माउंटबेटन नहीं चाहते थे जम्मू कश्मीर का भारत के साथ अधिमिलन, जानिए माउंटबेटन और महाराजा हरि सिंह का आपसी टकराव की पूरी कहानी
   19-जून-2019
 
 
 
 
विलय या अधिमिलन का अभिप्राय ---
 
 
भारत सरकार अधिनियम १९३५ और भारत स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ के पारित हो जाने और भारत/पाकिस्तान डोमीनियन बनने की घोषणा हो जाने के बाद , इतिहास व राजनीति विज्ञान के विद्वानों ने भारतीय रियासतों द्वारा भारत डोमीनियन के संविधान को स्वीकार लेने की घटना को रियासत का भारत में विलय होना ही बताया है । समाज विज्ञान के लेखन में प्राय , फ़लाँ रियासत भारत में शामिल हो गई , जैसे वाक्यों का प्रयोग किया जाता है । जम्मू कश्मीर को लेकर तो बार बार कहा ही जाता है कि रियासत ने २६ अक्तूबर १९५० को भारत में शामिल होने का निर्णय कर लिया । भाव कुछ इस प्रकार का बनता है , मानों रियासतें अलग अलग देश थे जो समझौते के तहत भारत में शामिल हुए । दरअसल यह शव्दावली ही भ्रामक है । दरअसल भारत के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग राजनैतिक व्यवस्थाएँ थीं । नई व्यवस्था में संघीय संविधान के अन्तर्गत सभी राजनैतिक व्यवस्थाओं को समाहित किया जा रहा था । कुछ विद्वानों ने इस प्रक्रिया के प्रारम्भव होने के समय रियासतें भारत में शामिल हो रही हैं , ऐसा शब्द प्रयोग करना शुरु कर दिया । ध्यान रहे महाराजा हरि सिंह ने लन्दन में अपने गोलमेज़ कान्फ्रेंस के समय दिये गये अपने भाषण में ,भारत की अलग अलग राजनैतिक ईकाइयां , शब्द का ही प्रयोग किया था । उन्होंने इस अवधारणा का प्रयोग अन्य स्थानों पर भी किया था । जम्मू कश्मीर पर चर्चा करने से पहले विलय की अवधारणा पर विचार कर लेने आवश्यक महसूस होता है ।
 
 
1. भारतीय रियासतों के संघीय लोकतांत्रिक सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने की पृष्ठभूमि --
 
 
क. १९४७ के धरातल पर जम्मू कश्मीर पर चर्चा से पहले , यह जान लेना जरुरी है कि उस समय भारत की भौगोलिक सीमा क्या थी । विभाजन से पूर्व देश में चार प्रकार की प्रशासनिक/सांविधानिक/राजनैतिक व्यवस्था प्रचलित थी।
 
(क) ऐसा भू-भाग जिसका शासन लंदन से इंग्लैंड की सरकार चलाती थी। इसे आम भाषा में ब्रिटिश इंडिया कहा जाता था।
 
(ख) ऐसा भू भाग जिस पर फ़्रान्स सरकार का क़ब्ज़ा था । इसे फ़्रेंच इंडिया कहा जाता था ।
 
(ग). ऐसा भू भाग जिस पर पुर्तगाल सरकार का क़ब्ज़ा था । इसे पुर्तगीज इंडिया कहा जाता था ।
 
(घ). ऐसा भूभाग जिसके अलग-अलग हिस्सों पर स्थानीय राजाओं-महाराजाओं का शासन था। इस भूभाग को इंडियन स्टेट्स कहा जाता था। भारत का एक तिहाई भू-भाग इस प्रकार की राजशाही से शासित था। इन भारतीय रियासतों की ब्रिटिश सरकार के साथ अनेक प्रकार की संधियाँ थीं , जिनके अन्तर्गत इनकी पैरामाऊंटेसी भी ब्रिटिश सरकार में निहित थी ।
 
सूत्र रुप में इसे इस प्रकार लिखा जा सकता है -भारत= (क) +(ख) +(ग) +(घ)
 
 
अंग्रेज शासकों ने अनेक कारणों से (क) भूभाग को विभाजित करके एक नया देश पाकिस्तान बना दिया। नए बने पाकिस्तान के भू-भाग को यदि सूत्र रुप में (ड़) मान लिया जाए तो विभाजन के बाद भारत का अर्थ रह जाएगा -भारत= (क-ड़)+(ख)+(ग)+(घ)
 
ख. ब्रिटेन की संसद द्वारा १९४७ में भारत स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया गया । इसको १८ जुलाई १९४७ को क्राऊन की स्वीकृति मिली । इस अधिनियम के अनुसार भारतीय रियासतों के लिये नियत दिन (१५ अगस्त १९४७) से निम्न प्रावधान था-
 
 
 
7(1) (b)-- the suzerainty of His Majesty over the Indian States lapses, and with it, all treaties and agreements in force at the date of the passing of this Act between His Majesty and the rulers of Indian States, all functions exercisable by His Majesty at that date with respect to Indian States, all obligations of His Majesty existing at that date towards Indian States or the rulers thereof, and all powers, rights, authority or jurisdiction exercisable by His Majesty at that date in or in relation to Indian States by treaty, grant, usage, sufferance or otherwise; and
 
 
Provided that, notwithstanding anything in paragraph (b) or paragraph (c) of this subsection, effect shall, as nearly as may be, continue to be given to the provisions of any such agreement as is therein referred to which relate to customs, transit and communications, posts and telegraphs, or other like matters, until the provisions in question are denounced by the Ruler of the Indian State or person having authority in the tribal areas on the one hand, or by the Dominion or Province or other part thereof concerned on the other hand, or are superseded by subsequent agreements.
 
 
 
 
इस अधिनियम की धारा 7(1)(b) के प्रभावी हो जाने के बाद , भारतीय रियासतों के लिये भारत सरकार अधिनियम १९३५ में व्यवस्था की गई थी । भारत सरकार अधिनियम 1935 को आवश्यक संशोधनों सहित भारत का अंतरिम संविधान घोषित कर दिया गया। इसकी धारा ६ में रियासतों के संघीय सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने के लिये प्रक्रिया का उल्लेख था । जिसके अनुसार--
 
 
 
6 Accessions of Indian States- ((1). A State shall be deemed to have acceded to the Federation if His Majesty has signified his acceptance of an Instrument of Accession executed by the Ruler thereof, whereby the Ruler for himself, his heirs and successors—
 
 
(a). declares that he accedes to the Federation as established under this Act, with the intent that His Majesty the King, the Governor-General of India, the Federal Legislature, the Federal Court and any other Federal authority established for the purposes of the Federation shall, by virtue of his Instrument of Accession, but subject always to the terms thereof, and for the purposes only of the Federation, exercise in relation to his State such functions as may be vested in them by or under this Act; and
 
 
(b). assumes the obligation of ensuring that due effect is given within his State to the provisions of this Act so far as they are applicable therein by virtue of his Instrument of Accession :
 
 
Provided that an Instrument of Accession maybe executed conditionally on the establishment of the Federation on or before a specified date, and in that case the State shall not be deemed to have acceded to the Federation if the Federation is not established until after that date.
 
 
(2). An Instrument of Accession shall specify the matters which the Ruler accepts as matters with respect to which the Federal Legislature may make laws for his State, and the limitations, if any, to which the power of the Federal Legislature to make laws for his State, and the exercise of the executive authority of the Federation in his State, are respectively to be subject.
 
 
(3). A Ruler may, by a supplementary Instrument executed by him and accepted by His Majesty, vary the Instrument of Accession of his State by extending the functions which by virtue of that Instrument are exercisable by His Majesty or any Federal Authority in relation to his State.
 
