14 जून 1952, जब जम्मू कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की राष्ट्रविरोधी नीतियों के खिलाफ भारतीय जनसंघ ने शुरू किया राष्ट्रवादी आंदोलन का आगाज़

 
जवाहरलाल नेहरू ने भारत के प्रधानमंत्री के नाते 15 अप्रैल, 1952 को शपथ लेते हुए कहा, “वे विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखेंगे।” साथ ही देश की पहली निर्वाचित सरकार के मुखिया ने भारत की प्रभुता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने का भी वायदा किया। इस प्रतिज्ञा के दो आयाम थे, एक भारत की तकदीर का फैसला नेहरू के हाथों में आ गया। दूसरा, पिछली दो शताब्दियों में ब्रिटिश साम्प्रदायिकता और विभाजनकारी दंश से देश को उबारने की जिम्मेदारी।
 
यह हमारा दुर्भाग्य ही था कि मात्र दो महीनों के अन्दर प्रधानमंत्री नेहरू ने अपनी शपथ को खुद झूठा साबित कर दिया। उन्होंने उन पहलुओं को दरकिनार कर दिया, जिनके समाधान के लिए देश के नागरिक उम्मीद लगा रहे थे। बात भारत के सबसे उत्तरी राज्य जम्मू-कश्मीर के संबंध में है। वहां की कमान शेख अब्दुल्ला के हाथों में थी, जो अपनी इस्लामिक कट्टरपंथी छवि के लिए जाने जाते थे। इसके अलावा वे राज्य में अलगाववाद फ़ैलाने के भी दोषी हैं।
 
हालांकि, शेख की पृथकतावादी मानसिकता का विरोध दिल्ली में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी कर रहे थे। अपने जीवन के अंतिम दिन तक वे जम्मू-कश्मीर के पूर्ण अधिमिलन की वकालत करते रहे। वही शेख संवैधानिक प्रावधानों का मज़ाक उड़ाते रहे और नेहरू उसपर चुप्पी साध लेते। इस एकतरफा समर्थन से जुड़ा एक किस्सा जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की कार्यवाही का है। शेख ने 7 जून, 1952 को सभा के समक्ष एक प्रस्ताव रखते हुए कहा, “यह निर्धारित किया गया कि जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रीय ध्वज आकार में आयताकार और लाल रंग का होगा।” शेख के शब्दों पर गौर करना बेहद जरुरी है, जिसमें कहा गया ‘जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रीय ध्वज’। जबकि भारत में किसी भी राज्य का अपना कोई ध्वज नहीं है, जो भी है वह भारत का राष्ट्रीय ध्वज यानि तिरंगा है।
  
 
 
 
दिल्ली में इसके खिलाफ भारतीय जनसंघ की कार्यसमिति ने 14 जून को एक प्रस्ताव पारित किया। जनसंघ का स्पष्ट मानना था कि राज्य की संविधान सभा का फैसला भारत की प्रभुसत्ता और भारत के संविधान की भावना के विरुद्ध है। इसके पीछे एक ठोस वजह भी थी। भारत ने अपना राष्ट्रीय ध्वज 22 जुलाई, 1947 को स्वीकार किया था। भारत की संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू ही इसके प्रस्तावक थे। उस दिन उन्होंने लंबा और भावुक भाषण दिया, जिसकी पहली पंक्ति थी, ‘भारत का राष्ट्रीय ध्वज’। नेहरू ने कहा, “हमने ध्वज की खुबसूरत रुपरेखा के बारे में सोचा, क्योंकि किसी भी देश का प्रतीक खुबसूरत होना चाहिए.....मुझे लगता है कि विशुद्ध कलात्मक दृष्टि से देखने पर यह बेहद खुबसूरत ध्वज है। यह अनेक सुन्दरता का प्रतीक है, भावनाओं का प्रतीक है और सोच का प्रतीक है। यह प्रतीक किसी व्यक्ति और राष्ट्र के जीवन को महत्व देता है।”
 
नेहरू का कहना ठीक था कि देश का ध्वज उसके राष्ट्रीय प्रतीक अथवा पहचान के तौर पर जाना जाता है। अब सवाल उठता है कि जब देश में पहले से राष्ट्रीय ध्वज मौजूद है तो उसके समानांतर ध्वज की क्या जरुरत? जब प्रधानमंत्री से पत्रकारों ने पूछा कि वे शेख को ऐसा करने से रोकते क्यों नहीं? तो नेहरु जवाब था, “मैं किसी बात को पसंद करता हूँ अथवा नहीं। मैं केवल सलाह दे सकता हूँ। लेकिन वे क्या करते है अथवा नहीं, यह मेरे हाथों में नहीं है।" डॉ मुखर्जी ने इस पर कटाक्ष करते हुए कहा कि अगर इससे भारत की एकता और अखंडता प्रभावित नहीं होती है और यह विभाजनकारी प्रवृतियाँ उत्पन्न नहीं होती, तो यह व्यवस्था पूरे देश के सभी राज्यों में लागू कर देनी चाहिए? उन्होंने सवाल किया कि आखिर शेख अब्दुल्ला की मांग के समक्ष आत्मसमर्पण क्यों किया जा रहा है?
 
