शेख अब्दुल्ला ने नेहरू को दर्ज़नों बार धोखा दिया, फिर आखिर क्या मज़बूरी थी कि जम्मू कश्मीर के मामले में नेहरू शेख पर हर बार भरोसा करते रहे और कश्मीर का सुलगने दिया?

 
 
 
अप्रैल 1964 में जेल से निकलने के बाद शेख अब्दुल्ला प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने दिल्ली पहुंचे। दोनों की यह आखिरी मुलाकात 11 सालों के अंतराल के बाद हो रही थी। शेख जब पालम हवाईअड्डे पहुंचे तो वहां उनके स्वागत में इंदिरा गाँधी मौजूद थी। वे सभी सीधे तीन मूर्ति भवन पहुंचे। नेहरू उन दिनों गंभीर रूप से बीमार थे। इस लम्बी चर्चा के निष्कर्ष में शेख को पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए प्राधिकृत किया गया। यह प्रधानमंत्री का एक व्यक्तिगत निर्णय था, जिसके लिए उन्होंने मंत्रिमंडल के सहयोगियों से पूछना जरूरी नहीं समझा। उन्होंने न ही संसद को भरोसे में लिया और देश की जनता को इसकी जानकारी नहीं दी।
 
यह निर्णय एक बंद कमरे में लिया गया था। नेहरू को शेख के भारत विरोधी दुष्प्रचार की जानकारी थी। उन्हें यह भी पता था कि शेख को पाकिस्तान से समर्थन मिल रहा है। फिर भी उन्होंने शेख को पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से मिलने भेजा। यह भारत की विदेश नीति और सुरक्षा दोनों के साथ भद्दा मजाक था। जो व्यक्ति 11 सालों से जेल में बंद हो और जिसकी गतिविधियाँ देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक थी, उसे भारत और पाकिस्तान के बीच सुलह के लिए अधिकृत किया गया।
 
शेख तो इसी फिराक में थे कि उन्हें भारत से बाहर जाने की अनुमति मिल जाये। उन्होंने 13 मई, 1964 को वीजा के लिए आवेदन किया। इससे सम्बंधित फॉर्म में शेख ने अपनी नागरिकता भारतीय न बताकर ‘कश्मीर का नागरिक’ बताई। उन्होंने लिखा कि वे ‘कश्मीर के पहले दर्जे के नागरिक’ है। इसकी जानकारी भारत के विदेश मंत्रालय को थी जिसका प्रभार खुद नेहरू के पास ही था। इस ग़ैरक़ानूनी तरफदारी से शेख को तीन महीनों की वैधता का वीजा मिल गया। उन्हें पाकिस्तान के सहित संयुक्त अरब अमीरात, ब्रिटेन, जॉर्डन, लेबनान, सीरिया, इटली, जर्मनी और ईराक जाने की अनुमति भी दी गयी। वे पाकिस्तान के साथ पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के मुज्जफराबाद शहर भी गए। वहां 27 मई, 1964 को उन्हें प्रधानमंत्री नेहरू के निधन का समाचार मिला। इसलिए उन्हें दिल्ली लौटना पड़ गया।
 

 
 
यह किस्सा यहीं समाप्त नहीं होता। उपरोक्त अपराधशील कारनामे के पीछे की सच्चाई भी बेहद कड़वी है। शेख एकलौते ऐसे व्यक्ति थे जिनपर नेहरू सबसे ज्यादा भरोसा करते थे। एक ही समय पर उन्हें धोखा भी शेख से ही मिला। जम्मू-कश्मीर की स्थितियां सामान्य हो सकती थीं अगर प्रधानमंत्री एकबार अपने दिल की जगह दिमाग से काम लेते। सिर्फ यही मान लेना कि अब्दुल्ला वह सब कर सकते है जो कोई नहीं कर सकता। यह एक बड़ी भूल थी जिसे प्रधानमंत्री दोहराने लगे थे। जबकि शेख राज्य ही नहीं देश के लिए भी मुसीबत बनते जा रहे थे।
 
शुरुआत मई 1953 में प्रधानमंत्री नेहरू के जम्मू-कश्मीर के दौरे से होती है। यहाँ आकर उन्हें समझ आ गया था कि शेख का भारत के प्रति रवैया अब शत्रुतापूर्ण बन चुका है। वास्तविकता का सामना होने के बाद भी देश का प्रधानमंत्री ‘उदास’ होकर दिल्ली लौट आया। संभवतः यह तत्कालीन भारत सरकार का समस्याओं से निबटने का सबसे सरल तरीका था।
 
यह समस्या पहले भी सामने आ चुकी थी। शेख ने अप्रैल 1952 में रणबीरसिंहपूरा में भारत विरोधी भाषण दिया। उन दिनों वहां अमेरिकी राजनयिक ले डब्लू. हेंडरसन मौजूद थे। लगातार एक साल तक उन्होंने भारत के खिलाफ सार्वजानिक मंचों का इस्तेमाल किया। उधर भारत सरकार कठोर कदम उठाने के जगह शेख से 'सुलह' करने की कोशिशों में लगी हुई थी। भारत की एकता और अखंडता अब शेख के रूठने एवं मनाने की शर्तों पर निर्भर होकर रह गयी। उन्हें समझाने के लिए जून 1953 में मौलाना आज़ाद को भेजा गया। उन्होंने मौलना को नजरंदाज कर दिया। फिर भी नेहरू सोचते रहे कि शेख के इस व्यवहार में परिवर्तन हो जायेगा
 
