। प्रजा परिषद के आंदोलनकारी देश के अपने संविधान, बल्कि मैं कहूँगा कि देश की जनता के द्वारा तैयार किये गए संविधान को राज्य में लागू करना चाहते थे। मगर दुर्भाग्यवश उस समय की केंद्र व राज्य सरकारों को देशभक्तों का यह आंदोलन साम्प्रदायिक और विभाजनकारी नजर आ रहा था। आप जरा सोच कर देखिये कि आन्दोलनकारी सरकार से मांग क्या रहे थे ? आंदोलनकारी देश के स्वाभिमान के प्रतीक राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान और सर्वोच्चता को स्थापित करना चाहते थे। वो राष्ट्रीय पताका जिसे स्वयं संविधान सभा ने अपनाया था और उस संविधान सभा ने जिसमें जम्मू कश्मीर के भी चार प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। लेकिन उस दौर की केंद्र और राज्य सरकार को यह राष्ट्रीय कार्य, यह कानूनसम्मत मांग देश के विरुद्ध साजिश नजर आ रही थी. भला इस से बड़ी विडंबना क्या हो सकती थी ?
 
 
प्रजा परिषद आंदोलन पर जब निगाह डालते हैं तो साफ दिखाई देता है कि दो महान विभूतियाँ इसकी सूत्रधार थीं। प्रदेश के भीतर शेख अब्दुल्ला की निरंकुश और देशघाती नीतियों के विरुद्ध पंडित प्रेमनाथ डोगरा जी ने आवाज उठाई, वहीँ जम्मू कश्मीर से उठी इस चिंगारी को राष्ट्रीय पटल पर आंदोलनरूपी ज्वाला बनाने का कार्य श्रद्धेय डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने किया।
 


 
 
 
डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के व्यक्तित्व को जिन्होंने करीब से समझने की कोशिश की, वे जानते हैं कि डॉ. साहब सच्चे अर्थो में लोकतान्त्रिक मूल्यों के मजबूत पक्षधर थे। उनकी मान्यता थी कि लोकतंत्र में बड़ी से बड़ी समस्या का हल बातचीत से निकाला जा सकता है। वे यह भी मानते थे कि आंदोलन चाहे शांतिप्रिय ही क्यों न हो वह सबसे अंतिम हथियार है। उन्होंने प्रजापरिषद आंदोलन के दौरान अपनी इस मान्यता और विश्वास के अनुरूप काम भी किया। जब शेख अब्दुल्ला की षडयंत्रकारी कारस्तानियों का सिलसिला तेज होने लगा और दिल्ली के उस समय के हुक्मरान कहीं मुखर होकर तो कहीं मौन स्वीकृति देकर उन्हें बढावा देते जा रहे थे, उस समय डॉ मुकर्जी ने संवाद के जरिये इस गड़बड़ी को रोकने का प्रयास किया। शेख हों या पंडित नेहरु, दोनों के साथ डॉ साहब निरंतर पत्रव्यवहार करते रहे। उन्होंने लगातार प्रयास किया कि टेबल पर बैठकर सभी समस्याओं का निदान हो। मगर चूंकि उनके जैसा राष्ट्रीय दृष्टिकोण न घाटी वालों का था और न दिल्ली की कमान संभाले बैठे पंडित नेहरू का, इसलिए दोनों नेताओं ने डॉ मुकर्जी के इन प्रयासों को सिरे से नकार दिया। वार्ता के जरिये जटिल सवालों के हल निकालने के प्रयास को नकारना अपने आप में एक गैर प्रजातान्त्रिक कदम था, वहीँ इस से भी खतरनाक काम शेख और नेहरू की मित्रमंडली ने डॉ मुकर्जी और प्रजापरिषद के आन्दोलन को संसद के भीतर और बाहर सांप्रदायिक करार देकर किया।
 
 
 
परन्तु डॉ मुकर्जी ने इस साजिश को भी अपने तथ्यपरक वक्तृत्व एवं धारदार लेखनी से निस्तेज कर दिया। उन्होंने 25 मार्च को संसद में कहा कि भारत में राष्ट्रीय ध्वज सर्वोच्च है। जम्मू कश्मीर में भी उसका स्थान वही है जो देश के किसी अन्य राज्य में। क्या इसमें किसी को किसी प्रकार की साम्प्रदायिकता नजर आती है ? आज लगभग 70 वर्षो के पश्चात देश में इस बात पर चर्चा और बहस होनी चाहिए कि इस मुद्दे पर उस समय नेहरू जी सही थे या मुकर्जी साहब. तथ्य और सत्य आपको डॉ मुकर्जी के पक्ष में खड़े नजर आएंगे।
 
