17 जुलाई 1927, जयंती विशेष, प्रजा परिषद् आंदोलन के सिपाही और साक्षी रहे वरिष्ठ पत्रकार गोपाल सच्चर के संघर्ष की कहानी
   17-जुलाई-2019
 
 
 
गोपाल सच्चर जी का जन्म 17.7.1927 को हुआ था। गोपाल सच्चर उन चंद महान शख्सियतों में से एक हैं, जिन्होंने आजादी के बाद पहले राष्ट्रवादी आंदोलन में हिस्सा लिया और उसके साक्षी बने। गोपाल सच्चर जम्मू कश्मीर के जाने-माने पत्रकार रहे हैं। लेकिन उनके संघर्ष की शुरूआत हुई पंडित प्रेमनाथ डोगरा के विश्वस्त सहायक के रूप में। वर्ष 1949 के आरंभ में रघुनाथ पुरा में वरिष्ठ प्रजा परिषद नेताओं के संपर्क में आए। उन्होंने जम्मू में अपने रहने की जगह को छिपने के ठिकाने के रूप में इस्तेमाल किया। उन्हें हाथ से लिखे (cyclostyle) दीवार पोस्टर तैयार करने का काम दिया गया। जिसे लोकवाणी और आकाशवाणी के नाम से जाना जाता था। उन्हें तीन बार गिरफ्तार करके जेल में डाला गया परंतु 1949 के सत्याग्रह के दौरान उन्हें बुरी तरह पीटा गया तथा इसके पश्चात उन्हें डराने के लिए केन्द्रीय कारागृह, जम्मू में मौत की सजा पाने वाले कैदियों के लिए बनी एकांत कोठरी में रखा गया। उन्होंने लगभग 3 महीने तक भयावह परिस्थितियों को झेला। वर्ष 1949 के अक्तूबर महीने के आरंभ में आंदोलन के समाप्त होते ही वह रिहा कर दिए गए, परंतु उन्हें अपनी सरकारी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। 1952-53 के आंदोलन में उन्हें प्रचार संबंधी कार्यों का गुप्त रुप में छ: महीनों तक संचालन करने का जिम्मा सौंपा गया।
 
 
 
उन्हें तीन अन्य के साथ अपराधी घोषित किया गया। फरवरी 1953 में उन्हें अपने रहने, छिपने के ठिकाने से गिरफ्तार करके जबरन योगी गेट श्मशान घाट की और पास के एक एकांत कमरे में रखा गया। उस समय की तत्काल पुलिस लाइन भी योगी गेट के समीप थी। | एक सप्ताह के पश्चात तीन अन्य लोगों के साथ उन्हें श्रीनगर जे जाने का प्रयास किया गया। परंतु पीठ पीछे हाथों के बाँधे जाने के बावजूद वह लगातार दो दिन श्रीनगर जाने का प्रतिरोध करते रहे। डूकोटा जहाज के पाइलट ने इन खतरनाक सवारियों को श्रीनगर ले जाने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरुप गुस्साए पुलिस वालों ने उन्हें गुम्मट गेट जम्मू के समीप स्थित पुलिस स्टेशन के गंदे लॉक-अप में बंद कर दिया। "युवा लडका जहाज से नीचे कूद गया” इस अफवाह के फैल जाने के साथ ही लोग भारी मात्रा में उन्हें देखने के लिए एकत्रित होने लगे।
 
 
कुछ घंटों पश्चात उन्हें इस पुलिस स्टेशन से निकालकर दोबारा लाइन के एकांत डाल दिया गया जहाँ वह पहले से ही कैद कर रखे गए थे। अप्रैल के तीसरे सप्ताह से सुरक्षा कर्मियों से लैस जीप में उन्हें श्रीनगर जेल ले जाया गया। उनके दोनों हाथों को बाँध श्रीनगर पहुँचते ही उनके हाथों को कमर के पीछे बाँध दिया गया।
 
 
उन्हें श्रीनगर जेल में, जेल के मुख्य लोहे के गेट (मुख्यद्वार) वाले कुक्कड़ खाने में रखा गया था, जहाँ पहले से ही प्रजापरिषद् के नेता श्री कौशल और उनके सहयोगी कटरा वैष्णो देवी के श्री फकीर चंद जी को रखा गया था। यह कुक्कड़ (मुर्गी) खाना कारागृह अधिकारियों के लिए मुर्गे-मुर्गियों के पालन हेतु बनाया गया था। परंतु कारागृह के भीतर उत्पन्न परिस्थितियों से कहीं बेहतर माना जाता था। स्पष्ट था कि गोपाल जी को अत्यंत कष्ट देने के लिए ऐसा किया गया था। ताकि कारागृह के भीतर कोई भी परेशानी उत्पन्न न हो। 12 मई 1953 को जब डा. एस.पी मुखर्जी जी को गिरफ्तार श्रीनगर लाया गया तब इन तीनों को जनाना खाना (महिलाओं के लिए बनाया अलग स्थान) में स्थानांतरित कर दिया गया, जहाँ पर गिरफ्तार की गई या दोषी ठहराई जाने वाली महिलाओं के ठहरने का स्थान था। इस स्थान में पहले से ही लगभग 25 अन्य प्रजा परिषद् कार्यकर्ताओं को रखा गया था।
 