 
 
भारत के इन चारों भूभागों में अलग अलग सांविधानिक प्रशासनिक व्यवस्था प्रचलित थी । भारतीय रियासतों को छोड़ कर भारत के शेष तीनों भू भाग तो इंग्लैंड, फ्रांस व पुर्तगाल के अधीन थे । ब्रिटेन की सांसद द्वारा पारित भारत स्वतंत्र अधिनियम १९४७ इनमें से केवल (क) व (घ) पर लागू होता था । भारत के (ख) और (ग) भूखंड को तो बहुत दिनों बाद फ्रांस व पुर्तगाल के शासन से मुक्त करवाया गया था । (घ) भाग के अंतर्गत आने वाली रियासतों की संख्या ५६० थी। इन सभी रियासतों से ब्रिटिश सरकार के भी समझौते थे, जिनके अंतर्गत मोटे तौर पर इनकी सुरक्षा, संचार और विदेशी मामलों की देखभाल दिल्ली स्थित ब्रिटिश सरकार ही देखती थी। हर रियासत में ब्रिटिश सरकार का एक रेजीडेंट अधिकारी रहता था। लेकिन भारत स्वतंत्रता अधिनियम के तहत अब ये सभी संधियाँ व समझौते स्वत: समाप्त हो जाने वाले थे । इस पृष्ठभूमि में भारत की अलग अलग राजनैतिक प्रशासनिक इकाइयों को एक सूत्र में पिरोने के लिये संघीय सांविधानिक व्यवस्था का प्रारूप तैयार किया जाने लगा ।
 
 
ग. अन्तरिम भारत सरकार के रियासती मंत्रालय , जिसके प्रभारी सरदार पटेल थे , ने रियासतों के शासकों के लिये , नई बन रही संघीय सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने के लिये , एक प्रारूप तैयार कर लिया था । इसमें दर्ज किया गया था कि रियासतों के शासक तीन विषयों मसलन संचार, सुरक्षा व विदेशी मामले विधि णिर्माण के लिये संघीय संसद को दे देंगे । इस प्रारूप पर हस्ताक्षर करने के बाद शासक देश की नई संघीय सांविधानिक व्यवस्था का हिस्सा हो सकते थे । रियासती मंत्रालय प्रयास कर रहा था कि १५ अगस्त १९४७ से पहले पहले रियासतों के शासक अपने अपने राज्यों की अलग अलग शासन व्यवस्था को समाप्त कर नई संघीय संाविधानिक व्यवस्था का हिस्सा बन जायें । संविधान निर्माण की प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लिये अपनी अपनी रियासतों के प्रतिनिधि भी संविधान सभा में भेजें । भारतीय रियासतें और ब्रिटिश भारत एक ही मातृभूमि का अखंड हिस्सा है और सब मिल कर ही भारत की परिकल्पना परिपुष्ट होती है । पूरे देश के लिये एक समान सांविधानिक प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुये सरदार पटेल ने ४ जुलाई १९४७ को सभी रियासतों के नरेशों को संदेश भेजा। पटेल ने संदेश में कहा कि " महान संस्थाओं वाला यह देश , इसके निवासियों की गौरवपूर्ण थाती है ।यह तो मात्र संयोग ही है कि इस देश के कुछ लोग रियासतों में रहते हैं और कुछ ब्रिटिश इंडिया में । भारत की संस्कृति और उसका चरित्र हमारे रोम रोम में समाया हुआ है । हमारे रक्त संबंध हैं । परस्पर हितों से भी हम जुड़े हुये हैं । कोई भी हमें खंड खंड नहीं कर सकता । हमारे बीच कोई अभेद्य दीवार नहीं खड़ी की जा सकती । मैं देशी राज्यों के अपने मित्र नरेशों और उनकी प्रजा को निमंत्रित करता हूँ कि वे संविधान सभा की बैठकों में आयें । इस संयुक्त प्रयास में अपनी मित्रता और सहयोग का परिचय दें और सर्वजनहिताय अपनी मातृभूमि के प्रति सामूहिक निष्ठा का प्रदर्शन करें । भारत के इतिहास की यह महान घड़ी है । संगठित प्रयास से हम देश को नई ऊँचाई तक ले जा सकते हैं और संगठित न होने पर हम नई आपदाओं में फँस सकते हैं । भारतीय रियासतों को यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिये कि यदि हम समान हित के अल्पमत कार्यों के लिये भी मिलकर प्रयास नहीं कर पायेंगे तो लोहित में सहयोग न कर पाने का अर्थ होगा अराजकता और अशांति । विनाश की उस चक्की में छोटे बड़े सब पिस जायेंगे ।"( वी पी मेनन ९५-९६)( शेषाद्रि जी से उद्धृत)
 
 
 
वैसे तो भारतीय रियासतों के संघ की सांविधानिक व्यवस्था से एकीकृत हो जाने की चर्चा 1935 में ही शुरु हो गई थी। उस समय भारत में दो अलग अलग शासन व्यवस्थाएँ थीं । विदेशी शासन के अन्तर्गत ब्रिटिश इंडिया के अन्तर्गत आने वाले प्रांतों में अलग प्रशासनिक व्यवस्था थी और वह सीधे लंदन से संचालित होती थी । भारतीय रियासतों का प्रशासन स्थानीय राजशाही शासक चलाते थे। कुछ सीमा तक भारतीय रियासतों और ब्रिटिश इंडिया के प्रांतों यानि ब्रिटिश भारत का शासन एकीकृत भी था। संचार, विदेश संबध और कुछ सीमा तक सुरक्षा का जिम्मा ब्रिटिश इंडिया की सरकार के पास ही था। इसके लिए भारतीय रियासतों और ब्रिटिश इंडिया प्रशासन में कुछ समझौतों के तहत आम सहमति बनी हुई थी। 1935 के अधिनियम में इस एकीकरण और समान प्रशासनिक व्यवस्था हेतु कुछ और कदम उठाए जाने की बात थी। वैसे भी किसी न किसी रुप में देश भर में जनांदोलन चल ही रहे थे कि ब्रिटिश इंडिया को लंदन सरकार से व रियासतों को वंशागत शासकों से मुक्त करवा कर, पूरे देश के लिए एक समान प्रशासनिक और सांविधानिक व्यवस्था लागू की जाए। देश के जिस हिस्से पर लंदन सरकार का शासन था, वहां ऐसा जनांदोलन कांग्रेस चला रही थी और जिन हिस्सों पर वंशानुगत शासकों का शासन था, वहां ऐसे आंदोलन प्रजामंडल चला रहे थे। ब्रिटिश सरकार के शासन वाले हिस्से के लोगों में भी कुछ लोग लंदन सरकार के समर्थक थे। इसी प्रकार स्थानीय शासकों के हिस्से वाले भारत में भी कुछ लोग वंशानुगत शासकों के भी समर्थक थे। कुछ स्थानीय राजा-महाराजा अच्छे प्रशासक भी थे। लेकिन कुल मिला कर पूरे देश में लोकतांत्रिक हवा चलने लगी थी, जिसके चलते विदेशी शासकों और वंशानुगत स्थानीय शासकों के खिलाफ पूरा देश खड़ा होने लगा था। 1946-1947 में जब अंग्रेजों के यहाँ से चले जाने के संकेत मिलने लगे थे तो एक बार फिर पूरे देश में एक समान प्रशासकीय व सांविधानिक व्यवस्था की मांग उठने लगी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पहले ही पूरे देश में लोगों की राय के अनुकूल एक समान लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करने के लिए प्रतिबद्ध थी। इस पृष्ठभूमि में पूरे देश में एकीकृत सांविधानिक व्यवस्था के प्रयास प्रारम्भ हुये । इसे सरदार पटेल का कौशल ही कहना होगा कि उन्होंने पांच सौ से भी ज्यादा छोटी-बड़ी रियासतों और ब्रिटिश शासन से मुक्त हुए भारतीय भूभाग को कम समय में ही समान प्रशासकीय सांविधानिक व्यवस्था में एकीकृत करने में सफलता प्राप्त कर ली। (कालान्तर में पुर्तगाली इंडिया और फ़्रांसीसी इंडिया के अन्तर्गत आने वाला भू भाग भी इस सांविधानिक एकीकृत व्यवस्था का हिस्सा बना ।) लेकिन जम्मू कश्मीर रियासत १५ अगस्त १९४७ से पहले एकीकृत सांविधानिक व्यवस्था का हिस्सा बनने के बारे में कोई निर्णय न कर सकी जिसके कारण बाद में कई पेचीदगियाँ पैदा हो गईं । इसके क्या कारण थे , इसके लिये कौन उत्तरदायी था और जम्मू कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह ने देश की सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने के लिये क्या प्रयास किये , इसका अध्ययन करना जरुरी है ।
 