 
 
एक भारत Vs व्यक्तिवादिता
 
डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुकर्जी एक भारत की कल्पना में विश्वास रखते थे। हमारे स्वाधीनता सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने भी ऐसे ही भारत की कल्पना की थी। मगर जब आजाद भारत की कमान सँभालने वालों का बर्ताव इस सिद्धांत के खिलाफ हो चला तो हमारे डॉ साहब ने बहुत मुखरता और प्रखरता के साथ ’एक निशान एक विधान और एक प्रधान’ का नारा बुलंद किया . इस बात से कौन इनकार करेगा कि महाराजा हरि सिंह के अधिमिलन पत्र अर्थात इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षार करते ही समूचा जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हो गया। बाद में संविधान के शेड्यूल एक के अनुच्छेद एक के माध्यम से जम्मू कश्मीर भारत का 15वां राज्य घोषित हुआ. ऐसे में जम्मू कश्मीर में भी शासन व् संविधान व्यवस्था उसी प्रकार चलनी चाहिए थी जैसे कि भारत के किसी अन्य राज्य में. जब ऐसा नहीं हुआ तो मुकर्जी ने अप्रैल 1953 में पटना में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में हुंकारते हुए कहा था कि शेख और उनके मित्रों को यह साबित करना होगा कि भारतीय संविधान जिसके अंतर्गत देश के पैंतीस करोड़ लोग जिनमे चार करोड़ लोग मुसलमान भी हैं, वे खुश रह सकते हैं तो जम्मू कश्मीर में रहने वाले पच्चीस लाख मुसलमान क्यों नही ? उन्होंने शेख को चुनौती देते हुए कहा था कि यदि वह सेकुलर हैं तो वह संवैधानिक संकट क्यों उत्पन्न करना चाहते हैं। आज जब राज्य का एक बड़ा हिस्सा अपने आप को संवैधानिक व्यवस्था से जोड़ना चाहता है तो शेख अब्दुल्ला इसमें रोड़े क्यों अटका रहे हैं ? उनके द्वारा उठाये गए सवालों के जवाब न शेख के पास थे न पंडित नेहरू के पास। इसीलिए दोनों ने कभी डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुकर्जी से सीधे बात करने की कोशिश भी नहीं की।
 
 
 
अनुच्छेद 370 तथ्यात्मक विश्लेषण 
 
 
डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी जी का स्पष्ट मत था कि समूचे जम्मू कश्मीर राज्य का शासन प्रबन्ध स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुसार चलाया जाये। इस प्रसंग में शेख अब्दुल्ला भारतीय संविधान के 370 वें अनुच्छेद की शरण लेते थे। डॉ साहब साफ कहते थे कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी व्यवस्था है जो समय के साथ समाप्त हो जायेगी। यह किसी प्रकार का विशेष दर्जा या शक्ति नहीं है। यह संवैधानिक सत्य साफगोई के साथ नेहरु और उनके राजनीतिक कुनबे ने कभी देश के समक्ष नहीं रखा।
 
 
, इस अनुच्छेद के जन्म एवं प्रभाव को समझने के लिए उस समय की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि का अध्ययन आवश्यक है। अनुच्छेद 370 वास्तव में एक प्रक्रिया है, एक अंतरिम व्यवस्था की तरह है। इसके लिए हमें संविधान सभा की बहस के पन्ने तसल्ली के साथ उलट-पलट कर देखने पड़ेंगे। केवल एक बात समझने की जरुरत है कि जब भारत के संविधान निर्माण का काम प्रारंभ हुआ तब अधिमिलन के बाद नेगोशिएटिंग कमेटी ऑफ प्रिंसेस और ड्राफ्टिंग कमेटी ऑफ कोंस्टीट्युएंट असेंबली की बैठकें हुईं। इस प्रक्रिया में तीन बातें तय हुईं। पहला- भारत एक संघीय देश होगा। दूसरा- सभी राज्य संविधान बनाने की प्रक्रिया में भाग लेंगे और तीसरा -सभी राज्यों का अपना-अपना संविधान भी होगा।
 
