साल 1965, जब शेख अब्दुल्ला चीन के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर के विभाजन की योजना बना रहे थे, इसमें उनका साथ दिया पाकिस्तान ने
 
 
 
 
लेखक- देवेश खंडेलवाल,   पार्ट- 1
 
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद शेख अब्दुल्ला ने भारत सरकार से हज पर जाने की इजाजत मांगी। वास्तव में हज उनकी प्राथमिकता में कभी शामिल ही नहीं था। उनकी वास्तविक योजना जम्मू-कश्मीर के विभाजन की थी। जिसके लिए वे अन्य देशों से समर्थन जुटाना चाहते थे। उन्होंने नवम्बर 1964 में अपनी यात्रा के लिए वीजा आवेदन किया। उनकी इच्छा के अनुसार भारत सरकार ने उन्हें 7 महीनों का वीजा दे दिया। इसमें उन्हें सऊदी अरब, ईराक, ईरान, जोर्डन, संयुक्त अरब अमीरात, यमन, लेबनान, अफगानिस्तान, अल्जरिया, ब्रिटेन, टर्की, रूस और यूरोप के सभी देश, पुर्तगाल को छोड़कर, जाने की अनुमति दी गयी।
 
 
हालाँकि, इस बार भी शेख ने वीजा के फॉर्म में अपनी नागरिकता कश्मीरी मुसलमान लिखी थी। भारत सरकार ने इस अपराध को जानबूझकर नजरंदाज कर दिया। विरोध होने पर विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह ने शेख के इस कारनामें पर कहा, “अगर वे पाकिस्तान की नागरिकता लेते है तो भारत सरकार को कोई दिक्कत नहीं है।” यह एक गैर-जिम्मेदार बयान था। शेख भारत के एक राज्य का भूतपूर्व मुख्यमंत्री रह चुके थे। उन्होंने अपनी नागरिकता भारतीय नहीं लिखी, जब गलती पकड़ी गयी तो केंद्र सरकार उससे दूरी बनाने में लग गयी।
 
 
शेख की भारत विरोधी गतिविधियों की जानकारी सरकार के पास थी। इसलिए वे 11 सालों तक जेल में भी बंद रहे। जिन्ना के बाद अगले शेख ही थे, जिन्होंने भारत विभाजन की रुपरेखा लगभग तैयार कर ली थी। बावजूद इसके भारत सरकार ने उनकी इन यात्राओं के लिए 35,000 की एक बड़ी राशि उपहार में दे दी। जिसका इस्तेमाल उन्होंने भारत के खिलाफ दुष्प्रचार में जमकर किया। विदेश में उन्होंने जितने भी सार्वजनिक भाषण दिए और मीडिया को संबोधित किया, सभी जगह भारत का विरोध किया। असल में शेख पाकिस्तान के समर्थक बनकर गए थे।
 
 
शेख ने अपने विदेश यात्राओं की शुरुआत जेद्दाह से की। स्थानीय नागरिकों को उनके समर्थन में जुटाने का काम वहां के पाकिस्तान दूतावास ने किया। यही नहीं शेख के कथित जीवन संघर्ष पर पैम्फलेट बांटे गए। आमतौर पर इन गतिविधियों पर भारत सरकार की तरफ से कोई रोक नहीं होती थी। इसके बाद लन्दन में शेख की प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की गयी। इस कार्यक्रम की आयोजक वहां का पाकिस्तान दूतावास था। इसका असर यह हुआ कि ब्रिटेन के कश्मीरी मुसलमानों ने शेख को 32000 पौंड के स्टर्लिंग इकठ्ठा करके भी दिए। जिसके बदले में शेख ने उन्हें आश्वाशन दिया कि जल्दी ही वे स्वतंत्र कश्मीर सरकार की घोषणा करेंगे। भारत सरकार ने इस पूरे प्रकरण पर कोई कार्यवाही नहीं की और अंत तक शांत रही।
 
 
 
 
 जनरल अयूब खान और ज़ुल्फिकार अली भुट्टों के साथ शेख अब्दुल्ला 
 
 
जब शेख जब कायरों में थे तो चीन के विदेश मंत्री पाकिस्तान के दौरे पर थे। जुल्फिकार अली भुट्टों ने उन्हें 27 मार्च, 1965 को रात्रि भोजन पर बुलाया। चीन के विदेश मंत्री ने खुलासा किया कि चीन सरकार ने शेख को चीन आने का निमंत्रण भेजा है। शेख पहले ही इस आमंत्रण को स्वीकार कर चुके थे। उन्होंने कायरों से प्रेस कांफ्रेंस कर चीन के राष्ट्रपति से मिलने की अपनी इच्छा भी जगजाहिर कर दी।
 