2. रियासतों के देश की संघीय सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने के प्रश्न पर कांग्रेस का स्टैंड--
 
 
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का स्वतंत्रता आन्दोलन मोटे तौर ब्रिटिश इंडिया में ही सीमित था । भारतीय रियासतों में कांग्रेस ने अपनी शाखाएँ नहीं खोलीं थीं । उसका कारण यह हो सकता है कि अधिकांश रियासतों में शासक भारतीय ही थे । कांग्रेस का आन्दोलन विदेशी शासकों के ख़िलाफ़ था न कि भारतीय शासकों के ख़िलाफ़ । लेकिन रियासतों के अन्दर शासकों की प्रशासनिक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ वहाँ के लोग किसी न किसी रुप में आन्दोलन चला ही रहे थे । रियासतों में शासक पिता-पुत्र वंश परम्परा पर आधारित थे । वहाँ राजशाही के स्थान पर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिये प्रजा मंडलों द्वारा चलाये जा रहे जनान्दोलन कहीं मद्धम तो कहीं प्रबल थे । बाद में कांग्रेस ने अखिल भारतीय प्रजा मंडल परिषद का गठन कर इन लोकतांत्रिक आन्दोलनों को अपना समर्थन दिया था ।
 
 
इसलिये भारत स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ पारित हो जाने के बाद सरदार पटेल के नेतृत्व में रियासती मंत्रालय ने रियासतों के राजाओं/महाराजाओं से सम्पर्क ही स्थापित करना शुरु नहीं किया बल्कि उन्हें स्पष्ट बता भी दिया कि लोकमत आपके ख़िलाफ़ है । लोग लोकतांत्रिक प्रणाली के पक्षधर हैं , इसलिये रियासतों को नई लोकतांत्रिक सांविधानिक प्रणाली का हिस्सा बन जाना चाहिये । अधिनियम में शासकों को नई सांविधानिक व्यवस्था में शामिल हो जाने का अधिकार दिया गया था । विलय पत्र पर शासक के हस्ताक्षर हो जाने और गवर्नर जनरल द्वारा उसे स्वीकार कर लेने पर अधिमिलन की प्रक्रिया पूरी हो जाती थी । इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस शुरु से ही लोक आकांक्षाओं के अनुरूप रियासतों के लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में विलय के पक्ष में थी ।
 
3. महाराजा हरि सिंह की स्थिति--
 
 
महाराजा हरि सिंह के सामने १५ अगस्त १९४७ के बाद तीन विकल्प थे । देश की नई सांविधानिक व्यवस्था से एकीकृत हो जाने का , पाकिस्तान डोमीनियन में शामिल हो जाने का या फिर रियासत में यथावत प्रशासकीय व्यवस्था जारी रखे रहने का । नई परिस्थितियों में पुरानी प्रशासकीय व्यवस्था को बनाये रखना संभव नहीं था , ऐसा वे भी जानते थे । १९३१ में गोलमेज़ कान्फ्रेंस में दिये गये उनके व्यक्तव्य इस बात का स्पष्ट संकेत देते हैं कि वे अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद भारतीय रियासतों समेत पूरे देश में एक समान संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्षधर थे । लेकिन ब्रिटिश शासन की समाप्ति से पूर्व ही उन पर पाकिस्तान में शामिल हो जाने के लिये चारों तरफ़ से दबाव पड़ने लगा । पाकिस्तान में शामिल होने के लिये उनकी घेराबन्दी उस समय के वायसराय लार्ड माऊंटबेटन , महाराजा के अपने प्रधानमंत्री रामचन्द्र काक और मुस्लिम कान्फ्रेंस मिल कर कर रहे थे । इसी काम के लिये माऊंटबेटन १९ जून से लेकर २३ जून तक श्रीनगर में डटे हुए थे और परोक्ष रुप से महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये दबाव डाल रहे थे । इसी के विरोध में महाराजा ने २३ जून को माऊंटबेटन से मिलने से इन्कार कर दिया । पाकिस्तान में शामिल हो जाने के दबाव को निष्फल करने का यह उनका अपना ढंग था । इधर दिल्ली में प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु इस बात पर अडे थे कि महाराजा ,सत्ता त्याग कर श्रीनगर के शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को कार्यभार सौंप दें और रियासत के नई संघीय व्यवस्था में शामिल होने की बातचीत शेख़ अब्दुल्ला से ही की जायेगी । लेकिन इस ऊहापोह में गुज़र रहा एक एक दिन रियासत के भविष्य पर भारी पड़ रहा था । रामचन्द्र काक की गतिविधियाँ जगज़ाहिर होने लगीं थीं । हरि सिंह ने ११ अगस्त को उसे हटा कर मेजर जनरल जनक सिंह को नया प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया । १२ अगस्त को कराची को यथास्थिति बनाये रखने का प्रस्ताव भेजा । कराची ने उसे एक टेलीग्राम भेजकर तुरन्त स्वीकार कर लिया । उसके साथ यथास्थिति का एक प्रस्ताव दिल्ली को भी भेजा । लेकिन दिल्ली को भेजा प्रस्ताव कराची को भेजे प्रस्ताव से बेहतर था । क्योंकि १८४६ की संधि के अनुसार जम्मू कश्मीर पर किसी आक्रमण की स्थिति में भारत पर सुरक्षा का ज़िम्मा स्वत आ जाता था । पर दिल्ली ने इस पर भी विचार करने के लिये समय माँगा और कहा कि इस प्रस्ताव पर तभी विचार किया जायेगा जब महाराजा स्वयं या फिर उनका कोई प्रतिनिधि स्वयं दिल्ली आकर इस विषय पर बातचीत नहीं करता । लेकिन दिल्ली को महाराजा के प्रतिनिधि का इन्तज़ार करने की जरुरत नहीं पडी , क्योंकि पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर को बलपूर्वक हथियाने के लिये कबायलियों के माध्यम से आक्रमण कर दिया । पाकिस्तान समझ गया था कि तमाम प्रलोभनों और धमकियों के बाबजूद महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान में जाने के लिये तैयार नहीं हैं । लेकिन उसकी कथा बाद में । पहले लार्ड माऊंटबेटन और उसके साथियों द्वारा महाराजा हरि सिंह पर पाकिस्तान में शामिल हो जाने के लिये प्रत्यक्ष व परोक्ष दबाव की कथा ।
4. लार्ड माऊंटबेटन का श्रीनगर आगमन और हरि सिंह का पाकिस्तान में शामिल होने से इन्कार--
 
 
 
15 अगस्त1947 से पहले 19 जून को लार्ड माऊंटबेटन महाराजा हरि सिंह से मिलने श्रीनगर पहुँचे और वहाँ पांच दिन रहे । वे २३ जून को श्रीनगर से वापिस आये । उस समय भारत डोमीनियन नहीं बना था और माऊंटबेटन वायसराय की हैसियत रखते थे । आम तौर पर कहा जाता है कि माऊंटबेटन हरि सिंह को सलाह दे रहे थे कि वे १५ अगस्त १९४७ से पहले पहले प्रस्तावित भारत या पाकिस्तान डोमीनियन में शामिल हो जायें । वायसराय के इस श्रीनगर प्रवास का क्या उद्देश्य था , इसका विवरण अनेक महत्वपूर्ण स्रोतों में मिलता है ।
 
 
 