 
 
 
 
वास्तव में यह तय हुआ था कि हर राज्य की संविधान सभा बनेगी और वह तीन काम करेगी-
 
 
पहला- अधिमिलन का अनुमोदन
 
 
दूसरा- भारतीय संविधान के प्रावधानों को राज्य में विस्तार करने और
 
तीसरा- वह राज्य के लिये स्वयं का संविधान बनायेगी वास्तव में यहीं से अनुच्छेद 370 का प्रारम्भ हुआ। 17 अक्टूबर को अनुच्छेद 370 पर बहस हुई, ड्राफ्ट 306 ए के रूप में। वास्तव में वो जो आखिरी चर्चा हुई वह 306 ए पर ही थी। वास्तव में जम्मू कश्मीर के अंदर युद्ध चल रहा था, परिस्थितियां विशेष थीं। जम्मू कश्मीर में संविधान सभा बन नहीं सकती थी। ऐसे में सवाल यह था कि भारत के संविधान का राज्य में विस्तार कौन करेगा ? तीन राज्यों में संवैधानिक सभा की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी - मैसूर, सौराष्ट्र और कोचीन त्रावणकोर। अन्य अनेक राज्यों में प्रक्रिया चल रही थी, लेकिन जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा बनना कब शुरु होगी यह किसी को मालूम नहीं था। भारत के संविधान को राज्य में कैसे ले जाया जायेगा, यह किसी को स्पष्ट नहीं हो पा रहा था, इसलिए ३७० का अस्थायी प्रावधान करने की जरूरत पड़ी।
 
 
 
गोपालास्वामी अयंगर ने कहाः
 
“There has been a war going on within the limits a ceasefire agreed to at the beginning of this year- Part of the State is still unusual- We are entangled with United Nations in regard to Jammu and Kashmir and it is not possible to say now when we shall be free from this entanglement-
 
 
 
उन्होने स्पष्ट करते हुए कहा-
 
 
“We have therefore to deal with the Government of the State which] as represented in its council of ministers] reflects the opinion of the largest political party- Till a constituent assembly comes into being] only an interim arrangement is possible and not an arrangement which could at once be brought into line with the arrangements that eÛist in case of the other States- Article 370] that was only an interim arrangement-
 
 
 
 
अनुच्छेद 370 को स्वतः समाप्त हो जाना था लेकिन इसका दुरूपयोग हुआ
 
 
एक सत्य यह है कि जम्मू कश्मीर की संविधान सभा के अधिमिलन पर मुहर लगने के साथ ही अनुच्छेद 370 को स्वतः समाप्त हो जाना था किन्तु यहीं से एक नयी समस्या का जन्म हुआ जिसे दिल्ली एकॉर्ड के नाम से जाना जाता है। न जाने किस दबाव में पंडित नेहरू ने शेख की सभी पृथकतावादी मांगों को मान लिया और यहीं से शेख की मनमानियों का जोर भी बढ़ गया। इस एकॉर्ड का परिणाम यह हुआ कि राज्य के पास अपना एक अलग से ध्वज हो गया, राज्य विधानसभा को राज्य के स्थायी निवासियों के विशेष अधिकार निर्धारित करने की शक्ति प्रदान कर दी गई और यह भी तय कर दिया गया कि राज्य में राजप्रमुख सदर-ए-रियासत होगा। यह अलगाव के बीजों को सींचने वाला काम था. जैसे-जैसे पंडित नेहरु शेख के आगे नतमस्तक हुए शेख का उत्साह बढ़ने लगा और उसने अपने भाषणो में आजादी की मांग करनी शुरू कर दी। इस मुकाम पर एक बार फिर साबित हुआ कि जम्मू कश्मीर और शेख को लेकर डॉ मुकर्जी सही थे और पंडित नेहरु की सोच और उनके कार्य गलत।
 
 
समय साक्षी है कि नेहरू और शेख के बीच हुए 1952 के इस कथित समझौते ने जम्मू काश्मीर की शेष देश के साथ एकात्मता को बड़ी चोट पहुंचायी है। डॉ मुखर्जी ने अन्य सभी तत्कालीन विपक्ष के नेताओं के साथ बार-बार संसद में इसे चुनौती दी किन्तु सत्ता पक्ष ने बहुमत के बल पर सत्य का गला घोंट दिया। तब उनके पास जनता के बीच जाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचा। देश भर में डॉ मुख्र्जी के नेतृत्व में आन्दोलन हुआ जिसकी परिणति उनके बलिदान के रूप में सामने आयी। आज भाजपा अध्यक्ष के रूप में मैं इस बात पर गर्व प्रकट कर सकता हूँ कि देश की एकता-एकात्मता के लिये स्वतंत्र भारत में पहला बलिदान हमारे संगठन के प्रथम अध्यक्ष ने दिया।
 