 
 
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की संदिग्ध मृत्यू के बाद सभी सत्यग्रहियों और अन्य कार्यकर्ताओं को जम्मू वापस लाया गया और जुलाई के पहले सप्ताह में आंदोलन को अंत में रिहा कर दिया गया। सच्चर जी के लिए रोजगार की समस्या थी परंतु पंडित जी के सुझाव पर उन्हें प्रजा परिषद् कार्यालय में विभिन्न दायित्व सौंपे गए विशेष रुप से प्रचार कार्य। उन्होंने पार्टी के विभिन्न अंगों जैसे "जय स्वदेश, स्वदेश और दीपक" सभी उर्दू, हिंदी सप्ताहिक पत्रिकाओं में संपादक सहित विभिन्न क्षमताओं पर कार्य किए। परंतु 1972 में पंडित जी के निधन के कुछ माह पश्चात् उन्होंने पार्टी का नाम छोड़ कर एक स्वतंत्र पत्रकार का काम संभालते हुए कई समाचार पत्रों: दो समाचार संस्थाओं जिनमें हिंदुस्तान समाचार (युगवार्ता) सम्मिलित हैं और 1984 से लेकर 2001 तक यू.एन.आई में सहायक के रुप में कार्य किया और उनके लिए लिखते रहते हैं।
 
 
 
 
 
नब्बे के अधिक की उम्र में भी वह अभी तक कुछ समाचार पत्रों से जुड़े हुए है। नेशनल कांफ्रेंस की बाईबिल नया कश्मीर में बोलने की स्वतंत्रता के साथ-साथ, प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने की वचनबद्दता और प्रतिबद्धता के बावजूद एक समाचार पत्र को प्रकाशित करना कितना मुश्किल था इसका अंदाजा (आंकलन) जय स्वदेश के संपादक द्वारा 13 सितंबर 1955 में अपने प्रथम साप्ताहिक संपादकीय की सूची में सूचीबद्द किया है कि आंदोलनों का सहारा लेने के पश्चात भी इसके प्रकाशन की अनुमति लेने के लिए कितना समय लगा।
 
 
 

 
 
 
 
पार्टी में मुखपत्र उर्दू सप्ताहिक "द स्वदेश” को प्रारंभ करते हो अध्यक्ष के रूप में पंडित प्रेमनाथ डोगरा द्वारा निम्नलिखित टिप्पणियां की गयीं-
 
 
"इसमें कोई संदेह नहीं है कि सच्चे राष्ट्रवाद का मार्ग, जिसे हमने अपनाया है। बहुत लंबा और जटिल है परंतु अंततः विजय हमारी ही होगी।"
वामपंथियों के इस आरोप का उपहास उड़ाते हुए कि प्रजा परिषद् श्रमिक वर्गों का शोशण करने की कोशिश कर रही हैं पंडित जी ने कहा किः
 
 
“हम लोगों को राम और रोटी दोनों देना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि शांति के लिए अपनी आस्था के अनुसार काम करें और समृद्ध जीवन यापन के लिए। कमाने का भी काम करें।
 
 
1957 में जब पहली विधान सभा के चुनाव हुए तो पार्टी ने पाँच सीटों पर कब्जा कर लिया। चुनाव परिणामों ने नेशनल कांफ्रेंस पार्टी के क्रोध एवं विरोध को भड़काया, चुनावों में धांधली की और परिणामों में हेरफेर किया ताकि उसे बहुमत मिल सके। उन्होंने सरकार पर अनुचित, संगीन और कुप्रबंधन का आरोप लगाया। ऐसे ही समस्याएँ, बैठकें और रैलियाँ आयोजित करने के समय भी, उत्पन्न की जाती रहीं।
 
 
1959 में प्रजा परिषद ने 2, 3 और 4 अप्रैल को अपनी वार्षिक बैठक आयोजित की, परंतु लाउडस्पीकर और शासन के उपयोग की अनुमति के लिए, आयोजन समिति के प्रमुख श्री श्याम लाल शर्मा को तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री गुलाम मोहम्मद बख्शी से बार-बार मिलना पड़ा। 1962 में प्रजा परिषद् ने विधान सभा की तीन सीटों पर कब्जा कर लिया और 1964 में भारतीय जनसंघ में पार्टी (प्रजापरिषद्) का विलय हो गया।