एलन कैम्पबल जानसन ,जो वायसराय के मीडिया प्रभारी थे ,माऊंटबेटन के इस श्रीनगर प्रवास में उनके साथ नहीं थे । श्रीनगर से वापिस आने पर माऊंटबेटन के साथ क्या बातचीत हुई इसका ख़ुलासा करते हुये वे अपनी २८ अक्तूबर १९४७ की डायरी में लिखते हैं," (माऊंटबेटन) ने बताया कि सत्ता हस्तातंरण से पहले पहले , महाराजा से अधिमिलन के प्रश्न पर अपना मत सुनिश्चित कर लेने का आग्रह करते समय ,जून के अपने प्रवास से लेकर अब तक , मैं महाराजा पर अपने पूरे प्रभाव का दबाव डालता रहा हूँ कि दोनों डोमीनियनों में से किसी एक में अधिमिलन का निर्णय , वे लोगों की राय जाने का उपक्रम किये बिना किसी भी हालत में न लें । इसके लिये रैफरंडम, प्लेबिसाइट,या चुनाव का तरीक़ा इस्तेमाल किया जा सकता है । यदि वर्तमान हालात में ये तरीक़े अव्यवहारिक हों तो लोगों की राय जानने के लिये प्रतिनिधि स्वरुप वाली जनसभाएँ की जा सकती हैं ।"(कैम्पबल २२४) यह ठीक है कि माऊंटबेटन ने सहती तौर महाराजा हरि सिंह को १५ अगस्त से पहले पहले किसी भी डोमीनियन की सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने की सलाह दी थी लेकिन एच.वी.होडसन के अनुसार माऊंटबेटन ने हरि सिंह को यह भी हिदायत कर दी थी कि पाकिस्तान की अलग संविधान सभा गठित हो जाने से पहले कोई भी निर्णय मत लेना ।"( सरीला ३४४, एच.वी.होडसन दी ग्रेट डिवायड से )
 
 
माऊंटबेटन की इस स्पष्ट स्वीकारोक्ति से दो बातें स्पष्ट हैं । वे महाराजा हरि सिंह को परोक्ष रुप से भारत डोमीनियन में अधिमिलन से रोक रहे थे । इसीलिये वे बार बार उन पर लोगों की राय जान लेने के पश्चात् ही निर्णय करने का दबाव डाल रहे थे । उस समय की उत्तेजित परिस्थितियों में लोकमत जानना न तो संभव था और न ही वस्तुपरक था ।
 
 
महाराजा हरि सिंह ने भी इस बात का ख़ुलासा किया है कि माऊंटबेटन ने उन्हें श्रीनगर प्रवास में क्या सलाह दी थी । उन्होंने लिखा,
 
 
"Lord Mountbatten chose to visit the State in June 1947 and we had several talks. Lord Mountbatten then urged me and my Prime Minister, Kak, not to make any declaration of Independence but to find out in one way or another, the will of the people of Kashmir as soon as possible and to announce our intention by the 14th August to send representatives accordingly to one Constituent Assembly or the other. Lord Mountbatten further told us that the newly created States Department was prepared to give an assurance that if Kashmir went to Pakistan, it would not be regarded as an unfriendly act by the Government of India. Lord Mountbatten stressed the dangerous situation in which Kashmir would find itself if it lacked the support of one of the two Dominions by the date of the transfer of power. The impression which I gathered from my talks with Lord Mountbatten who explained the situation with plans and maps was that, in his opinion, it was advisable for me to accede to Pakistan."
 
 
(16/17 अगस्त १९५२ को दिये गये एक ज्ञापन ,जावेद आलम पेज ३१२) लार्ड माऊंटबेटन , महाराजा हरि सिंह के पुराने मित्र थे । पाकिस्तान में शामिल होने से बचने के लिये उन्होंने अंतिम दिन उदर शील का बहाना बना कर लार्ड से मिलने से ही इंकार कर दिया ।
 
लार्ड माऊंटबेटन की इस श्रीनगर यात्रा का वर्णन डा० कर्ण सिंह ने भी किया है । यद्यपि इस घटना की व्याख्या उनकी अपनी है , तब भी इससे माऊंटबेटन के उद्देश्य का आभास परिलक्षित हो ही जाता है । उनके अनुसार," (श्रीनगर में) माऊंटबेटन एक गंभीर राजनैतिक उद्देश्य भी पूरा करने में लगे हुये थे । भारत में अब अंग्रेज़ों के विदा होने में ज़्यादा दिन नहीं रह गये थे । देश का विभाजन तय हो चुका था । देसी रियासतें अपनी अपनी भौगोलिक स्थितियों को देखते हुये यह निर्णय करने में व्यस्त थीं कि उन्हें भारत या पाकिस्तान , किस देश के साथ मिलना है । लेकिन अब भी कुछ रियासतें ऐसी थीं , जो कुछ फ़ैसला नहीं कर पाईं थीं । इनमें भारत की दो बड़ी रियासतें थीं- हैदराबाद और कश्मीर । भौगोलिक दृष्टि से हैदराबाद पूरी तरह भारतीय संघ के बीच में था । लेकिन जम्मू कश्मीर की एक सीमा भारतीय संघ से लगी थी , तो दूसरी प्रस्तावित नये राष्ट्र पाकिस्तान से । इसके अलावा हमारी रियासत बहुजातीय थी । यहाँ शिया , सुन्नी मुसलमान , हिन्दू , बौद्ध तथा अन्य मजहबी सम्प्रदायों के लोग भी थे । मुझे अब भी संदेह है कि उस वक़्त तक भी पिता को यह विश्वास नहीं था कि अंग्रेज़ सचमुच भारत से चले जायेंगे । अपने अनिर्णायक स्वभाव के चलते यहाँ भी उनका रवैया टालू ही रहा ।
 
 
 
निस्सन्देह स्थिति की जटिलता और किसी आसान विकल्प के अभाव को देखते हुये उन्हें पूरी तरह दोषी नहीं ठहराया जा सकता । उनके सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं । अगर वे पाकिस्तान के साथ मिलने का निर्णय करते , तो उनके समूचा डोगरा आधार सहित उन्हीं के अधिकांश लोग स्वयं को अपमानित महसूस करते । भारत के साथ मिलते तो रियासत के अधिकांश मुस्लिम वर्ग के विमुख होने का जोखिम था । स्वतंत्र राज्य अपने आप में एक आकर्षक प्रस्ताव हो सकता था । लेकिन उसे व्यवहार में लाने के लिये बड़ी सूझबूझ से तैयारी करने की आवश्यकता थी । सभी सम्बंधित पक्षों से लम्बी बातचीत और ज़बर्दस्त राजनैतिक व कूटनीतिक क्षमता की जरुरत थी । माऊंटबेटन की कश्मीर यात्रा का उद्देश्य पिता को १५ अगस्त से पहले पहले कोई निर्णय कर लेने का आग्रह करना था । वह भारतीय नेताओं से यह आश्वासन लेकर भी आये थे कि महाराजा जो भी निर्णय करें , चाहे पाकिस्तान में भी मिलना चाहें , उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी ।
 
 
 
विषम परिस्थिति आने पर उसका सामना करने से बचना , यह स्वाभाविक सामंतीं प्रवृत्ति है । मेरे पिता अक्सर यही किया करते थे । माऊंटबेटन के कश्मीर आने का फ़ायदा उठाते हुये समग्र स्थिति पर सार्थक विचार विमर्श करने और विवेकपूर्ण निर्णय लेने की बजाय उन्होंने वायसराय को तरह तरह से टालने की कोशिश की । ---------------- दिल्ली के लिये रवाना होने से पहले वायसराय ने उनके साथ एक मीटिंग रखी थी । लेकिन मेरे पिता ने असहनीय पेट दर्द का बहाना बनाकर मीटिंग को भी टाल दिया । इस घटना को वायसराय के सहायक ने मीटिंग के विवरण के साथ दर्ज करते हुये लिखा कि वायसराय महाराजा की मंशा समझ गये और दिल्ली लौट आये । कश्मीर पर राजनैतिक समझौते का यह अंतिम और सही अवसर था , जो गँवा दिया गया ।" 
(कर्ण सिंह आत्मकथा७७-७९)
 
 
 
