जुलाई 1931, शेख अब्दुल्ला के देशविरोधी और विभाजनकारी राजनीतिक उदय का इतिहास, शेख के अलगाववाद में साथी थे अंग्रेज़ और कांग्रेस
   10-जुलाई-2019
 
 
 
सर सैयद अहमद खान ने 1875 में मदरसातुल ऊलूम मुसलमान-ए-हिंद के नाम से अलीगढ़ में एक शिक्षा संस्थान खोला, जो कालांतर में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अरब संस्कृति की पहचान का प्रतीक खजूर का पौधा विश्वविद्यालय के प्रतीक चिह्न के रूप में इस्तेमाल किया गया। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद सल्तनत-ए-इंगलिशिया भी चाहने लगी थी कि भारत के मुसलमान भारत की मुख्य सांस्कृतिक धारा से टूटकर अपनी अलग पहचान विकसित करें, ताकि बाद में वक्तबेवक्त उनका अंग्रेजों के हितों के लिए उपयोग किया जा सके। मतांतरित मुसलमानों में यह भावना भरी जाए कि उनका भारतीय राष्ट्र से कोई भावात्मक संबंध नहीं है, बल्कि वे एक अलग राष्ट्र हैं। इस प्रकार का मुसलिम नेतृत्व तैयार करने में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय बेहतरीन माध्यम हो सकता था। इस पृष्ठभूमि में अलीगढ़ विश्वविद्यालय धीरे-धीरे द्विराष्ट्र सिद्धांत का बहुत बड़ा केंद्र बन गया।
 
 
इसने मतांतरित भारतीय मुसलमानों को मानसिक रूप से अरब मूल के सैयदों का बौद्धिक नेतृत्व स्वीकारने के लिए तैयार किया। कश्मीर घाटी से भी बहुत से नौजवान, जिनकी पढ़ने में रुचि थी, नजदीक के पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर को छोड़कर अलीगढ़ की ओर भागने लगे। कश्मीरी युवकों का एक बहुत बड़ा केंद्र अलीगढ़ विश्वविद्यालय के परिसर में पनपने लगा। उन बहुत से नौजवानों में श्रीनगर से कुछ दूर स्थित सौरा गाँव के मोहम्मद अब्दुल्ला भी थे, जो घाटी से अलीगढ़ में रसायनशास्त्र की पढ़ाई करने गए थे। अलीगढ़ से लौटे हुए ऐसे अनेक नौजवानों ने श्रीनगर में गपशप के लिए नियमित उठना-बैठना शुरू किया। बाद में गपशप का यही अड्डा फतहकदल रीडिंग रूम पार्टी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
 
 
 
इस दौरान 14 अक्टूबर 1925 के बाद से ही अंग्रेज रेज़ीडेंट प्रतिनिधि के जरिये जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को काबू करने में नाकाम रहे थे। लेकिन महाराजा हरि सिंह कई मामलों में अंग्रेजों की नीतियों का विरोध करते रहे थे, उनकी सलाह लेना तो दूर महाराजा ने अंग्रेजों से मुक्ति का आंदोलन छेड़ दिया था और राज्य में अंग्रेजों के राजनीतिक दखल को भी धीरे-धीरे खत्म करते जा रहे थे। दक्षिण एशिया में वर्चस्व और सोवियत संघ को रोकने के लिए विशेष भौगोलिक स्थिति के चलते जम्मू कश्मीर पर अंग्रेजों का कब्जा होना बेहद जरूरी थी। लिहाजा अपने ग्रेट गेम में कामयाबी हासिल करने के लिए अंग्रेजों ने भारत के पश्चिमोत्तर का इतिहास बदलकर रख दिया। इसी ग्रेट गेम के कारण पाकिस्तान और इसी के कारण अभी तक जम्मू-कश्मीर सुलग रहा है।
 
 
 