उन दिनों के समाचार-पत्रों की सुर्ख़ियों पर यकीन करे तो कांग्रेस की इच्छा थी कि भारतीय ध्वज जम्मू-कश्मीर में केवल दो अधिकृत अवसरों पर फहराया जायेगा, इसके अलावा वहां राज्य का ध्वज अकेले फहरेगा। जनसंघ का मानना था कि नेशनल कांफ्रेंस अपना अलग ध्वज रखे, उससे किसी को आपत्ति नहीं है। जबकि सरकार के रूप में शेख अब्दुल्ला को तिरंगा ध्वज ही फहराना होगा।
  
 
शेख की कल्पनाएं इससे भी आगे बढ़ गयी थी। वे हमेशा जम्मू-कश्मीर को अंग्रेजी के country मतलब 'देश' कहकर संबोधित करते थे। उन्होंने वहां सदर-ए-रियासत यानि राष्ट्रपति और खुद को वजीर-ए-आजम मतलब प्रधानमंत्री घोषित किया हुआ था। जबकि भारत के संविधान में इसका कोई प्रावधान ही नहीं था। चूँकि जम्मू-कश्मीर भारत का उच्चतम न्यायालय के न्यायिक के क्षेत्र में नहीं आता था। राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियां वहां लागू नहीं हुई थीं। मौलिक अधिकारों में भी कटौती कर दी गयी थी। तो शेख ने इस स्थिति को अपने व्यक्तिगत हितों के लिए भुनाना शुरू कर दिया और जम्मू-कश्मीर को भारत के अंतर्गत ही एक अलग गणराज्य बनाने की कोशिश तेज कर दी।
 

 
 
जम्मू-कश्मीर का भारत में 26 अक्तूबर, 1947 को क़ानूनी तौर पर अधिमिलन तो हो गया लेकिन न्यायिक और संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने में जानबूझकर अडचनें पैदा की गयी। यह एक तरह से अधिमिलन को खंडित करने की प्रक्रिया थी। जिससे शेख अपने विभाजन के मंसूबों में कामयाब हो सके। जैसे जम्मू-कश्मीर रियासत को उस श्रेणी में रखा गया जहाँ भारत के राष्ट्रपति द्वारा राजप्रमुख यानि राज्यपाल को नियुक्त किया जाता था। यह नियम हैदराबाद, मध्य भारत, मैसूर, पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन (पेप्सू), राजस्थान, सौराष्ट्र और त्रावनकोर-कोचीन में भी लागू था। शेख ने संविधान के प्रावधान के खिलाफ जाकर राजप्रमुख बनने ही नही दिया। उसके स्थान पर सदर-ए-रियासत का पद रखा गया। जिसकी नियुक्ति का अधिकार भारत के राष्ट्रपति से छीनकर जम्मू-कश्मीर की संविधान को दे दिया।
 
शेख और उसकी संविधान विरोधी हरकतों को जवाब जनसंघ की तरफ से लगातार दिया जा रहा था। केंद्रीय कार्यसमिति की 14 जून की बैठक में कहा गया कि जम्मू-कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है और यह राज्य के आर्थिक और सामाजिक हित में है कि उसका भारत में पूर्ण विलय हो। मगर नेहरू के साथ एक बहुत बड़ी समस्या थी। शेख का उनपर गहरा और असरदार प्रभाव था। इसलिए प्रधानमंत्री उसके अलावा किसी अन्य की बात नहीं सुनते थे। उनके लिए जनसंघ जैसे अन्य दल सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी होते थे, क्योंकि वे उन्हें जम्मू-कश्मीर की घटनाओं का सटीक समाधान पेश करते थे। इसलिए एक बार डॉ मुखर्जी ने उनसे अनुरोध किया कि प्रधानमंत्री को उन लोगों के प्रति धैर्य रखना चाहिए, जो राज्य के सम्बन्ध में उनकी नीतियों से अलग विचार रखते हैं।
 
भारतीय जनसंघ इन सभी उपरोक्त विषयों पर राष्ट्रीय चर्चा करवाना चाहता था। कई बार अनुरोध किया गया कि सभी दलों को एक साथ बैठकर जम्मू-कश्मीर के प्रश्नों के उत्तर ढूंढने चाहिए। डॉ मुखर्जी ने देशभर में लोगों को जागरूक करने के लिए दौरे भी किए। एक तरफ जब यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया चल रही तो दूसरी ओर नेहरू ने शेख के मंसूबो को अपनी व्यक्तिगत मंजूरी दे दी। भारत में पहली बार एक राज्य के मुख्यमंत्री का प्रधानमंत्री के साथ कथित ‘समझौता’ हुआ। जिसे दिल्ली एकॉर्ड के नाम से जाना जाता है। यह सब नेहरू ने संसद को संज्ञान में लिए बिना 24 जुलाई, 1952 को किया। इसकी शर्तों के अनुसार नेहरू ने राज्य का अपना ध्वज, सदर-ए-रियासत के निर्वाचन, मौलिक अधिकारों का हनन और केंद्र की शक्तियों को क्षीण करने को अपनी सहमति दे दी।