यद्यपि कर्ण सिंह ने लार्ड माऊंटबेटन की इस श्रीनगर यात्रा की व्याख्या अपने पिता को दोषी सिद्ध करने की शैली में ही की है , लेकिन फिर भी उन्होंने स्पष्ट किया है कि माऊंटबेटन महाराजा हरि सिंह को आश्वस्त कर रहे थे कि पाकिस्तान में शामिल होने पर भारत सरकार कोई एतराज़ नहीं करेगी ।
 
 
लेकिन लार्ड माऊंटबेटन ने स्वयं भी श्रीनगर प्रवास के दौरान महाराजा हरि सिंह से क्या बातचीत हुई थी, इसका ख़ुलासा किया है । माऊंटबेटन के अनुसार," मैंने कहा , देखो हरि सिंह, तुम मेरे लम्बे समय से मित्र हो । अब तुम्हें रियासत के अधिमलन को लेकर अपना मन तैयार करना ही होगा । मैं भारत डोमीनियन की वर्तमान व आगामी सरकार (ख़ास कर सरदार पटेल, जिसमें नेहरु भी सहमत हैं ) की ओर से अधिकार पूर्वक ही तुमसे बात कर रहा हूँ और एक प्रकार से उसी की ओर से तुम्हारे सामने प्रस्ताव रख रहा हूँ । यदि तुम पाकिस्तान में शामिल होते हो तो वे इसे वर्तमान हालात में लिया जाने वाला सही निर्णय ही मानेंगे । क्योंकि तुम्हारा प्रजा का बहुमत मुसलमानों का है । तुम्हारे पाकिस्तान में शामिल हो जाने से भारत सरकार के मन में तुम्हारे प्रति कोई दुर्भावना पैदा नहीं होगी बल्कि वे इसमें तुम्हारी हर संभव सहायता करेंगे । -------- मेरे हिसाब से पाकिस्तान में शामिल होना ही तुम्हारे लिये बुद्धिमत्ता होगी ।"( लैरी कोलिन पेज ५२) स्पष्ट है कि माऊंटबेटन को लेकर महाराजा हरि सिंह ने जो आशंका व्यक्त की है , वह बाद में माऊंटबेटन के अपने वक्तव्यों से भी पता चल गई थी कि वे कश्मीर के पाकिस्तान में चले जाने के समर्थक थे ।
 
 
 
जिस समय माऊंटबेटन हरि सिंह को रियासत में लोगों का मत जानने के लिये चुनाव करवाने की या फिर जगह जगह जन सभाएँ करने की सलाह दे रहे थे , उस समय भारत से अंग्रेज़ों के चले जाने में एक महीना बीस दिन बचते थे । रियासत के पड़ोसी राज्य पंजाब में हिन्दू मुस्लिम दंगे शुरु हो चुके थे । बंगाल में मुस्लिम लीग के डायरैक्ट एक्शन के कारण हज़ारों हिन्दू सरकारी सहायता से मारे जा चुके थे । लेकिन जम्मू कश्मीर मुस्लिम बहुल होते हुये भी अभी तक इस साम्प्रदायिकता से बचा हुआ था , चाहे ब्रिटिश अधिकारी इसके लिये पिछले तेजस साल से प्रयास कर रहे थे । लेकिन अब यदि महाराजा हरि सिंह जगह जगह जन सभाएँ शुरु कर देते तो रियासत में दो समुदायों के बीच के जन संहार को कोई नहीं रोक सकता था । माऊंटबेटन की इस स्पष्ट स्वीकारोक्ति से दो बातें स्पष्ट हैं । वे महाराजा हरि सिंह को परोक्ष रुप से भारत डोमीनियन में अधिमिलन से रोक रहे थे । इसीलिये वे बार बार उन पर लोगों की राय जान लेने के पश्चात् ही निर्णय करने का दबाव डाल रहे थे । उस समय की उत्तेजित परिस्थितियों में लोकमत जानना न तो संभव था और न ही वस्तुपरक था ।
 
 
लेकिन लार्ड माऊंटबेटन 15 अगस्त के बाद भी चुप नहीं बैठे। उन्होंने अभी तब तक हठ नहीं छोड़ा था। उसके बाद उनका सचिव ग्रेसी महाराजा के पास पाकिस्तान की माला जपता रहा। लार्ड माऊंटबेटन जम्मू कश्मीर को लेकर कितनी गहरी रुचि रखते थे इसका अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि नेहरु को क़ाबू करने के लिये उन्होंने अपनी पत्नी को भी इस रणक्षेत्र में उतार दिया । माऊंटबेटन की बेटी पामेला ने इस विषय की चर्चा करते हुये लिखा है कि," पंडित नेहरु से मेरी माँ का विशेष रिश्ता पिता जी के लिये बहुत लाभदायक था । ऐसा समय भी आया जब कश्मीर बहुत ही समस्यामूलक हो गया था । जब कश्मीर पर कोई पेंच होता तो वे सुबह नाश्ते के समय मां को कह देते थे कि नेहरु से बात कर लेना।" ( India remembered page 18) ज़ाहिर है जिस कूटनीतिक शैली में माऊंटबेटन महाराजा को पाकिस्तान में शामिल हो जाने की सलाह दे रहे थे उसी कूटनीतिक शैली में हरि सिंह उससे इन्कार कर रहे थे । ब्रिटिश रणनीति इस मामले में महाराजा को केवल समझा बुझा ही नहीं रही थी । यदि नौबत युद्ध तक आ जाती तो रियासत की सेना प्रभावी ढंग से मुक़ाबला न कर सके इसके लिये भी बिसात बिछाई जा रही थी । महाराजा की सेना के मुखिया जनरल स्काट पहले ही पाकिस्तान के लिए मोर्चा सजा चुके थे । उन्होंने रियासत की सेना को रियासत की लम्बी चौड़ी सीमा पर पूरी तरह छितरा दिया था । और राज्य के प्रधानमंत्री राय बहादुर सर पंडित रामचन्द्र काक, जिनकी पत्नी अंग्रेज थी, पाकिस्तान के निरंतर सम्पर्क में थे। साथ ही वह स्वतंत्र कश्मीर के लिए भी बिसात बिछा रहे थे।
 
 

5. पाकिस्तान में शामिल होने के लिये मुस्लिम लीग और मुस्लिम कान्फ्रेंस का हरि सिंह पर दबाव --
 
 
जब ःारत विभाजन का निर्णय हो गया और इस प्रश्न पर कोई संशय नहीं रहा तो मुस्लिम लीग और एक प्रकार से उसकी शाखा के तौर पर ही जम्मू कश्मीर में काम कर रही मुस्लिम कान्फ्रेंस महाराजा हरि सिंह पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये निरन्तर दबाव बनाने लगी । उद्देष्य सिद्धि के लिये ये संगठन सभी प्रकार की रणनीति का प्रयोग कर रहे थे । प्रकारान्तर से महाराजा को धमकाया भी जा रहा था । उधर कराची से पाकिस्तान के कायदा-ए-आजम जिन्ना के दूत श्रीनगर आकर महाराजा को पाकिस्तान में शामिल होने के लिए समझाने के साथ-साथ धमकाते भी रहे।
 
 
6. जवाहर लाल नेहरु और महाराजा हरि सिंह की जम्मू कश्मीर की सांविधानिक स्थिति को लेकर मत भिन्नता---
 
 
 
जिस समय लार्ड माऊंटबेटन महाराजा हरि सिंह पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये दबाव बना रहे थे और इसके लिये लोकमत जानने को ही ढाल बना रहे थे , उस समय दिल्ली की व पंडित नेहरु की जम्मू कश्मीर रियासत को लेकर क्या नीति थी , इसका ख़ुलासा भी लाज़िमी है ।
 