1930 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों से बात करने के लिए गोलमेज सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में ब्रिटिश इंडिया और रियासतों का एक संघ बनाने की भी चर्चा होनी थी। लंदन में आयोजित इस सम्मेलन का प्रतिनिधित्व करते हुए, भारतीय राजाओं महाराजाओं के प्रतिनिधि महाराजा हरि सिंह ने अंग्रेजों का जवाब देते हुए कहा कि- ब्रिटिश सरकार के मित्र के नाते हम आपके साथ हैं, लेकिन भारतीय होने के नाते हम सभी अपनी मातृभूमि, जिसने हमें जन्म दिया और हमारा पालन-पोषण किया, के प्रति निष्ठावान हैं। हम अपने समस्त देशवासियों के साथ, ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में अपने देश की सम्मानजनक एवं समान स्थिति की माँग के पक्ष में मजबूती से खड़े हैं।
 
 
महाराजा के इस विषय पर लिए गए रुख ने ब्रिटिश सरकार को चौकन्ना कर दिया था। सम्मेलन में दिए गए भाषण से ब्रिटिश सरकार नाराज ही नहीं हुई, बल्कि हरि सिंह को लेकर अतिरिक्त चौकन्नी भी हो गई। इसी चर्चा पर उन्होंने दूसरा भाषण 15 जनवरी, 1931 को दिया। इसमें हरि सिंह ने कहा, '' हमारी मातृभूमि निराशाजनक तरीके से दो अलग-अलग राजनैतिक व्यवस्थाओं में विभक्त है। दोनों इकाइयाँ एक-दूसरे से अलग रहकर काम करती हैं। प्रस्तावित फेडरेशन से हमारे देश की एकता सुनिश्चित हो जाएगी।'' दरअसल अपने इन दो भाषणों में ही महाराजा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति अपने दृष्टिकोण एवं भविष्य की नीति की घोषणा कर दी थी।
 
 
 
इस सम्मेलन के बाद ब्रिटिश सरकार ने महाराजा हरि सिंह को रास्ते से हटाने का षड़यंत्र शुरू कर दिया। जिसको अमलीजामा पहनाया जम्मू कश्मीर में महाराजा हरि सिंह के राजनीतिक और पीडब्ल्यूडी मंत्री जी. ई. सी. वेकफील्ड। जोकि 1929 से 1931 तक महाराजा के प्रधानमंत्री भी रहे थे। जी. ई. सी. वेकफील्ड ने अपने इस काम के लिए मुस्लिम नेतृत्व को उभारना शुरू किया और राज्य में मुस्लिमों को डोगरा रूल के खिलाफ भड़काने के लिए काम करने लगे। इसी कड़ी में जी. ई. सी. वेकफील्ड ने शेख अब्दुल्ला को तराशना शुरू किया।
 
 
 
ऐसा माना जाता है कि शेख अब्दुल्ला आर उसकी रीडिंग रूम पार्टी द्वारा चलाया जानेवाला यह आंदोलन परोक्ष रूप में इस दूरगामी ब्रिटिश नौति का ही अंग था। महाराजा हरि सिंह के युरोप प्रवास के दौरान रियासत के प्रशासन का व्यावहारिक तौर पर मुखिया जी.ई.सी. वेकफील्ड था। ‘‘वेकफील्ड ने श्रीनगर में पढ़े-लिखे युवा मुसलमानों, जो फतहकदल की रीडिंग रूम पार्टी के तौर पर जाने जाते थे, को राज्य सरकार की नौकरियों में मुसलमानों को ज्यादा हिस्सा देने की माँग करने । के लिए प्रोत्साहित किया। उसी समय वेकफील्ड और ब्रिटिश रेजीडेंट, दोनों की प्रेरणा से ऐसा ही एक आंदोलन जम्मू में भी शुरू किया गया। शेख अब्दुल्ला कश्मीर में मुसलिम सांप्रदायिकता के नेता बन गए। उधर जम्मू में चौधरी गुलाम अब्बास मुसलिम सांप्रदायिकता के नेता स्थापित किए गए।'' अगले कुछ महीनों में जम्मू और कश्मीर दोनों ही क्षेत्रों में महाराजा हरि सिंह के खिलाफ हिंसक मुस्लिम विरोध शुरू हो गया। जिसके नतीजे में 13 जुलाई 1931 को श्रीनगर जेल के बाहर हजारों मुस्लिमों की भीड़ ने जेल पर हमला बोल दिया, जोकि जेल में बंद अब्दुल कादिर को छुड़ाना चाहते थे। भीड़ के हमले को रोकने के लिए प्रशासन ने हल्का बल प्रयोग किया। जिसमें 10 हिंसक प्रदर्शनकारियों की जान चली गयी। इसके विरोध में हिंसक प्रदर्शनकारियों ने श्रीनगर की हिंदू इलाकों और बाज़ारों में दंगा किया। जिसमें हिंदूओं की दुकानें लूट ली गयीं और कईं कश्मीरी हिंदूओं की जान गयीं।
 
