19 जून, 1952, प्रजा परिषद् नेता प्रेमनाथ डोगरा ने शेख अब्दुल्ला के इस्लामिक अधिनायकवाद के खिलाफ राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से कार्रवाई की मांग की, लेकिन कुछ नहीं हुआ

 
जून 1952 में जम्मू-कश्मीर के महाराजा द्वारा अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर किये 56 महीने पूरे हो चुके थे। इस अंतराल में देश की अन्य रियासतों के भारत में शामिल होने की प्रक्रिया समाप्त हो चुकी थी, वहीं जम्मू-कश्मीर में यह एकदम ठहर गयी। शेख अब्दुल्ला अपने नागरिकों को लोकतांत्रिक अधिकार देने के लिए तैयार नहीं थे। उनका ध्यान सिर्फ अधिमिलन को बाधित करने भी बीत रहा था। वे राज्य के लिए अलग संविधान, अलग ध्वज, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे पदों की मांग करने लगे। उनकी प्रशासनिक तानाशाही और साम्प्रदायिक व्यवहार की खबरें सुर्ख़ियों में रहती थी।
 
हिमाचल प्रदेश स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. कुलदीप चन्द्र अग्निहोत्री के अनुसार, “साल 1952 में शेख अब्दुल्ला का राज्य की जनता से हर मोड़ पर टकराव हुआ। आश्चर्य की बात है कि राज्य के लोगों को स्वतंत्र भारत में भी अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ना ही नहीं पड़ रहा था बल्कि बलिदान देना पड़ रहे था। यह साल इस संघर्ष का साक्षी बना।” जम्मू-कश्मीर के इतिहास में यह एक निर्णायक मोड़ कहा जा सकता है। दिल्ली से लेकर श्रीनगर में राज्य सरकार के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहे थे। जिसके सूत्रधार 68 साल के लोकप्रिय नेता और प्रजा परिषद के अध्यक्ष प्रेमनाथ डोगरा थे।
 
प्रेमनाथ डोगरा एक सुलझे हुए व्यक्ति थे। उनका मकसद भारत के संविधान में निहित नागरिक और मौलिक अधिकारों को जम्मू-कश्मीर में लागू करवाना था। इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू से कई बार अनुरोध किया। दुर्भाग्यवश प्रधानमंत्री को उनकी यह मांग सांप्रदायिक नज़र आती थी। इस सन्दर्भ में उन्होंने भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को 19 जून, 1952 को एक ज्ञापन भेजा। उन्होंने पहली पंक्ति में लिखा, “जम्मू-कश्मीर के लोगों का भविष्य, विशेष तौर पर भारत के साथ उनका सम्बन्ध, राज्य के लोगों के लिए महत्वपूर्ण और सर्वोपरि मुद्दा है। जम्मू के लोग इस बात को लेकर उत्सुक हैं कि अब उनका राज्य निश्चित एवं स्थाई तौर पर भारत का अभिन्न अंग बन जाए और वे इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है।”
 

 
 
प्रेमनाथ डोगरा ने संविधान और प्रशासनिक महत्व के कई मसले राष्ट्रपति के संज्ञान में लाने की कोशिश की। उन्होंने गुहार लगाई कि शेख ने राज्य में जान-बुझकर भ्रम और सांप्रदायिक माहौल पैदा कर दिया है। राज्य सरकार के सभी फैसले नागरिकों और भारत के हितों के विपरीत किये जा रहे थे। इस ज्ञापन में शेख प्रशासन के हिन्दू विरोधी कारनामों की जानकारी शामिल थी। डोगरा का कहना था कि शेख अब्दुल्ला का रवैया सहयोगी नहीं है। राज्य सरकार ने हिन्दुओं के खिलाफ एक सुनियोजित भेदभाव और दमन की नीति को अपना रखा था। शेख ने हिन्दुओं विशेषकर प्रजा परिषद् से जुड़े लोगों को नौकरी से निकाल दिया था और उनकी पेंशन बंद कर दी गयी। हिन्दू अल्पसंख्यकों को डराया जाने लगा। उन्हें धमकियाँ दी गयी कि जल्दी ही वे अपने घर खाली कर दूसरे राज्यों में चले जाए।
 
राज्य सरकार ने सांस्कृतिक और भाषाई विभाजन के सुनियोजित प्रयास किये। भारत के साथ अधिमिलन से पहले वहां हिंदी और उर्दू को समान महत्व मिला हुआ था। शेख ने उर्दू को राजकीय भाषा का दर्जा दे दिया, जबकि हिंदी की उपेक्षा की जाने लगी। स्कूलों में बच्चों को भारतीय राष्ट्रवाद के जगह कश्मीरी राष्ट्रवाद पढ़ाया जाने लगा। एक समिति बनायीं, जिसे पाठ्यक्रम को तय करने की जिम्मेदारी दी गयी। जिसमें एक भी हिन्दू को शामिल नहीं किया गया।
 
शेख अब्दुल्ला ने अधिनायकवाद को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था। सत्ता के अहम पदों पर कश्मीर घाटी के लोगों को बैठाया गया। उन्होंने सार्वजनिक घोषणा की हुई थी कि सरकार को एक ही तरह यानि मुसलमान लोग चलाएंगे। अधिकतर सरकारी पदों की भर्ती से जुड़े विज्ञापनों में साफ़ तौर पर लिख दिया जाता था कि ‘सिर्फ मुसलामन ही आवेदन करे’। राज्य में असंतुलन की स्थिति पैदा होने लगी थी। महाराजा हरि सिंह ने जम्मू में एक ट्रेनिंग कॉलेज की शुरुआत की, उसे श्रीनगर स्थांतरित कर दिया गया। तोशखाना जिसमें राज्य की बेशकीमती चीजें रखी थी, उसे भी जम्मू पुस्तकालय के साथ श्रीनगर ले जाया गया। जम्मू स्थित सरकारी प्रेस को श्रीनगर ले जाने की योजना थी, हालांकि जन विरोध के चलते उसे टाल दिया गया।
 