 
दिल्ली एकॉर्ड की असंवैधानिक बातों में से अनेक पर डॉ मुखर्जी के बलिदान के बाद विराम लगा किन्तु अलगाववादी तत्वों की मांगों को पीछे के रास्ते समर्थन देने की चालें चली जाती रहीं। परिणामस्वरुप जम्मू कश्मीर को लेकर आज भी कई संवैधानिक पेंच फसे हुए हैं।
 
 
 
संसद की अवहेलना 
 
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बिना संसद को विश्वास मेंलिये भारत के संविधान में राष्ट्रपति के आदेश से अनुच्छेद 35 । जोड़ दिया गया, जिसके आधार पर राज्य विधान सभा को यह अधिकार प्राप्त हुआ कि वह राज्य में स्थायी निवासियों को विशेष अधिकार प्रदान कर सकती है।
 
 
आज राज्य के अंदर अनेक वर्ग असमानता का शिकार हो रहे है। इस प्रावधान के अनुसार 1954 से 10 साल से पहले तक राज्य में बसे लोगों को ही राज्य का स्थायी निवासी माना जाता है।
 
 
 
 
 
स्थायी निवासियों को विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं जबकि जो राज्य के स्थायी नागरिक नहीं हैं उन्हें नहीं। देश के बंटवारे के समय पश्चिमी पकिस्तान से जो शरणार्थी यहाँ आये वो आज 67 साल के बाद भी राज्य के स्थायी निवासी नहीं बन पाए हैं क्योंकि वे 1947 में आये थे। देश में बहुत लोगों को मालूम नहीं होगा कि ये लोग लोक सभा का इलेक्शन लड़ सकते हैं, वोट डाल सकते हैं लेकिन राज्य विधान सभा या स्थानीय निकाय चुनावों में हिस्सा नहीं ले सकते इनके बच्चे व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते. पश्चिमी पकिस्तान से आये इन भारतीयों में सत्तर फीसदी से अधिक दलित हैं और भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों को प्रदत्त अधिकांश अधिकारों से ये आज तक वंचित हैं।
 
1954 में भारत के राष्ट्रपति ने अध्यादेश जारी किया जिसके तहत भारतीय संविधान में अनुच्छेद 35 । जोड़ा गया। यह भारतीय संविधान में संशोधन था। लेकिन संविधान संशोधन की सभी विधियों को ताक पर रख कर यह संशोधन किया गया। आज इस देश में चर्चा होनी चाहिए कि क्या राष्ट्रपति के पास विधायी शक्तिया है.? क्या राष्ट्रपति भारतीय संसद की उपेक्षा कर सकता है, और वह भी ऐसी स्थितियों में जब इस अनुच्छेद का जम्मू कश्मीर ही नहीं बल्कि पूरे भारत वर्ष के नागरिकों पर प्रभाव पड़ने वाला है। ; बॉक्सद्ध यह अनुच्छेद जम्मू कश्मीर की विधानसभा को राज्य में स्थायी निवासियों की व्याख्या करने व उन्हें कुछ अधिकार देने की शक्ति प्रदान करता है। इस अनुच्छेद के दुष्परिणाम क्या हुए ?
 
 
देश में दो तरह के लोग हो गए हैं- एक भारत के वे नागरिक जो जम्मू कश्मीर स्थायी निवासी है (Perment Resident of Jammu and Kashmir) और दूसरे भारत भारत के नागरिक जो जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी (Perment Resident) नहीं है।
 
 
यह अनुच्छेद राज्य के अलावा देश के अन्य नागरिकों के मूलभूत अधिकार जो उन्हें देश का संविधान प्रदान करता है, उनका हनन करता है। राज्य में पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थी, 1957 में पंजाब से लाये गए सफाई कर्मचारी, राज्य की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले गोरखा एवं राज्य की महिलाओं के मानवाधिकारों का हनन इस अनुच्छेद की वजह से हुआ है।
 