 
 
श्रीनगर में सांप्रदायिक दंगे सुलगने के बाद महाराजा हरि सिंह ने इन्हें दबाने में कामयाबी तो पायी। लेकिन दंगों के बहाने शेख अब्दुल्ला एक मुस्लिम नेता के तौर पर उभर चुका था।
 
 

 
 
 
मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में फूट ऑर नेशनल कान्फ्रेंस का उदय
 
 
अगस्त, 1936 तक आते-आते मुसलिम कॉन्फ्रेंस ने रियासत में निर्वाचित सरकार की स्थापना की माँग शुरू कर दी, जिसमें महाराजा रियासत के केवल संवैधानिक अधिकार होंगे और शेष शक्तियाँ निर्वाचित सदन के पास आ जाएँ लेकिन कालांतर में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में ही फूट पड़ गई और एक ग्रुप ने 11 जून, 1939 को नई पार्टी का निर्माण कर लिया, जिसका नाम नेशनल कॉन्फ्रेंस रखा गया। इसके अध्यक्ष शेख मोहम्मद अब्दुल्ला बने।
 
 
 
दरअसल कश्मीर के बारे में शेख की राय थी कि, ''वह कभी भी भौगोलिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक लिहाज से भारत का हिस्सा नहीं रहा। इसके लिए वे ताराचंद नाम के इतिहासकार की गवाही देते हैं। मुसलिम कॉन्फ्रेंस का व्यावहारिक नेतृत्व जम्मू के मुसलमानों के पास था। इसके कारण घाटी का आम मुसलमान इस पार्टी से जुड़ नहीं रहा था। इसलिए शेख अब्दुल्ला ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के नाम से अपनी अलग पार्टी का गठन कर लिया। चाहे नाम इसका भी जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस ही रखा गया, लेकिन इसका दायरा मोटे तौर पर कश्मीर घाटी तक ही सीमित था। नेशनल कॉन्फ्रेंस स्वयं भी अपने संबोधन में अपने आपको घाटी के लोगों का प्रतिनिधि मानती थी। जम्मू, लद्दाख, गिलगित और वल्तीस्तान उसके एजेंडा में नहीं थे। इसीलिए पार्टी ने अपने आंदोलनों का आधार 1846 की अमृतसर संधि को बनाया था। अमृतसर संधि का गिलगित, लद्दाख और बल्तिस्तान से कोई दूर का संबंध नहीं है।
 
 
 
नेशनल कॉन्फ्रेंस का कश्मीर छोड़ो अभियान
 
 
 