 
प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने दावा किया कि वे शेख को चीन नहीं जाने देंगे। शेख को पहला समर्थन जवाहरलाल नेहरू की बहन और राजनयिक विजयलक्ष्मी पंडित से मिला। जबकि पूरे देश में इस पर जबरदस्त विरोध शुरू हो गया था। विजयलक्ष्मी को शेख के चीन जाने में कोई आपत्ति नजर नहीं आती थी। उन्होंने असंयमित होकर कहा, “मान लीजिये थोड़ी देर के लिए कि शेख अब्दुल्ला चीन चले भी जाए या अगर स्पेस में चले जाए तो क्या इससे हमारी कश्मीर नीति बदलने वाली है।”
 
 
वैसे भी जवाहरलाल नेहरू ने ही शेख को जरुरत से ज्यादा रियायतें दी थी। इसलिए उनके हौसलें सीमा पार कर चुके थे। फिलहाल विरोध के चलते शेख चीन नहीं गए। लेकिन जब उन्हें पता चला कि अल्जियर्स में चीन के राष्ट्रपति का दौरा प्रस्तावित है, तो बिना देरी किये वहां पहुंच गए। वे चीन के राष्ट्रपति से मिलने के लिए इतने उत्साहित थे कि चार दिन तक उनका वहां इन्तेजार करते रहे। आखिरकार 31 मार्च, 1965 को उनकी मुलाकात हो गयी। उस दैरान उनके साथ मिर्जा अफजल बेग भी थे।
 
 
इधर भारत सरकार ने खानापूर्ति के तौर पर मान लिया कि यह मुलाकात एकदम निंदनीय है। इसे रोकने के उपाय किये जा सकते थे। क्योंकि भारत के विदेश सचिव अल्जियर्स में पहले से ही मौजूद थे। शेख यही नहीं रुके, अल्जियर्स से भारत आने की जगह उन्होंने पाकिस्तान जाने की मंशा व्यक्त की। चूंकि वीजा में पाकिस्तान शामिल नही था इसलिए भारत सरकार से गुहार लगाई गयी। तब तक भारत में विपक्ष ने इस पूरे मामलें पर कांग्रेस सरकार की घेराबंदी शुरू कर दी थी। अतः शेख की मंशा अधूरी रह गयी।
 
 
भारत से निराशा हाथ लगने के बाद शेख को पाकिस्तान से सहयोग मिला। वहां के विदेश मंत्री ने शेख को वीजा देने की पेशकश तक कर दी। यह संभव तो नही था लेकिन इस प्रकरण ने स्पष्ट कर दिया कि शेख और पाकिस्तान का रिश्ता कितना गहरा था।
 
 
शेख अल्जियर्स से फ़्रांस चले गए और भारत लौट आये। भारत में कांग्रेस सरकार को कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा था। जब कोई रास्ता नहीं बचा तो पालम हवाईअड्डे पर उतरते ही शेख और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। उनका पासपोर्ट भी जब्त कर लिया गया। शेख को जम्मू-कश्मीर से दूर रखने के लिए तमिलनाडू भेज दिया गया। अब वे वहां नजरबंदी में कैद थे।
 
 
केंद्र सरकार ने 10 मई, 1965 को बताया कि भारत की सुरक्षा, नागरिक सुरक्षा, लोक सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए शेख को गिरफ्तार किया गया है। जिस व्यक्ति पर इतने गंभीर आरोप लगे हो उसे इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री बनते ही बिना शर्त रिहा कर दिया। ईद के दिन यानि 2 जनवरी, 1968 को उन्हें फिर से बाहर कर दिए गए। इसके बाद 4 और 20 जनवरी, 1968 को उनकी दो बार इंदिरा गाँधी से मुलाकातें हुई। जब प्रधानमंत्री से इस तरह मिलने का मकसद पूछा गया तो उन्होंने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया।
 
 
शेख श्रीनगर लौट आए और फिर से भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त हो गए। एकबार फिर 1971 में उन्हें जम्मू-कश्मीर से निष्काषित करना पड़ा।
 
 
-जारी