 
पंडित जवाहर लाल नेहरु महाराजा हरि सिंह से रियासत के अधिमिलन पर बातचीत करने के लिये तैयार ही नहीं थे । वे अधिमिलन की बातचीत शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला से ही करना चाहते थे । लेकिन यह तभी संभव हो सकता था यदि रियासत की सांविधानिक स्थिति में परिवर्तन हो जाता और सत्ता शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के हाथों में आ जाती । इसलिये उन अति संवेदनशील दिनों में नेहरु शेख़ अब्दुल्ला को जेल से छुड़वा कर , उसे रियासत की गद्दी पर बिठा देने के लोकतांत्रिक अभियान में लगे हुये थे । हरि सिंह के ही शब्दों में," the Prime Minister was anxious to secure the release from prison of Sheikh Abdullah." (जावेद आलम ३१२) शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला १९४६ में 'डोगरो गद्दी छोड़ो' के आन्दोलन के चलते जेल में तीन साल की क़ैद काट रहे थे । नेहरु के शब्दों में ही," विभाजन से पूर्व ही जब अधिकांश रियासतें भारत की व्यवस्था में विलीन हो रहीं थीं , तब हमने जम्मू कश्मीर रियासत के विलय को प्रोत्साहित नहीं किया । हमने सुझाव दिया था कि इस विषय पर बाद में किसी समय विचार किया जायेगा , जब किसी भी तरीक़े से लोगों की राय जान ली जायेगी । तब हमारा सुझाव था कि रियासत में संविधान सभा का गठन किया जायेगा जिसके माध्यम से अधिमिलन व अन्य विषयों पर लोगों की राय सुनिश्चित की जायेगी । " (जावेद आलम १४५-१४६) हरि सिंह अधिमिलन की चर्चा का प्रस्ताव दिल्ली भेजते थे, तो उधर से नेहरु का रटा-रटाया जवाब आ जाता था, शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दो। जम्मू-कश्मीर मामलों पर लिखने वाले क्रिस्टोफर थॉमस कहते हैं - 'विभाजन से एक माह पूर्व, जुलाई में महाराजा ने अपने प्रधानमंत्री पंडित काक को रियासत के भारत में विलय की शर्तों की बात करने के लिए दिल्ली भेजा, लेकिन दिल्ली में काक को स्पष्ट बता दिया गया कि लोगों की इच्छा जाने बिना विलय का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जाएगा।' (क्रिस्टोफर थॉमस )
 
 
 
पन्द्रह अगस्त नज़दीक़ आ रहा था और दिल्ली की जम्मू कश्मीर को लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं बन पा रही थी । अलबत्ता लार्ड माऊंटबेटन और मुस्लिम लीग का पाकिस्तान में शामिल हो जाने का दबाव बरक़रार था । अब हरि सिंह दो ओर से घिर चुके थे । पाकिस्तान रियासत को हथियाने के लिये कोई भी तरीक़ा इस्तेमाल कर सकता था और माऊंटबेटन किसी भी तरीक़े से रियासत पाकिस्तान को दिलवाने के लिये कोई चाल चल सकते थे । इन दोनों की कूटनीति और बलनीति को पराजित करने के लिये महाराजा ने भी तुरप का पत्ता चल दिया । उन्होंने 12 अगस्त को पाकिस्तान के पास यथास्थिति संधि के लिये प्रस्ताव भेजा और यह प्रस्ताव उसने दिल्ली के पास भी भेजा । पाकिस्तान ने तो इसे स्वीकार कर लिया लेकिन दिल्ली में नेहरु इसे लेकर भी आँख मिचौनी खेलने लगे । जबकि दिल्ली को यथास्थिति संधि की जो शर्तें भेजी गईं थीं , वे देश की नई संघीय व्यवस्था के पक्ष में थीं । विभाजन के बाद बचा भारत डोमीनियन अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार ब्रिटिश इंडिया का उत्तराधिकारी राज्य था । इसलिये १८३६ में कश्मीर घाटी को लेकर जम्मू रियासत व ब्रिटिश इंडिया में हुई अमृतसर संधि के पालन का दायित्व , यथास्थिति संधि के बाद स्वाभाविक रुप से ही दिल्ली पर आ जाता । महाराजा हरि सिंह परोक्ष रुप से यह स्थिति पैदा कर रहे थे कि यदि पाकिस्तान बल प्रयोग से जम्मू कश्मीर हथियाने का प्रयास करता है तो भारत सरकार उसमें वैधानिक रुप से दख़लंदाज़ी कर सकती है । लेकिन भारत सरकार में बैठ कर इस संधि को होने से रुकवाने के पीछे किस का दिमाग़ था ? यह अभी भी रहस्य ही बना हुआ है । संधि के प्रस्ताव को अस्वीकार करके दिल्ली ने एक सुनहरे अवसर गँवा दिया था
 
 
 
महाराजा हरि सिंह के अपने शब्दों में ही --
 
 
"I thought that in the circumstances it was advisable to have Standstill Agreements with India and Pakistan and get breathing time to decide which accession would be in the interests of the State.Pakistan very quickly and willingly agreed to a Standstill arrangement, perhaps with mental reservations, as appears from their subsequent conduct. On the other hand, the Government of India did not make up their mind and, if I may be permitted to say so, dealt with the situation in a half­-hearted and desultory manner; thus giving an opportunity to Pakistan to do mischief, as they did. This gave rise to misunderstandings on both sides resulting in dissatisfaction and delay in coming to an understanding. The results have been detrimental to both the State and India. Pakistan became impatient and, having failed to force accession, started with blockading the supplies to the State and ended by invading the State. Lord Mountbatten realizing the uncertain and dangerously unstable position of the State, asked Lord Ismay to approach me and get me to decide on accession without further delay to whichever Dominion I and my people desired. This was at the end of August, 1947."(जावेद आलम पेज ३१३)
 
 
 
लेकिन दिल्ली में किसी के पास इतना समय ही नहीं था कि जम्मू-कश्मीर की ओर ध्यान देता। उन दिनों के रियासती मंत्रालय के पास सभी रियासतों को नई संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में एकीकृत करने का जिम्मा था। उस के सचिव वी. पी. मेनन लिखते हैं कि सच्चाई तो यह थी कि हम अन्य समस्याओं से ही इतना घिरे हुए थे कि हमारे पास कश्मीर पर विचार करने का समय ही नहीं था। ( वी पी मेनन पेज )
 
 
 
 
इसपर महाराजा के विरोधियों ने दिल्ली में ये अफवाहें अवश्य फैलानी शुरु कर दीं कि महाराजा स्वतंत्र रहना चाहते हैं।’ प्रधानमंत्री रामचंद्र काक की गतिविधियां भी इन अफवाहों को बल दे रही थीं। जैसे ही महाराजा को काक के असली चरित्र की भनक लगी, उन्होंने तुरंत रामचन्द्र को फारिग कर दिया और 11 अगस्त १९४७ को जनक सिंह को नया प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया । कुछ दिन बाद ही भारत विभाजन हुआ और रियासत की ब्रिटिश सरकार से की गई संधियाँ समाप्त हो गईं । दिन प्रतिदिन रियासत में स्थिति गंभीर होती जा रही थी । १५ अक्तूबर को महाराजा हरि सिंह ने जनक सिंह को पदमुक्त कर लाहौर स्थित पंजाब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश मेहरचन्द महाजन को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। कम से कम अब कोई यह तो नहीं कह सकेगा कि हरि सिंह स्वतंत्र राज्य का सपना देख रहे हैं। महाजन ने बाद में लिखा, 'रामचन्द्र काक ने राज्य को पाकिस्तान में रहना चाहिए, इसके बारे में अपनी गतिविधियों को कभी छिपाया नहीं था। वह पाकिस्तान को विश्वास दिला रहे थे कि थाली में रख कर वह जम्मू-कश्मीर उन्हें भेंट कर देंगे।’ महाराजा ने पाकिस्तान समर्थक रामचन्द्र काक को हटा दिया था, इसी से उनकी मंशा जाहिर हो गई थी कि वह राज्य को देश की नई संघीय व्यवस्था का हिस्सा बनना चाहते थे। अगस्त के बीतते बीतते तो महाराजा हरि सिंह ने भारत की सांविधानिक प्रशासनिक व्यवस्था में शामिल होने का निर्णय कर ही लिया था । लेकिन अब "रियासत के अधिमिलन में देरी केवल इसलिये हो रही थी कि नेहरु इस बात पर बजिद थे कि अधिमिलन तभी संभव है यदि महाराजा सत्ता शेख़ अब्दुल्ला को सौंप कर प्रदेश में प्रतिनिधि सरकार की स्थापना कर दें ।"( सरीला ३४९)
 