1939 में नेशनल कॉन्फ्रेंस के गठन के बाद से शेख अब्दुल्ला ने महाराजा सिंह के खिलाफ नया आंदोलन शुरू किया। ऊपर से चाहे यह आंदोलन पंथ नि दिखाई देता था, लेकिन कहीं गहराई में यह कालांतर में ब्रिटिश हितों की पूर्ति करनेवा था। यह चरण पहले चरण से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि इसी चरण में जम्मू के मुसलमानों का, घाटी के शहरी और ग्रामीण विवाद से परे अपना अलग संसार था। दरअसल रियासत में यदि भेदभाव था तो वह क्षेत्रीय आधार पर हो सकता था न कि मजहब के आधार पर। जम्मू संभाग के हिंदू-मुसलमान दोनों को ही सेना में भरती किया जाता था। इसके विपरीत कश्मीर संभाग से हिंदू-मुसलमान दोनों को ही। सेना में भरती किए जाने की मनाही थी। जम्मू के मुसलमानों पर पंजाब का ज्यादा प्रभाव था। सांस्कृतिक लिहाज से भी वे पंजाब के ज्यादा नजदीक थे। इस सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर ही जम्मू के मुसलमानों के हाथ मुसलिम कॉन्फ्रेंस लगी, जो मुसलिम लीग का ही रूपांतरण था। श्रीनगर के मुसलमानों के हाथ आई बकरा पार्टी और घाटी के कश्मीरी भाषा बोलनेवाले देहाती मुसलमानों की पार्टी बनी नेशनल कॉन्फ्रेंस यानी शेर पार्टी, लेकिन कुल मिलाकर यह सारा राजनैतिक आंदोलन एक प्रकार से मुसलिम आंदोलन ही था। इस आंदोलन ने शुरू से ही अपनी मुसलिम पहचान बना ली थी, क्योंकि इनकी माँगे जम्मू-कश्मीर के संपूर्ण अवाम के अधिकारों को लेकर नहीं था बल्कि मुसलमानों की माँगों को ही थीं। कालांतर में इस आंदोलन का स्वरूप हि । विरोधी होने लगा। उसका लेकर मुख्य कारण यह भी था कि रियासत के महाराजा हिंदू था।
 
 
 
 
 
1946 आते-आते सिर्फ रियासत भविष्य का ही नहीं, बल्कि इसके साथ ही भारत के भविष्य का निर्णय होने वाला था। भारत की प्राकृतिक सीमा से छेड़-छाड़कर उसे नए सिरे से निर्धारित किया जा रहा था। 1946 में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 'डोगरो कश्मीर छोड़ो' का नारा देकर पूरे आंदोलन को नया आयाम दिया, लेकिन इस बार डोगरा शासन के खिलाफ यह आंदोलन किन्हीं प्रशासन संबंधी समस्याओं या जन समस्याओं को लेकर नहीं चलाया गया था, बल्कि 1846 की अमृतसर संधि को निरस्त करने के लिए चलाया गया था। शेख अब्दुल्ला की माँग 1846 की संधि रद्द करने को लेकर थी। इस संधि को रद्द करने के लिए माहौल बनाया जाने लगा। डॉ. मोहम्मद इकबाल ने अमृतसर की संधि को लेकर तराने लिखे थे, जिसे शेख अब्दुल्ला कश्मीर घाटी में गाते फिरते थे। अमृतसर संधि को रद्द करने का अर्थ था कि कश्मीर घाटी फिर से ब्रिटिश सरकार के पास आ जाती। ऐसा हो जाने पर कश्मीर घाटी ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा बन जाती और मुसलमान बहुलता के सिद्धांत को बहाना बनाकर उसे भारत स्वतंत्रता अधिनियम में पाकिस्तान को दिए जानेवाले इलाकों में शामिल किया जा सकता था। यह आंदोलन भारत की शेष रियासतों में चलाए जानेवाले प्रजा मंडल आंदोलनों से अलग किस्म का था। वहाँ आंदोलन रियासतों के शासकों को हटाने को लेकर था, लेकिन जम्मू-कश्मीर में आंदोलनकारी शासक को रियासत के केवल एक हिस्से से चले जाने के लिए रहे थे। उसका कारण भी केवल इतना ही बताया जा रहा था कि महाराजा हिंदू था। यह पूरी रियासत से राजशाही आंदोलन को समाप्त किए जाने के लिए नहीं था।"
 
