इंदिरा गांधी शेख अब्दुल्ला को जेल से निकालकर J&K का सीएम न बनातीं, तो आज कश्मीर की समस्या न होती, लेकिन इंदिरा ने क्यों दोहरायी नेहरू की गलती!!!





एक ज़माने में महाराजा हरि सिंह ने जवाहरलाल नेहरू को आगाह किया था कि शेख अब्दुल्ला पर बिल्कुल भरोसा नहीं करना चाहिए। सरदार पटेल भी शेख से नाराज़ रहते थे क्योंकि वे उसकी मंशा को समझ चुके थे। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्रधानमंत्री को चेतावनी देते हुए कहा था कि शेख पर जरुरत से ज्यादा विश्वास देशहित में नहीं है। फिर भी नेहरू के अड़ियल रवैये ने सबकी सलाह को अनसुना कर दिया। अब उसी रास्ते पर उनके बेटी और देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी थी।
 
यह तथ्य है कि शेख की कट्टर इस्लामिक छवि, सांप्रदायिकता और अलगाववाद की जानकारी पिता और पुत्री दोनों को थी। उन्होंने उसे कई बार गिरफ्तार किया लेकिन हर बार माफ़ भी कर दिया। कहा जा सकता है कि शेख दोनों की व्यक्तिगत कमजोरी थे, लेकिन वास्तव में यह देश के साथ धोखा था। शेख को इंदिरा गाँधी ने आखिरी बार 1972 में रिहा किया। वे इसी साल जून के तीसरे सप्ताह में श्रीनगर पहुंचे। इसी के साथ उन्होंने अपने पुराने रुख यानि जम्मू-कश्मीर की स्वायत्ता का हल्ला मचाना शुरू कर दिया।
 
 

 
बावजूद इसके 3 मार्च, 1975 को इंदिरा गाँधी ने शेख की शान में जमकर तारीफ की। दरअसल एक सप्ताह पहले प्रधानमंत्री गाँधी ने शेख के साथ एक समझौता किया था। प्रतिनिधि के तौर पर दिल्ली से जी. पार्थसारथी और श्रीनगर से मिर्जा अफज़ल बेग को नियुक्त किया गया। समझौते की शर्तों में केंद्र और राज्य के बीच संबंधों पर नियम बनाये गए। चूंकि दिल्ली ने पार्थसारथी को हस्ताक्षर करने के लिए नियुक्त किया था, इसलिए शेख ने भी अज़फल बेग को इसकी जिम्मेदारी दी। जबकि वास्तविकता में शेख को ही हस्ताक्षर करने थे। शेख अपने को प्रधानमंत्री से कम नही आंकते थे। उनको भ्रम था कि वे भारत के प्रधानमंत्री के समकक्ष है। यह दर्शाता है कि शेख अभी भी अपनी पुरानी दुनिया को छोड़ना नही चाहते थे। जम्मू-कश्मीर के विभाजन की कल्पना उनके मन में जिंदा थी।
 
यह सब जानते हुए भी कांग्रेस ने शेख को समर्थन देकर जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बना दिया। उन दिनों राज्य की कमान मीर कासिम के हाथों में थी। उन्हें हटाकर शेख को कांग्रेस के संसदीय दल का नेता चुना गया, जबकि वे कांग्रेस के सदस्य तक नहीं थे। शेख को सत्ता की चाबी इतनी आसानी से देने की एकमात्र गुनाहगार इंदिरा गाँधी थी। जबकि 1972 के विधानसभा चुनावों में राज्य की जनता ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया था। तभी अचानक शेख ने मुख्यधारा में लौटने की घोषणा कर दी। एक नाटकीय अंदाज में उनकी 22 सालों बाद सत्ता में वापसी करा दी गयी। इंदिरा गाँधी ने शेख के पिछले सभी कारनामों को भुलाकर ‘रेड कार्पेट’ बिछा दिया। कांग्रेस ने विधानपरिषद से अपने दो सदस्यों से इस्तीफा ले लिया। इन खाली हुई सीटों से शेख और उसके सहयोगी मिर्जा अफ़ज़ल बेग को चुनाव जीता कर विधानपरिषद भेजा गया।
 

 
 
 
अगले दो सालों तक कांग्रेस ने बिना शर्त शेख को समर्थन दिया। इसी अंतराल में देश पर आपातकाल जबरदस्ती थोप दिया गया। दो साल बाद जब आपातकाल हटाया गया तो दिल्ली में राजनैतिक उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया। साल 1977 के लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई। इस बार कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस ने मिलकर चुनाव लड़ा। कुल 6 सीटों में से 3 कांफ्रेंस और 2 कांग्रेस और एक अन्य के खाते में गयी।
 
यहाँ से एकदम कांग्रेस को लगने लगा कि शेख कोई खास नेता नहीं है। अनंतनाग से कांग्रेस की टिकट से लोकसभा चुनकर आये मोहम्मद शफी कुरैशी के अनुसार शेख के कारण ‘लोकतंत्र की गर्दन शर्म से झुक गयी है’। कुरैशी का कहना था कि शेख जिस रास्ते पर चल रहे है, वह ठीक नहीं है। कांग्रेस को अपनी गलती का एहसास तब हुआ जब शेख विधानसभा ही नहीं लोकसभा में भी दस्तक दे चुके थे!



