बलिदान दिवस: 5वें सिख गुरु अर्जन देव जी के बलिदान दिया, लेकिन मुगल जहांगीर से समझौता नहीं किया, यहीं से सिखों में शहीदी परंपरा प्रारंभ हुई, जिसको मुगल कभी झुका नहीं सके
   30-मई-2019
 
गुरू अर्जन देव जी सिखों के पांचवें गुरू थे जिनका जन्म 15 अप्रैल 1563 को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। गुरू अर्जन देव जी गुरू रामदास जी तथा माता भानी जी के सुपुत्र थे। गुरू अर्जन देव जी को 18 साल की उम्र में सन 1581 में गुरगद्धी प्राप्त हुई। गुरू साहेब ने 1588 में हरमंदर साहिब का निर्माण कार्य शुरू करवाया। गुरू अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ (श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी) के संकलन का कार्य भी भाई गुरदास जी से कराया जो की 31 जुलाई 1604 को संपूर्ण हुआ। दसवंध निकालने की प्रथा भी गुरू जी ने ही शुरू की थी। इसके साथ ही गुरू जी ने शहादतों की उस महान परंपरा को भी शुरू किया था जिसमें आगे चलकर सिखों ने भी अपना योगदान दिया था। गुरू साहेब ने प्रभु का भाणा कैसे माना जाता है इसकी मिसाल भी सिखों के सामने रखी। अगर किसी को कुछ पढ़ाना हो तो पहले स्वयं पढ़ना पड़ता है, कुछ सिखाना हो तो पहले खुद सीखना पड़ता है, शहीद होना और भाणा मानना बताना हो तो खुद भाणा मानकर भी दिखाना पड़ता है। सिख गुरूओं ने सिखों को पहले स्वयं भाणा मानकर, जुल्म सहन करके एक ऐसी अनूठी दृढ़ता सिखाई जिसको सिख आज भी महसूस करते हैं।
 
 
 
 
सिखों के पांचवे गुरु अर्जन देव जी की शहादत सिख इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। गुरु जी के बलिदान ने उस विलक्षण शहीदी परंपरा को जन्म दिया, जो गुरु तेग बहादुर जी और चार पुत्रों से होती हुई आत्म-बलिदानी सिंहों तक चलती रही।
 
 
 
 
अर्जन देव जी ने अमृतसर साहिब में 'हरिमंदर साहिब' की स्थापना करके सिखों को एक केंद्रीय आध्यात्मिक स्थान दिया। 'गुरु ग्रंथ साहिब' का संपादन करके उसे मानवता के अद्भुत मार्गदर्शक के रूप में स्थापित किया। गुरुजी की अद्वितीय प्रबंधन क्षमता ने सिख धर्म को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध और प्रभावशाली संगठन बना दिया। कहा जाता है कि सिखों की यह उन्नति कुछ लोगों को रास नहीं आ रही थी। उनमें एक था-प्रिथीचंद, जो गुरु जी का बड़ा भाई था। उसे इस बात की नाराजगी थी कि पिता चौथे गुरु श्री रामदास जी ने बड़ा पुत्र होने के बावजूद उसे गुरु नहीं बनाया, इसलिए ईष्र्यावश वह हर समय गुरु जी का अहित करने का प्रयास करता। प्रिथीचंद लाहौर के नवाब को हर समय अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़कता रहता। दूसरी ओर लाहौर का दीवान चंदू गुरु हरिगोबिंद साहिब से अपनी बेटी का रिश्ता टूट जाने के कारण गुरु जी का द्रोही बन बैठा। चंदू ने भी गुरु जी के विरुद्ध अफवाहें फैलानी शुरू कर दीं। ऐसे माहौल में अक्टूबर, 1605 में नूरुद्दीन जहांगीर अकबर की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य के तख्त पर बैठा। अपनी आत्मकथा 'तुजक-ए-जहांगीरी' में उसने सिख गुरुओं के बारे बड़े अपशब्दों का प्रयोग किया।
गुरु साहिब के विरोधी पहले अकबर की धर्म निरपेक्ष प्रवृत्ति के कारण कुछ नहीं कर पाते थे, लेकिन जहांगीर के बादशाह बनते ही वे सक्रिय हो गए। वे जहांगीर को गुरुजी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए उकसाने लगे।
 
 

 
 
