20 जून 1949, जब शेख अब्दुल्ला-नेहरू ने मिलकर महाराजा हरि सिंह को जम्मू कश्मीर से निष्कासित करने की चाल चली और युवराज करण सिंह को राज-प्रतिनिधि नियुक्त करवाया #KnowTheHisotryOfJ&K
   20-जून-2019

 
अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद और भारतीय रियासतों का देश की नई सांविधानिक व्यवस्था में अधिमिलन हो जाने के बाद महाराजा हरि सिंह इतना तो समझ ही चुके थे कि इतिहास का रथ जिस दिशा में जा रहा है , उसे वापिस नहीं पलटा जा सकता । वैसे तो उन्होंने 1934 से ही रियासत में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली प्रारम्भ कर दी थी । राज्य में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई विधान सभा (प्रजा सभा) काम कर रही थी । लेकिन बदली परिस्थितियों में महाराजा को भी जनता का ही प्रतिनिधि होना होगा । महाराजा हरि सिंह ने भविष्य में लिखा पढ़ने के पश्चात् राज्य के आम लोगों में जाने का निर्णय कर लिया । नये निज़ाम में लोक की इच्छा ही सर्वोपरि होगी । उधर सरदार पटेल भी राज्य में भविष्य की इबारत को बख़ूबी पढ़ पा रहे थे । उन्होंने भी महाराजा हरि सिंह को यही सलाह दी । जन जन में प्रवास करो । भविष्य में आम जन ही निर्णय करेगा कि उसका शासक कौन हो ।
 
महाराजा हरि सिंह ने राज्य का प्रवास प्रारम्भ किया । जून जुलाई की तपती दोपहरियों में जनता से मिलने के लिये निकल पड़े । वे अपने विचार , अपने भविष्य के सपने , राज्य के विकास की बातें जम्मू कश्मीर की जनता से ही साँझे करेंगें । राजशाही का युग तो ख़त्म हो ही चुका था या फिर वह कुछ दिनों का ही मेहमान था । लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित हो रही थी । अब तक तो महाराजा गुलाब सिंह के वंशज होने के नाते सत्ता में थे , लेकिन अब वे रियासत के लोकमत को भी परख लेना चाहते थे ।
 
लेकिन अब महाराजा हरि सिंह राजशाही का अपना चोला उतार कर लोकतंत्र का पटका पहन कर इस मैदान में भी उतर आये थे । शेख़ अब्दुल्ला के लिये यह ख़तरे की घंटी थी । महाराजा के रियासत प्रवास से उसका लोकप्रियता का मुल्लमा उतर जाता और जल्दी ही यह भी निर्णय हो जाता कि राज्य की जनता किसके साथ है - शेख़ के साथ या हरि सिंह के साथ ? शेख़ इसी निर्णय से बचना चाहता था । क्योंकि यह शेख़ की पूरी योजना के लिये ख़तरे की घंटी थी । शेख़ ने इस मैदान में महाराजा का सामना करने की बजाए उन्हें राज्य से निष्कासित कर देने का ही षड्यंत्र रचना शुरु कर दिया । राज्य के राजप्रमुख को ही राज्य से निष्कासित करने का षड्यंत्र । यह महाराजा हरि सिंह के लिये अपमान की पराकाष्ठा थी । लेकिन शेख़ अब्दुल्ला इसके लिये बजिद थे और नेहरु इस खेल में उसके साथी थे, पर इसमें एक बाधा थी । उस बाधा को दूर किये बिना महाराजा हरि सिंह को रियासत से निष्कासित करना संभव नहीं था । जब तक महाराजा की गैरहाजिरी में उनका कोई रीजैंट यानि प्रतिनिधि न मिल जाये तब तक उनको रियासत से बाहर नहीं निकाला जा सकता था । यह रीजैंट या प्रतिनिधि उनका बेटा ही हो सकता था । महाराजा हरि सिंह का केवल एक ही बेटा था जिसका नाम कर्ण सिंह था है , और उसके पिता उसे टाइगर कहा करते थे ।
 
 
महाराजा हरि सिंह को सरदार पटेल का निमंत्रण मिला , जिसमें उन्होंने हरि सिंह, उनकी पत्नी महारानी और युवराज करण सिंह तीनों को बातचीत के लिये दिल्ली आने का सुझाव दिया था । अत: अप्रैल (१९४९) सब एक चार्टड विमान डी.सी-३ में नई दिल्ली के लिये रवाना हो गये।
 