 
इस मनमुटाव असल वजह देशहित नहीं बल्कि कांग्रेस का अपना स्वार्थ था। शेख ने मुख्यमंत्री बनते ही कांग्रेस को किनारे करना शुरू कर दिया था। शेख को 13 अप्रैल, 1975 को नेशनल कांफ्रेंस की कमान मिल गयी। जल्दी ही दोनों दलों के बीच गतिरोध कायम हो गया। इसकी शुरुआत 15 अगस्त, 1975 को हुई। उस दिन शेख ने अब्दुल गनी लोन सहित 10 कांग्रेसी नेताओं का नेशनल कांफ्रेंस में सार्वजनिक तौर पर स्वागत किया। प्रधानमंत्री गांधी चाहती थी कि शेख कांग्रेस में शामिल हो जाये। इसके उलट शेख ने कांग्रेस को ही तोड़ दिया था। यह इंदिरा गांधी की कूटनीति और विश्वास दोनों की हार थी।
 
कांग्रेस के वरिष्ठ सदस्य और उधमपुर से लोकसभा सांसद कर्ण सिंह इस बात को मानते है, “यह तथ्य है कि कांग्रेस के साथ शेख ने हमेशा एवं हद्द से भी ज्यादा दुर्व्यवहार किया और वे गलत ढंग से पेश आते थे।” मुफ़्ती मोहम्मद सईद कांग्रेस की राज्य इकाई के अध्यक्ष थे। उन्होंने राज्यपाल को पत्र लिखा कि कांग्रेस समर्थन वापस लेना चाहती है। शेख ने भी अगले दिन की सुबह विधानसभा भंग करने की सिराफिश कर दी। उसी दिन शाम को कांग्रेस के विधायक दल की बैठक हुई जिसमें सरकार गिराने का निर्णय लिया गया। कांग्रेस को लगा कि राज्यपाल उन्हें सरकार बनने के लिए आमंत्रित करेंगे। ऐसा कुछ नहीं हुआ और 27 मार्च, 1977 को विधानसभा भंग कर दी गयी। तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने दावा किया कि तीन महीनों में चुनाव करा लिए जायंगे।
 
दो महीनों के राज्यपाल शासन के बाद वहां जून में चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया गया। कांग्रेस की मदद से शेख ने नेशनल कांफ्रेंस को खड़ा कर लिया था। जिस व्यक्ति का राज्य में दो दशकों से कोई खास बजूद ही नही था, वह किस आधार पर चुनाव लड़ता? इसलिए शेख ने इशारे पर उसके कार्यकर्ताओं ने गुंडागिर्दी मचा दी। हब्बाकदल से जनता पार्टी की महिला प्रत्याशी के साथ 7 जून, 1977 को मारपीट की गयी। वे एक जनसभा को संबोधित करके आ रहे थी। उनकी कार पर पत्थर फेंके गए और उन्हें गंभीर चोटें आई। इसके तीन दिन बाद ही कांफ्रेंस और आवामी एक्शन कमेटी के कार्यकर्ताओं में झडपें हुई। इस घटना में 44 लोग घायल हो गए। इसी दिन अनंतनाग में शेख के लोगों के दूसरे दलों के कार्यकर्ताओं पर हमले किये। पूरे शहर में आगजनी की कई घटनाएँ दर्ज की गयी।
 
दंगो, मारपीट और आगजनी के बीच नेशनल कांफ्रेंस ने कुल 75 में से 47 सीटों पर जीत दर्ज की। इसलिए इसे निष्पक्ष चुनाव तो नहीं कहा जा सकता। हालांकि इस बहुमत से 72 साल के शेख अब्दुल्ला राज्य के तीसरी बार मुखिया जरूर बन गए। यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण था, लेकिन इन चुनावों का एक सुखद पहलू भी था। यह एक तथ्य है कि शेख ने नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस पहली बार चुनावों का सामना कर रही थी। इससे पहले शेख ने 1951 में संविधान सभा का चुनाव लड़ा था। जिसके निर्वाचन में भी उन्होंने भारी गड़बड़ी की थी। अब 1977 के विधानसभा चुनावों में उनके 18 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई। यह साबित करता है कि शेख राज्य में एक अलोकप्रिय नेता थे।
 
राज्य की जनता का उनमें कोई भरोसा नही था। खासकर जम्मू और लद्दाख में उनकी स्थिति नाजुक थी। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र की 32 सीटों में उन्हें मात्र 7 जगह जीत हासिल हुई। कई विधानसभाओं में उनकी पार्टी की हालत बदतर थी। उनके प्रत्याशी को उधमपुर में कुल मतों में 40375 में से 1198 मत; रणबीरसिंहपपुरा में 35431 में से 1395 मत; जम्मू पश्चिम 37810 में से 684 मत; जम्मू उत्तर 40693 में से 748 मत; और अखनूर 33101 में से 1154 मत मिल सके। इन इलाकों में शेख को पांच फीसदी मत तक हासिल में नही हुए थे।
 
फिर भी जम्मू-कश्मीर की बागडौर फिर से शेख के हाथों में आ गयी थी। उस दशक के किसी भी कांग्रेसी नेता से अगर पूछा गया होता कि वह शेख और देश में से किसको चुनेंगे तो जवाब में शेख ही मिलता। अब जब कांग्रेस के साथ गलत हुआ तो उन्हें देश की तथाकथित सुध आने गयी। राज्य में पहले अनिश्चितता पैदा करने में जितना नेहरु का योगदान था, अब उससे भी ज्यादा इंदिरा ने वहां के भविष्य के साथ खिलवाड़ की। इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने एकबार संसद में कहा था कि जम्मू-कश्मीर में कोई ऐसा काम मत कीजिये, जो हमारे लिए सिरदर्द बन जाए। वह सिरदर्द सिर्फ सरकार के लिए नहीं होगा, बल्कि सारे देश के लिए होगा और जनता कभी कांग्रेस पार्टी को माफ़ नहीं करेगी।