 
मूल विषय पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू कश्मीर है
 
 
आज जब हम डॉ मुकर्जी को स्मरण कर रहे हैं तो हमको याद रखना होगा कि पिछले 70 वर्षो से जम्मू कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के नाजायज कब्जे में है। मुकर्जी साहब ने लगातार अपने भाषणो में इस बात पर जोर दिया कि जम्मू कश्मीर को लेकर यदि कोई काम अभी अधूरा है तो वह है पाक अधिक्रांत जम्मू कश्मीर के क्षेत्र की मुक्ति। वे निरंतर नेहरू जी से यह प्रश्न करते थे कि क्या कभी पीओजेके का क्षेत्र भारत के पास आयेगा। आज गिलगित बल्तिस्तान जो कि पीओजेके का सबसे बड़ा हिस्सा है, पाकिस्तान से मुक्ति के लिये संघर्ष कर रहा है।
 
 
 
 
 
मगर आज का एक कटु सत्य यह है कि भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग अपने देश के उस बिछुड़े भाग और वहां बसने वाले भारतीयों को भूल चुका है। वह क्षेत्र और वहां के लोग भारत के संविधान के अनुसार, भारत की संसद के 1994 के संकल्प के अनुसार और तमाम अंतरराष्ट्रीय कानूनों के लिहाज से भी भारत के हैं। एक न एक दिन हम उन्हें वापस भारत से जोड़ेगे, यह हम सबका संकल्प होना चाहिए।
 
 
जम्मू कश्मीर के इतिहास में जहां प्रजा परिषद आंदोलन को इतिहासकारों ने उचित स्थान नहीं दिया वहीं जम्मू कश्मीर के अंतिम महाराजा हरी सिंह की भूमिका को भी कम कर आँका गया है। इस पुस्तक में डॉक्टर श्यामा प्रसाद द्वारा दिए गए भाषणों एवं पत्राचार को संकलित किया गया गया है जिसमें कई बार जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर महाराजा हरी सिंह की सराहना की थी। २३ फरवरी १९५३ को उन्होंने शेख अब्दुल्ला को एक पत्र लिख कर स्पष्ट किया था कि व्यक्तिगत तौर पर वो महाराजा को नहीं जानते और वंशानुगत शासन व्यवस्था में उनका विश्वास भी नहीं है किन्तु इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि महाराजा हरी सिंह देश के राजाओं में से एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने बीस वर्ष पूर्व लंदन में गोलमेज सम्मलेन के दौरान राजनैतिक स्वतंत्रता की मांग रखी थी. उनके इस रवैये के कारण ही वे अंग्रेजों की आँख में कांटे की तरह चुभते थे. अधिमिलन के समय भी महाराजा हरी सिंह की भूमिका उल्लेखनीय थी। अधिमिलन के बाद भी महाराजा ने एक कदम आगे बढ़ कर शेख अब्दुल्ला से विवाद के बाद भी उसे राज्य का शासन प्रमुख बनाया। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने अपने एक लेख में लिखा कि अजीब विरोधाभासध् विडंबना है, जिस निजाम ने भारत के विरुद्ध अपने स्वर बुलंद किये उसे राजप्रमुख बनाया गया लेकिन जम्मू कश्मीर के महाराजा ने मित्रवत व्यवहार किया उसे उसकी गद्दी से अपदस्थ किया गया।
 
 
 
जम्मू कश्मीर के इतिहास में 1947 से लेकर 1953 तक का कालखण्ड बहुत महत्वपूर्ण है। इसी कालखण्ड में ऐसे अनेक विषयों जैसे अनुच्छेद 370, प्रजा परिषद आंदोलन, महाराजा हरी सिंह की भूमिका इत्यादि को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं रखा गया।
 
 
 
डॉ मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके व्यक्तित्व को केवल जम्मू काश्मीर के संदर्भ में ही नहीं बल्कि एक शिक्षाशास्त्री के रूप में, देश के प्रथम उद्योग मंत्री के रूप में और देश में वैकल्पिक राजनीति के जनक के रूप में भी स्मरण किये जाने की जरूरत है।
 
 
 
डॉ मुकर्जी को भी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि समूचा देश डॉ मुकर्जी के विचार के अनुसार इस अधूरे काम को पूरा करने के लिए संकल्पबद्ध नजर आये।