 
 
 
वैसे नेहरू की प्राथमिकता से जम्मू-कश्मीर बाहर था। चुनौतीपूर्ण और विपरीत हालातों के बीच वे एलिजाबेथ के राज्याभिषेक में शामिल होने लन्दन चले गए। पीछे से रफ़ी अहमद किदवई को जम्मू-कश्मीर मामले को देखने की जिम्मेदारी दी गयी।
 
प्रधानमंत्री के वापस आने तक हालात भयावह हो चुके थे। ‘सुलह’ के सभी रास्ते बंद हो गए तो शेख को बातचीत के लिए दिल्ली बुलाया जाने लगा। वे आने से आनाकानी करने लगे। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि देश का प्रधानमंत्री एक राज्य के मुख्यमंत्री को बुलाये और वह उन्हें साफ़ इंकार कर दे। शेख को टेलीफ़ोन किये और पत्र लिखे गए। फिर भी वे नहीं आये। नेहरू ने संसद में बताया कि शेख और कुछ अन्य लोग इस तरह बोलने लगे थे जोकि मेरे लिए एकदम अटपटा और व्यथित करने वाला था। वह एक ‘लाचार’ प्रधानमंत्री की तरह अपना बचाव कर रहे थे। नेहरू अपनी असमर्थता जताते हुए कहते हैं, “मैं इस सम्बन्ध में विरोध के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। इससे ज्यादा में बस पूछ सकता था कि उन्होंने (शेख अब्दुल्ला) ऐसा क्यों किया?”
 
आखिर जम्मू-कश्मीर में ऐसा क्या हो रहा था कि भारत का प्रधानमंत्री मजबूर हो गया और शेख अपनी मनमर्जी कर रहे थे। इसकी जानकारी जम्मू-कश्मीर से नामांकित संसद सदस्य रहे शिव नारायण फोतेदार से मिलती है। वे बताते है कि शेख से एक बार उन्होंने दो घंटे से भी ज्यादा चर्चा की। बातचीत में उन्हें बताया गया कि जम्मू-कश्मीर का हल उसकी आज़ादी में है। जिसमें कश्मीर घाटी स्वतंत्र रहे। हिन्दू बहुल जम्मू और लद्दाख को भारत में शामिल होना चाहिए। पाकिस्तान अधिक्रांत इलाकों पर यथास्थिति बनी रहे।
 
शेख की योजना में भारत का विभाजन था। इसके लिए उन्होंने अन्य देशों खासकर पाकिस्तान से संपर्क स्थापित कर लिए थे। शेख 8 अगस्त, 1953 की रात गुलमर्ग गए और वहां कुछ विदेशी एजेंटों से मुलाकात की। विपक्ष और जनता के भारी दवाब में आख़िरकार शेख को अगले ही दिन गिरफ्तार कर लिया गया। सच्चाई तो यह थी कि यह सब मात्र एक दिखावा था। शेख के जेल जाने के बाद नेहरू ने राज्य सरकार को कई पत्र लिखे। जिनमे अनुरोध किया गया कि अब शेख को रिहा कर देना चाहिए। भारत सरकार के दवाब के चलते शेख 8 जनवरी, 1958 को बाहर आ गए। अब वे पहले से भी ज्यादा असंयमित भाषण देने लगे। इसी दौरान भारत में गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारियां शुरू हो गयी। इस बार राज्य सरकार ने भी इसे धूमधाम से मनाने की घोषणा की। शेख को यह कैसे मंजूर हो सकता था? उन्होंने एक ‘फरमान’ जारी कर इस दिन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया।
 
यह नेहरू की राजनैतिक हार थी। शेख को रोकने के लिए उन्हें अपने उच्च अधिकारी श्रीनगर भेजने पड़ गए। अचानक उस दिन मौसम ख़राब हो गया और शेख कुछ नहीं कर पाए। इस तरह सब शांति से निपट गया। वास्तव में शेख की जबरन रिहाई ने राज्य में हालात असामान्य कर दिए थे। फिर से भारत सरकार पर दवाब बनाया गया। इसलिए शेख को 30 अप्रैल, 1958 को गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार जेल में उन्हें जरुरत का फर्नीचर और संसाधन उपलब्ध कराये गए। साथ ही उनके परिवार को मुआवजा तक दिया गया।
 
जम्मू-कश्मीर में अलगाव की शुरुआत करने वाले शेख थे। राज्य के आतंरिक मामलों में पाकिस्तान का दखल भी उन्ही के समय में हुआ। शेख ने 1962 में नेहरू को एक पत्र लिखा जिसके अनुसार उन्हें अपने कारनामों पर कोई पछतावा नहीं था। इतना कुछ घटित हो चुका था और हो रहा था, फिर भी नेहरू ने सितम्बर 1963 को राज्य सरकार को पत्र लिखकर मुकदमा वापस लेने का दवाब बनाया। आखिरकार एक बार दुबारा बिना किसी शर्त पर शेख को रिहा कर दिया गया। वास्तव में, उन दिनों अगर प्रधानमंत्री नेहरू अपनी मज़बूरी से हटकर कुछ सख्त फैसले लेते तो जम्मू-कश्मीर में सबकुछ सामान्य होता।