दिल्ली में सरदार पटेल ने हरि सिंह को बहुत ही शालीनता से , लेकिन दो टूक लहजे में बता दिया कि शेख़ अब्दुल्ला उनके राज त्याग के बारे में बहुत ज़ोर दे रहे हैं । पर भारत सरकार यह महसूस करती है कि यदि वे और महारानी कुछ महीनों के लिये रियासत से अनुपस्थित रहें तो यही काफ़ी होगा । उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र में सक्रियता से उठाई माँग से उत्पन्न जटिलताओं को देखते हुये राष्ट्र हित में यह आवश्यक है । उन्होंने युवराज करण के बारे में कहा कि क्योंकि अब वो अमेरिका से लौट आया है , अत: पिता अपनी अनुपस्थिति में अपनी ज़िम्मेदारियों और कर्तव्यों को निभाने के लिये मुझे अपना रीजैंट नियुक्त कर दें ।"(आत्मकथा १२४)
 
बहुत बाद में हरि सिंह ने राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद को दिये गये एक ज्ञापन में इस षड्यन्त्र का उल्लेख भी किया । उन्हीं के शब्दों में--" Sheikh Abdullah and the men of his party took all power to themselves, ignored my existence and where they felt necessary, they got the consent of the Government of India to do what they liked in the State disregarding me and my wishes. This gradually led to a deterioration and to the outside world, the State and Sheikh Abdullah became convertible terms. The people of Kashmir were utterly ignored and everything that Sheikh Abdullah desired to do was done in the name of the State with the express or tacit consent of the Government of India. At this juncture on a suggestion from Sardar Patel, I and my wife began a tour of the State. This did not suit the books of Sheikh Abdullah. He approached the Government of India with the result that I was asked to stay out of the State for a few months. "
 
स्पष्ट है कि शेख़ अब्दुल्ला का असली कष्ट हरि सिंह द्वारा सरदार पटेल के सुझाव पर किया जा रहा रियासत का प्रवास ही था । लेकिन अब पटेल ही महाराजा को रियासत छोड़ने का सुझाव दे रहे थे ।
ज़ाहिर है कि सरदार पटेल के इस प्रस्ताव से महाराजा हरि सिंह को धक्का लगता । हरि सिंह खुद्दार और स्वाभिमानी व्यक्ति थे । "हार या असफलता से उन्हें सख़्त नफ़रत थी ।" (आत्मकथा ४६) सबसे बड़ी बात तो यह थी की रियासत छोड़ने का यह दो टूक आदेश उन्हें सरदार पटेल से मिल रहा था , जिन पर उन्हें गहरा विश्वास था । इससे भी बड़ी बात यह थी कि यह सज़ा उन्हें बिना किसी कारण के दी जा रही थी । अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्होंने वही किया था जिसकी सलाह सरदार पटेल ने उन्हें दी थी । लेकिन शेख़ अब्दुल्ला अब तक भारत सरकार को लगभग ब्लैकमेल करने की स्थिति में आ गया था और दिल्ली उसके आगे झुकने लगी थी । सबसे दुख की बात तो यह कि पंडित नेहरु पूरी स्थिति पर गुण दोष के आधार पर विचार नहीं कर रहे थे , बल्कि उनके निर्णय के पीछे कहीं न कहीं हरि सिंह के प्रति व्यक्तिगत विद्वेष भावना भी काम कर रही थी । इतना तो स्पष्ट था कि सरदार पटेल महाराजा हरि सिंह को केवल पंडित जवाहर लाल नेहरु का संदेश ही पहुँचा रहे थे । यह संदेश अकेले पंडित नेहरु का भी नहीं था । यह नेहरु और शेख़ अब्दुल्ला का संयुक्त संदेश था ।
 
 
भविष्य को धूमिल करने वाली यह पटकथा इन दोनों की मंत्रणा से उपजी थी । लेकिन नेहरु महाराजा से सीधे बातचीत करने का साहस शायद नहीं बटोर पा रहे थे । उनको लग रहा होगा कि महाराजा उनके इस असंवैधानिक प्रस्ताव को मानने से इंकार कर देंगे । इसलिये उन्होंने सरदार पटेल को संदेशवाहक के रुप में चुना । पटेल इतना तो जानते ही थे कि जम्मू कश्मीर का का मामला रियासती मंत्रालय से सम्बंधित होने के बावजूद प्रधानमंत्री नेहरु ने अपने पास रखा हुआ है और वे इसमें किसी तीसरे की दख़लंदाज़ी किसी भी क़ीमत पर सहन नहीं कर पाते । नेहरु-शेख़ अब्दुल्ला की इस योजना और सरदार पटेल के इस दो टूक आदेश के बावजूद शेख़ के षड्यंत्रों को परास्त करने का एक रास्ता अभी भी बचा हुआ था । प्रदेश के राज प्रमुख सांविधानिक मुखिया को , चाहे अस्थायी रुप से , चाहे किसी अन्य कारण से राज्य से बाहर नहीं भेजा जा सकता जब तक वह अपना रीजैंट या प्रतिनिधि नियुक्त न कर दे । यह रीजैंट महाराजा हरि सिंह का बेटा ही हो सकता था , क्योंकि प्रदेश में अभी राजशाही समाप्त नहीं हुई थी और न ही प्रादेशिक संविधान/विधान सभा के चुनाव हुये थे।