उधर, जहांगीर के छोटे पुत्र शहजादा खुसरो ने अपने पिता के खिलाफ बगावत कर दी, जिस पर जहांगीर ने खुसरो को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। खुसरो भयभीत होकर पंजाब की ओर भागा। जहांगीर ने खुद पीछा किया। खुसरो तरनतारन गुरु सहिब के पास पहुंचा। गुरु घर में मेहमान का स्वागत सम्मान किया गया और सिख परंपरा के अनुसार आशीर्वाद दिया गया। इस पर जहांगीर ने उलटे-सीधे आरोप लगाकर गुरु जी को गिरफ्तार करने का हुक्म दे दिया। शांतिप्रिय गुरु जी स्वयं लाहौर पहुंचे। गुरु जी पर खुसरो की मदद करने और बादशाह से बगावत करने का दोष लगाया गया। गुरु जी भविष्य के बारे में जानते थे, इसलिए पहले ही बाल हरिगोबिंद साहिब को गुरुगद्दी सौंपकर शहादत को गले लगाने चल दिए।
 
 
जहांगीर ने गुरू साहेब को गिरफ्तार करके दो लाख का जुर्माना लगा दिया गया। और लाहौर के हाकम मुर्तजा खान के हवाले कर दिया। उसने यह काम चंदू को सौंप दिया, ताकि वह अपनी घरेलू दुश्मनी निकाल सके। उस समय चंदु ने कहा कि आपका जुर्माना माफ हो जाएगा बस अपने ग्रंथ में कुछ बदलाव कर दें तथा मोहम्मद साहिब की स्तुति लिख दें और मेरी बेटी का रिश्ता अपने पुत्र के साथ स्वीकार कर लें। गुरू जी ने यह कहकर इनकार कर दिया कि किसी की खुशी के लिए हम अपनी गुरबाणी में कुछ भी अलग नहीं लिख सकते। चंदु ने गुरू जी को कहा कि फिर कष्ट सहने के लिए तैयार हो जाओ।
 
 
 
 
 
 
उसके बाद गुरू जी को पानी से भरी देग (एक बड़े बर्तन) में बैठा दिया गया तथा नीचे आग जला दी गई। चंदु यह सोच रहा था कि आग की गर्मी के कारण गुरू जी मान जायेंगें। पानी को इतना उबाला गया कि गुरू जी के सारे शरीर पर छाले पड़ गये। अगले दिन फिर चंदु ने गुरू जी से वो ही शर्तें मानने को कहा, लेकिन गुरू जी गुरबाणी में कुछ भी लिखने को तैयार नहीं थे। गुरू जी को एक लोहे की तवी पर बैठने के लिये कहा गया, जिसके नीचे तेज आग जला दी गई। इसके साथ ही पास में एक बड़ी कड़ाही में रेत को गर्म किया गया तथा जब रेत तपकर, गर्म होकर लाल हो गया तो वह रेत लगातार उपर से गुरू जी के नंगे शरीर पर गिराया गया। उस समय मई-जून की झुलसा देने वाली गर्मी थी, गुरू जी जिस लोहे पर बैठे थे वह भी तपकर लाल हो गया था क्योंकि नीचे लगातार आग जलाई जा रही थी तथा उपर से नंगे शरीर पर गर्म लाल रेत डाली जा रही थी, इतनी गर्मी के कारण पास खड़े मुग़लों के भी पसीने छुट रहे थे। लेकिन इतनी गर्मी व तपीस के बाद भी गुरू जी प्रभु के भाणे में शांत व अड़ोल बैठे थे। पांच दिन तक लगातार यातनाएं देने के बाद ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष चतुर्थी, संवत 1663 (30 मई, 1606) को गुरु जी के अ‌र्द्ध मूर्छित शरीर को रावी नदी में बहा दिया गया।
 
 
 

 
 गुरु अर्जन देव के बलिदान स्थल पर बना गुरुद्वारा श्री डेरा साहिब, जोकि लाहौर पाकिस्तान में है
 
 
 
गुरू साहेब की शहादत ने सिखों को कष्ट सहने, अड़ोल रहने तथा प्रभु का भाणा मानने की शिक्षा दी। जिसके कारण आगे चलकर हज़ारों सिख शहीद अवश्य हो गये, परंतु किसी ने अभी अपना धर्म त्यागना प्रवान न किया। गुरु जी की इसी शहादत को याद करके सिख सभी राहगीरों को ठंडा जल पिलाते हैं जिसे 'छबिल' कहा जाता है। सिखों की ऐसी छबिल पर तो आपने भी मिठा जल अवश्य ही पीया या पिलाया होगा।
 
 
(प्रमाणिकता के लिए इस लेख का अधिकांश हिस्सा सिखी: कल, आज और कल से लिया गया है)