 
आंदोलन नारा ही डोगरो कश्मीर छोड़ो था। यह आंदोलन अपने मूल स्वरूप में आंदोलन था और शेख अब्दुल्ला इस स्वरूप को कभी छिपाते भी नहीं थे। या प्रजहब के नाम पर रियासत के विभिन्न समुदायों को बाँटकर चलाया जाने वाला ये आंदोलन अपने मूल स्वरूप में जन विरोधी तो था ही, लेकिन उस समय वातावरण में सांप्रदायिक हिंसा को भड़कानेवाला भी था। |लेकिन दुर्भाग्य से इस चरण में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी महाराजा हरि सिंह के साथ खड़े न होकर शेख अब्दुल्ला के समर्थन में जा खडी हई । कांग्रेस ने अन्य रियासतों की आंतरिक राजनीति में अहस्तक्षेप की नीति अपनाई हुई थी, लेकिन जम्मू-कश्मीर को । उसने इस मामले में अपवाद माना। इसका एक कारण शायद यह भी हो सकता है कि कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर में मुसलिम कॉन्फ्रेंस और नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन को अन्य रियासतों में राजशाही के खिलाफ चलाए जा रहे प्रजा मंडलों के आंदोलनों के समान ही समझा। यह कांग्रेस की भारी भूल थी। | शेख अब्दुल्ला गिरफ्तार कर लिये गए और उन पर मुकदमा चला, लेकिन सभी को आश्चर्य हुआ, जब इस पूरे मामले में दिल्ली से पंडित जवाहर लाल नेहरू इस मामले में कूद पड़े। उन्होंने शेख अब्दुल्ला के पक्ष में श्रीनगर में आने की घोषणा कर दी, यहाँ तक कि उनकी अपनी पार्टी भारतीय नेशनल कांग्रेस भी इस पक्ष में नहीं थी। नेहरू के इस व्यवहार से रियासत में सांप्रदायिक दंगे भड़क सकते थे, लेकिन शेख अब्दुल्ला के मुकदमे की पैरवी के नाम पर पंडित जवाहर लाल नेहरू श्रीनगर के लिए चल पड़े। उस समय रियासत में जिस प्रकार का उत्तेजक वातावरण था, उसमें नेहरू के आने से। हालात बिगड़ सकते थे। अत: प्रशासन ने उन्हें कोहाला के पास एक सरकारी गेस्ट हाउस में ठहराकर आगे जाने की अनुमति नहीं दी। उन दिनों अंग्रेजी राज की समाप्ति की कार्यविधि पर दिल्ली में निरंतर विचार-विमर्श हो रहा था। कांग्रेस में उनके साथी उनके इस प्रकार अचानक श्रीनगर जाने के निर्णय पर हैरान थे। उन्होंने उन्हें तुरंत वापस दिल्ली आने के लिए कहा। अत: नेहरू उस राजकीय अतिथि गृह से ही वापस दिल्ली चले गए। बाद में जल्दी ही वे पुनः श्रीनगर गए और जेल में शेख अब्दुल्ला को मिले, लेकिन शेख अब्दुल्ला न्यायालय में हार गए और उनको इस मुकदमे में सजा हो गई। कालांतर में नेहरू ने इस घटना को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और महाराजा हरि सिंह के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। 
 
 
  
जिसके नतीजे में जम्मू कश्मीर के अधिमिलन के समय नेहरू ने महाराजा हरि सिंह को जेल में बंद शेख अब्दुल्ला को बाहर निकाल सत्ता सौंपने के लिए मज़बूर किया। नतीजा ये हुआ कि लगभग 20 सालों की साजिश के बाद जम्मू कश्मीर शेख अब्दुल्ला के हाथों में आ चुका था।