 
 
 
शेख़ अब्दुल्ला को गद्दीनशीन करवा देना ही नेहरु के लिये लोगों की इच्छा जान लेना था । ताज्जुब था कि नेहरु देश भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था के हामी थे, लेकिन जब जम्मू-कश्मीर की बात आती थी तो कश्मीर घाटी के केवल कश्मीरी भाषा बोलने वाले मुसलमानों के नेता शेख को बिना किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सत्ता दिलवाना चाहते थे। मेहर चन्द महाजन , रियासत में प्रधानमंत्री का पद संभालने से पूर्व २९ अगस्त को दिल्ली में पंडित जवाहर लाल नेहरु से मिले । महाजन के शब्दों में ही," मैं प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु से भी मिला और उन्हें बताया कि महाराजा किन शर्तों पर अधिमलन प्रस्ताव चाहते हैं । महाराजा भारत की सांविधानिक व्यवस्था से अधिमिलन चाहते थे । वे रियासत की प्रशासनिक व्यवस्था में आवश्यक सुधार करने के भी इच्छुक थे । लेकिन वे प्रशासनिक सुधारों का विषय अधिमिलन के बाद लेना चाहते थे । लेकिन पंडित जी रियासत के आंतरिक प्रशासन में तुरन्त प्रभाव से परिवर्तन चाहते थे । जब मैंने इस विषय पर महाराजा का दृष्टिकोण बताया तो वे क्रोधित भी हुये । पंडित नेहरु ने मुझे यह भी कहा कि अब तुम देखो कि शेख़ अब्दुल्ला को तुरन्त जेल से छोड़ दिया जाये ।" (महाजन१२६) इसका अर्थ यह हुआ कि महाराजा तो सितम्बर से ही प्रयास कर रहे थे कि रियासत का भारत की सांविधानिक व्यवस्था से एकीकरण हो जाये लेकिन नेहरु जिन आन्तरिक प्रशासकीय परिवर्तनों की बात कर रहे थे , उसका अर्थ शेख़ को सत्ता सौंप देना ही था और इसी में उनकी प्राथमिक रुचि थी ।
 
 
 
 
जब नेहरु अधिमिलन के प्रस्ताव को किसी भी हालत में स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हुये तो महाराजा हरि सिंह से अपने बहनोई नचिन्त चन्द के माध्यम से शेख़ अब्दुल्ला से बातचीत चलाई । शेख़ ने डोगरों के ख़िलाफ़ अपने कृत्यों पर खेद प्रकट किया । तब २९ सितम्बर १९४७ को उनको जेल से रिहा कर दिया गया । लेकिन शेख़ को जेल से छोड़ देने मात्र से भी नेहरु की ज़िद में कोई परिवर्तन नहीं आया । क्रिस्टोफर थॉमस के ही अनुसार, 'शेख को जेल से छोडऩे के बाद, महाराजा ने एक बार फिर दिल्ली को विलय का प्रस्ताव भेजा। इस बार महाराजा अपने लिए कुछ सुविधा जनक स्थिति चाहते थे। लेकिन नेहरु ने इस बार भी महाराजा का प्रस्ताव ठुकरा दिया। प्रसिद्ध पत्रकार प्राण सेठ, जो 1947 में जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण के समय रिपोर्टिंग के लिए श्रीनगर में थे, लिखते हैं - " हो सकता है कि महाराजा हरि सिंह अच्छे प्रशासक या कूटनीतिज्ञ न हों, लेकिन वह इतना तो जानते ही थे कि उनका भविष्य भारत में है। रियासत पर हमले से काफी पहले उन्होंने दो बार भारत में विलय का प्रस्ताव भेजा, लेकिन नेहरु ने दोनों बार ही यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। नेहरु ने शर्त लगाई थी कि पहले उनके मित्र शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में राज्य में लोकप्रिय सरकार का गठन किया जाए, तभी विलय का प्रस्ताव स्वीकार किया जाएगा।"
 
 
 
महाराजा हरि सिंह के भारत में शामिल होने के मध्य सितम्बर के इन प्रयासों के चलते लगभग एक मास बीत जाने के बाद जब नए प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन, 12 अक्तूबर 1947 को नई दिल्ली से श्रीनगर में आए तो नेहरु ने उनके हाथ हरि सिंह के लिए यह संदेश भेजा कि जेल से रिहा हुए शेख को दिल्ली आने की अनुमति दी जाए। हरि सिंह के अधिमिलन के प्रस्ताव की दिल्ली में कोई चर्चा करने के लिये भी तैयार नहीं था । इसके विपरीत दिल्ली की चिन्ता शेख़ अब्दुल्ला को गद्दी पर बिठाने की ज़्यादा थी । नेहरु ने पहले दिन से ही हरि सिंह को अपना शत्रु घोषित कर दिया था। जिन दिनों सरदार पटेल दूसरी रियासतों के शासकों को मान-मनौव्वल से देश की नई संघीय लोकतांत्रिक पद्धति का हिस्सा बनने के लिए मना रहे थे, उन्हीं दिनों नेहरु हरि सिंह जैसे स्वाभिमानी शासक को अपमानित करके पदच्युत करना चाह रहे थे। मुस्लिम कांफ्रेंस महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने का दबाब बना रही थी। मेहर चन्द महाजन के अनुसार, चित्राल और हुंजा के सरदार बार-बार महाराजा को तार भेज रहे थे कि पाकिस्तान में शामिल हो जाएं।
 
 
 
जम्मू कश्मीर में अधिमिलन के प्रश्न पर लोकमत जानने पर नेहरु भी और लार्ड माऊंटबेटन भी ज़ोर दे रहे थे । लेकिन दोनों के लिये लोकमत की अवधारणा का अर्थ अलग अलग था । माऊंटबेटन को लगता था कि लोकमत का अर्थ है रियासत का पाकिस्तान में शामिल हो जाना और नेहरु को लगता था कि लोकमत का अर्थ है महाराजा हरि सिंह को हटा कर शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को गद्दी सौंप देना । लेकिन महाराजा हरि सिंह के लिये उन विषम परिस्थितियों में लोकमत जान लेने का अर्थ था यथार्थ की ज़मीन पर खड़े होकर आग से खेलना । महाराजा ने लोकमत जान लेने के प्रश्न पर यथार्थ का उल्लेख करते हुये लिखा,
 
 
 
" The People of the State were divided in several groups, each group having its own ideas about accession; The Border Feudatory Territories such as Hunza, Nagar and Chitral and the District of Gilgit, where British influence was supreme were definitely for accession to Pakistan and were pressing me to accede to Pakistan without delay and threatening me with dire consequences if I did not act according to their suggestion; The Muslim population of the State was also divided into groups with divergent views. Muslims from parts of Jammu such as, Mirpur, Poonch, Muzaffarabad, were for accession to Pakistan because of Pakistan propaganda inside the State. Muslims of Kashmir and some Muslims of Jammu who were led by Sheikh Abdullah and the leaders of the National Conference did not want the question of accession to be decided at that stage but wanted me to part with power in their favour so that they could decide the question independently of me. They made no secret of their views and obstructed me in deciding the question of accession instead of helping me to accede to India; Hindus of Jammu and all the people of Ladakh were for affiliation with or Accession of India; A portion of the population of Kashmir was also for accession to Pakistan. Thus, there was a sharp division of opinion. The partition aggravated the situation and unhinged and unbalanced the minds of the people with the result that the people of the State were not in a position to give any considered opinion if I chose to consult them."(जावेद आलम पेज )
 
 
7. महाराजा हरि सिंह के विकल्प-
 
 
ब्रिटिश सरकार के वायसराय और स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल लार्ड माऊंटबेटन से एक ओर से , मुस्लिम लीग/कान्फ्रेंस और पाकिस्तान के क़ायदे-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना से दूसरी ओर से घिरे महाराजा हरि सिंह को तीसरी ओर से नेहरु और शेख़ अब्दुल्ला ने घेर रखा था । इस हालात में हरि सिंह के पास क्या विकल्प थे और उन्होंने उनका किस प्रकार उपयोग किया , यह जानना आवश्यक है ।
 