 
 
 
संकट की उस घड़ी में कर्ण सिंह ने अपने पिता के साथ खड़ा होने की बजाय अपने समय के 'महानतम नेताओं में से एक' नेहरु और शेख़ के साथ चले जाने का फ़ैसला किया । उन्होंने रीजैंट बनने के नेहरु और शेख़ अब्दुल्ला के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । महाराजा हरि सिंह के अपने टाइगर ने उन्हें ज़िन्दगी का सबसे गहरा घाव दिया , जो उनके जीवन के अन्तिम क्षणों तक रिसता रहा ।
विरोध के बावजूद कर्ण सिंह द्वारा रीजैंट बनने का प्रस्ताव स्वीकार कर लेने के बाद महाराजा हरि सिंह के लिये लगभग सभी विकल्प समाप्त हो गये थे । ।
 
बीस जून १९४९ का दिन जम्मू कश्मीर के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । महाराजा हरि सिंह ने लिखा----
 
"स्वास्थ्य कारणों से मैंने अल्पकालिक अवधि के लिये रियासत से बाहर जाने का निर्णय किया है । इस अवधि में रियासत की सरकार से सम्बंधित अपने सभी अधिकारों और कर्तव्यों की ज़िम्मेदारी मैं युवराज कर्ण सिंह जी बहादुर को सौंपता हूँ । अत:मैं निर्देश देता हूँ और घोषणा करता हूँ कि मेरी अनुपस्थिति के दौरान रियासत तथा उसकी सरकार से जुड़े मेरे सभी अधिकारों और कर्तव्यों को युवराज को सौंपा जाये । ये अधिकार और कर्तव्य , चाहे विधायक हों या कार्यकारी , सभी युवराज में निहित रहेंगे । विशेष रुप से क़ानून बनाने , घोषणापत्र , आदेश जारी करने , अपराधियों की सज़ाएँ माफ़ करने के विशेषाधिकार भी युवराज के पास ही रहेंगे । "
अपना राजपाट कर्ण सिंह को सौंप कर , महाराजा हरि सिंह उसकी रवानगी से पहले ही , अपने स्टाफ़ और नौकरों -चाकरों के साथ सुबह ही मुम्बई के लिये रवाना हो गये । उनका नया पता था- कश्मीर हाऊस, १९ नेपियन सी रोड , मुम्बई ।
 
महाराजा हरि सिंह के निष्कासन के इस पूरे प्रसंग का शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने इस प्रकार उल्लेख किया है । "यद्यपि महाराजा ने दबाव में आकर लोकतांत्रिक सरकार का गठन कर दिया था लेकिन अन्दर ही अन्दर वह ग़ुस्से से झाग उगल रहा था । जैसे ही उसे अवसर मिला , उसने हमारे प्रशासन में हस्तक्षेप करना शुरु कर दिया । उसने हमारे मंत्रिमंडल में कर्नल बलदेव सिंह पठानिया को बजीर-ए-हुज़ूर नियुक्त कर दिया , जिसे हमारे और उसके बीच सम्पर्क रखना था । लेकिन पठानिया कोई रचनात्मक भूमिका नहीं निभा पाया । परिणामस्वरूप हमारे और महाराजा के सम्बंध दिन प्रतिदिन तनावपूर्ण होते गये । तब मैंने केन्द्र को बता दिया कि हालात सुधारने का एक ही तरीक़ा है कि महाराजा को निष्कासित कर दिया जाये । यद्यपि महाराजा को पटेल का समर्थन हासिल था , लेकिन केन्द्र हमारी अवहेलना करने की स्थिति में नहीं था । इसलिये हरि सिंह को मुम्बई जाना पड़ा । लेकिन आयंगर ने पटेल को ख़ुश करने का एक तरीक़ा ढूँढ लिया । उसने कर्ण सिंह को , राज्य का संवैधानिक मुखिया नियुक्त करवा दिया । हमने जवाहर लाल के आग्रह पर इस नियुक्ति को स्वीकार कर लिया । इस पर भी जब हरि सिंह राज्य छोड़ रहा था तो उसने पटेल को लिखा कि 'मैं तीन या चार महीने के लिये बाहर जा रहा हूँ । इसे मेरे निष्कासन की भूमिका न समझ लिया जाये ।'लेकिन उसकी इस रवानगी से उसके शासन का अन्त हो गया ।