राज्य में हिन्दुओं की आर्थिक दशा बहुत नाजुक थी। शेख सरकार ने पहले से चले आ रहे करों में पांच फीसदी बढ़ा दिया था। सीमा शुल्क में बेतहाशा बढोत्तरी की गयी। मसलन पठानकोट में एक रुपए में बिकने वाले सामान को राज्य में खरीदने के लिए 37-50 फीसदी अधिक रकम चुकानी पड़ती थी। कथित परिसीमन के नाम पर राज्य के विभाजन की योजना बनाई। उधमपुर एक हिन्दू बहुल जिला था, उसे दो भागों में बाँट दिया गया। यह लद्दाख और जम्मू के बीच एक कड़ी का काम भी करता था। भदरवाह, किश्तवाड़ और रामबन को मिलाकर डोडा का एक मुस्लिम आबादी का इलाका बनाया गया।
 
 
 
भारत-पकिस्तान विभाजन के बाद हजारों हिन्दू और सिख शरणार्थी जम्मू-कश्मीर में बसने के लिए आये थे। उस दौरान जम्मू में विस्थापितों के लिए तक़रीबन 7 लाख कनाल जमीन मौजूद थी। राज्य सरकार ने अधिकतर को जबरदस्ती बीकानेर और भोपाल भेज दिया। कुछ लोगों को राजस्व का सालाना पांच गुनी अधिक रकम लेकर उक्त जमीन को आवंटित किया गया था। उस पैसे का इस्तेमाल सिर्फ मुसलमानों के विस्थापित फंड के लिए निर्धारित कर दिया गया। पाकिस्तान के नागरिकों को कश्मीर घाटी में घुसपैठ की आधिकारिक इजाजत थी। शेख प्रशासन ने उन्हें घाटी में बसने के लिए सहायता दी।
 
इस तकलीफों को सहन करने के बाद भी प्रेमनाथ डोगरा आशावादी थे। उन्हें लगता था कि भारत सरकार एक दिन उनकी बातें सुनेगी और राज्य का पूर्ण अधिमिलन भारत के साथ जल्दी होगा। लेकिन अभी उन्हें शेख के सबसे विघटनकारी कारनामें का भी साक्षी बनना था। दरअसल राज्य के पूर्ण अधिमिलन को मंजूरी देने के लिए जम्मू-कश्मीर में एक संविधान सभा बनाई गयी थी। साल 1951 में जब इसके चुनाव हुए तो प्रजा परिषद् के 59 में से 41 नामांकनों को बेबुनियाद वजहों से ख़ारिज कर दिया गया। सरकारी दवाब के कारण निष्पक्ष चुनाव नामुमकिन हो गया। इसलिए सभा की सभी सीटों पर नेशनल कांफ्रेंस का दबदबा कायम हो गया। यह संविधान सभा कही से भी संप्रभु निकाय नहीं रह गयी थी। भारत की संसद में भी शेख ने अपने ही प्रतिनिधि भेजे थे। इस प्रकार संविधान सभा से लेकर संसद तक प्रजा परिषद की बात रखने वाला कोई नहीं था।
 
संविधान सभा में घोषणा की गयी कि जम्मू-कश्मीर एक स्वायत्त गणतंत्र होगा, जो भारतीय गणतंत्र के अधीन होगा। शेख ने साफ किया कि भारत के साथ राज्य का अधिमिलन पूर्ण नहीं होगा, बल्कि वह ढीला-ढाला ही रहेगा। प्रेमनाथ डोगरा को उम्मीद थी कि संविधान सभा के माध्यम से भारत का संविधान राज्य पर लागू हो जायेगा, लेकिन उन्हें मायूसी हाथ लगी। वे स्वाभिमान के साथ एक भारतीय नागरिक की तरह जीना चाहते थे। शेख की कट्टर इस्लामिक, साम्प्रदायिक और पृथकतावादी मानसिकता के चलते हिन्दुओं के वजूद पर खतरा मंडराने लगा था।
 
यह विडंबना है कि राष्ट्रपति के सम्पूर्ण वांग्मय से ज्ञापन नहीं मिलता है। शायद डोगरा को इस बात का अंदाजा था कि दिल्ली में उनकी बात अनसुनी कर दी जाएगी, इसलिए उन्होंने इसे समाचार-पत्रों में छपवा दिया। इसलिए इसकी जानकारी आज उपलब्ध है। हालाँकि अभी भी इसकी वास्तविक प्रति कहां है, इसकी कोई जानकारी नहीं है। यह उस दौर की जम्मू-कश्मीर की वास्तविकता का एक आईना है। इस प्राथमिक दस्तावेज में राष्ट्रपति से राज्य के लिए संवैधानिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और भावनात्मक सुरक्षा का अनुरोध किया गया है।
 
भारत के राष्ट्रपति पर सवाल उठाने का कोई मकसद नहीं है। मगर यह ज्ञापन उन्हें मिला अथवा किसी अन्य माध्यम से उनकी नज़रों में आया था तो उन्हें कम-से-कम प्रेमनाथ डोगरा को जवाब देना चाहिए था। इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि उस दौरान जम्मू-कश्मीर से आने वाली हर चिट्ठी प्रधानमंत्री कार्यालय की नज़र रहती थी। हो सकता है वहां से इसे राष्ट्रपति तक ही न पहुँचने दिया गया हो।