 
(क) पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प- उपरोक्त पृष्ठभूमि में महाराजा हरि सिंह के पास क्या विकल्प थे ? इसकी जाँच कर लेना जरुरी है । एक विकल्प जिस की चर्चा हरि सिंह के बेटे डा० कर्ण सिंह ने ही की है , वह यह कि उनके पिता को माऊंटबेटन की सलाह मान लेनी चाहिये थी । कर्ण सिंह का कहना है कि ,"माऊंटबेटन की सलाह न मान कर कश्मीर पर राजनैतिक समझौते का अंतिम और सही अवसर गँवा दिया गया ।" ( आत्मकथा पेज ) यह अवसर क्या था ? क्या महाराजा हरि सिंह माऊंटबेटन की सलाह मान कर पाकिस्तान में शामिल हो जाते ? या फिर उनके सुझाव के अनुसार रियासत के उस समय के उत्तेजित वातावरण में जगह जगह जन सभाएँ करवा कर साम्प्रदायिक आग लगवा देते ? वैसे भी माऊंटबेटन दिल्ली की ओर से उन्हें आश्वस्त कर रही रहे थे कि उनके पाकिस्तान में शामिल होने से सत्ता संभालने जा रहे कांग्रेस के नेता नाराज़ नहीं होंगे । माऊंटबेटन की सलाह पर महाराजा १५ अगस्त से पहले पहले रियासत में लोगों की राय जानने के लिये मतदान करवाना शुरु कर देते ? या फिर उस समय के उत्तेजित वातावरण में जगह जगह जन सभाएँ करवा कर साम्प्रदायिक आग लगवा देते ? कर्ण सिंह अब तक इतना तो समझ ही गये होंगे कि यदि महाराजा ऐसा करते तो पूरे जम्मू कश्मीर में भी हिन्दू मुसलमानों के बीच क़त्लेआम शुरु हो जाता जो उन दिनों विभाजन की संभावना से पंजाब में मचा हुआ था और जिसमें एक अनुमान के अनुसार दस लाख हिन्दु मुसलमान मारे गये थे । जिसे कर्ण सिंह सही और अंतिम अवसर कह रहे हैं , वह यही अवसर था , जिसको महाराजा हरि सिंह ने मानने से इन्कार कर दिया था और रियासत को साम्प्रदायिक क़त्लेआम से बचा लिया था । हरि सिंह के पेट में जो असहनीय पेट दर्द था वह इसी क़त्लेआम की संभावना से पैदा हुआ था ।महाराजा हरि सिंह का वह दर्द तो शायद काल्पनिक ही हो , लेकिन उस काल्पनिक पेट दर्द ने माऊंटबेटन के सीने में स्थायी दर्द पैदा कर दिया कि वे लन्दन की इच्छा के अनुसार जम्मू कश्मीर पाकिस्तान में शामिल नहीं करवा सके । कर्ण सिंह को आज साठ साल बाद भी इस बात का दुख है कि उनके पिता ने इस सुनहरी सही अवसर का लाभ नहीं उठाया ।
 
 
 
 
ताज्जुब है कर्ण सिंह जम्मू कश्मीर की तुलना हैदराबाद की रियासत से कर रहे हैं । हैदराबाद के शासक ने तो बाक़ायदा भारत के ख़िलाफ़ युद्ध घोषित करने के संकेत दे दिये थे और वे तो बाक़ायदा अपनी रियासत को एक आज़ाद देश घोषित कर रहे थे । महाराजा हरि सिंह ने तो जम्मू कश्मीर के स्वतंत्र देश होने की घोषणा कभी नहीं की थी । रही बात रियासत के भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने की । नेहरु इस विषय पर महाराजा हरि सिंह से बात करने तक के लिये तैयार नहीं थे । उस समय के रियासती मंत्रालय के सचिव वी.पी.मेनन के अपने कथन के अनुसार ही , "हमारे पास कश्मीर पर बात करने के लिये समय ही नहीं था ।"( वी परी मेनन पेज ) नेहरु महाराजा हरि सिंह से शेख़ अब्दुल्ला की रिहाई पर तो बात करने के लिये तो लालायित थे लेकिन रियासत के भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने के विषय को वे छूना भी नहीं चाहते थे । तब किस आधार पर कहा जा सकता है कि महाराजा हरि सिंह ने सही अवसर गँवा दिया ? इसका उत्तर कर्ण सिंह ही दे सकते हैं ।
 
 
 
(ख) रियासत को स्वतंत्र रखने का विकल्प--
 
 
 
इस बात का बहुत प्रचार किया गया है कि महाराजा हरि सिंह जम्मू कश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य बनाना चाहते थे । इसके लिये सबसे पुख़्ता प्रमाण यही दिया जाता है कि वे १५ अगस्त १९४७ से पहले पहले , अन्य रियासतों की तरह देश की संघीय सांविधानिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं बने । एक दे जगह हरि सिंह ने स्वयं इस संभावना का ज़िक्र किया है , उसको आधार बना कर यह पक्के निष्कर्ष निकाल दिये गये हैं कि हरि सिंह का इरादा राज्य को आज़ाद रखने का था । लेकिन अभी तक कोईँ ऐसा कार्य हरि सिंह का ध्यान में नहीं आया है जिसके आधार पर कहा जा सके कि वे आज़ादी के लिये प्रयास कर रहे थे ।
ऐसा नहीं कि अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद भारतीय रियासतों के कुछ राजाओं के मन देश की नई संघीय सांविधानिक व्यवस्था में शामिल न होने की इच्छा न हो । कुछ शासक सचमुच ऐसा स्वप्न पाल रहे थे कि अब वे अपनी रियासत को स्वतंत्र देश या फिर राजनीति विज्ञान की भाषा में कहा जाये तो प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य में तब्दील कर सकते हैं । उनकी गतिविधियाँ इस का प्रमाण थीं । हैदराबाद रियासत का शासक इसका उदाहरण था । वे इंग्लैंड सरकार से निवेदन कर रहे थे कि हैदराबाद को भी डोमीनियन का दर्जा दे दिया जाये । वे इंग्लैंड में अपने राज्य का दूतावास खोलना चाह रहे थे । उन्होंने पाकिस्तान को वित्तीय रिन देना शुरु कर दिया । इसी प्रकार के प्रयास भोपाल नरेश कर रहे थे । त्रावनकोर कोचीन के शासक भी प्रत्यक्ष इसी ओर सक्रिय थे । इन्दौर नरेश कुछ दूसरे राजाओं के साथ मिल कर एक नया डोमीनियन खड़ा करने की दिशा में सक्रिय हो गये थे । त्रावनकोर नरेश ने अपनी रियासत को स्वतंत्र घोषित करके एक स्वतंत्र देश के अनुरूप व्यवहार करना भी शुरु कर दिया था । लेकिन जम्मू कश्मीर नरेश ने इस प्रकार का कोई प्रयास किया हो ऐसा प्रमाण नहीं मिलता । इसके बावजूद नेहरु के नेतृत्व में भारत सरकार उन पर यह आरोप लगाती रही कि वे जम्मू कश्मीर को भारत से अलग कोई आज़ाद देश बनाना चाहते थे । नेहरु जम्मू कश्मीर रियासत को देश में नई बन रही सांविधानिक व्यवस्था का हिस्सा बनाना नहीं चाहते थे और पाकिस्तान में हरि सिंह प्रलोभनों और दबाव के बाबजूद जाना नहीं चाहते थे , इसी बीच पन्द्रह अगस्त का दिन आ पहंुचा । पन्द्रह अगस्त से पहले ही अनेक रियासतें अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर चुकीं थीं , जिनको सरदार पटेल ने साम दाम दंड भेद की नीति का उपयोग करते हुये देश की संवैधानिक व्यवस्था में शामिल करवाया ।