23 से 27 जुलाई, 1946 के बीच नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से कई बार मुलाकात की, यहीं से जम्मू कश्मीर में समस्या की शुरुआत हुई
   25-जुलाई-2019

 
शेख अब्दुल्ला मई 1946 में श्रीनगर की मस्जिदों का उपयोग साम्प्रदायिक भाषणों के लिए कर रहे थे। धर्म के आधार पर हिंदुओं के खिलाफ मुसलमानों को तैयार किया जा रहा था। महाराजा हरि सिंह ने शेख समझाने और शांतिपूर्वक समाधान के प्रयास किये। जबकि शेख लगातार कट्टर इस्लामिक भाषणों के माध्यम से अपने समर्थकों को पत्थरबाज़ी और उत्पात मचाने के लिए उकसाते रहे। आखिरकार 20 मई, 1946 को राज्य सरकार ने शेख को नजरबंद कर दिया।
 
 
इस दिन शायद किसी को अंदाजा नहीं था कि राज्य में शांति की यह औपचारिक कोशिश महाराजा का नाम इतिहास से लगभग मिटा देगी। शेख अब्दुल्ला, जो पिछले दो दशकों से साम्प्रदायिक दंगे और धार्मिक उन्माद फैला रहे थे, जम्मू-कश्मीर की कमान उनके हाथों में आ जायेगी। जवाहरलाल नेहरू का उतावलापन इस रियासत को भविष्य में आतंकवाद और अलगाववाद की ओर धकेल देगा।
 
शेख की गिरफ्तारी के बाद प्रशासनिक स्थिति नियंत्रण में थी। महाराजा राज्य की जनता से सीधे संवाद कर रहे थे। उन्होंने 30 मई को नागरिकों और अधिकारियों को धन्यवाद सन्देश भी भेजा। शांति और सामाजिक समरसता फिर से स्थापित हो गयी थी कि दिल्ली में नेहरू ने महाराजा के खिलाफ गलत बयानबाज़ी शुरू कर दी। सार्वजनिक तौर पर उन्होंने शेख की गिरफ्तारी पर महाराजा को परिणाम भुगतने की धमकी तक दी।
 
 

 
नेहरू एकदम अधीर हो गए थे। उन्होंने 14 जून को महाराजा को सूचना भेजी कि 19 जून को वे जम्मू-कश्मीर आ रहे हैं। राज्य में तनाव के बाद सामान्य जन-जीवन वापस लौट रहा था। नेहरू की यह यात्रा राज्य सरकार के लिए चुनौती बन सकती थी। सावधानी के तौर पर महाराजा ने उन्हें रोकने के लिए भारत के वायसराय को पत्र लिखा।
 
पूरा देश स्वतंत्रता को आखिरी और निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था। अधिकतर नेताओं का ध्यान ब्रिटिश कैबिनेट मिशन पर था। ऐसे महत्वपूर्ण दौर में नेहरू ने शेख के लिए समय निकाल लिया था। अपनी यात्रा की तैयारियों में भी उन्होंने वक्त की कोई चिंता नहीं की। वे तय दिन यानि 19 जून को नेशनल एयरवेज के हवाईजहाज से दिल्ली से लाहौर गए। वहां नाश्ता करने के बाद इसी जहाज से रावलपिंडी पहुंचे। आगे की यात्रा उन्होंने कार से की। एक अपराधी को बचाने के लिए देश के संसाधनों और समय दोनों का यह गैरजरूरी इस्तेमाल था।
 
 
इस दिन की शाम तक कोहला पहुंच गए। यह गाँव जम्मू-कश्मीर और पंजाब की सीमा पर झेलम नदी के किनारे बसा है। इस यात्रा में आसफ अली, दीवान चमनलाल, बलदेव सहाय, मोहम्मद युनुस खान, वी. आनंद सिन्हा, बक्शी राम और ताजम्मल हुसैन शामिल थे। यहां कश्मीर के जिला मजिस्ट्रेट ने सुरक्षा कारणों से उन्हें रियासत में प्रवेश न करने का नोटिस दिया। शेख की न्यायिक सहायता के लिए वकीलों का दल पहले ही दिल्ली से श्रीनगर पहुँच गया था। बलदेव सहाय वहां मौजूद थे, जबकि आसफ अली और दीवान चमनलाल को प्रवेश की इजाजत दी गयी थी। इसलिए इसमें कोई दो राय नहीं है कि राज्य सरकार शेख की निष्पक्ष सुनवाई के लिए तैयार थी।
  
 
वी. आनंद सिन्हा लिखते है, "इस मौके पर कुछ कश्मीरी पंडितों ने नेहरू को बताया कि कश्मीर आंदोलन पर उन्हें गुमराह किया गया है। इसके बाद मैंने (सिन्हा) ने जवाहरलाल को उग्र होते हुए देखा। उन्होंने हिंसक रूप से फर्श पर अपने पैरों को पटका और उन्हें (कश्मीरी पंडितों) को बताया कि एक दिन कश्मीर के महाराजा को पश्चाताप करना होगा और उनसे माफी मांगनी होगी।"
 
महाराजा के लिए एक झूठ कहा जाता है कि नेहरू को गिरफ्तार किया गया था। यह तथ्य एकदम निराधार है। नेहरू अपनी मर्जी से रियासत के अंदर तक गए थे। उन्हें किसी पुलिस अधिकारी ने रोका नहीं था। इस दल ने एक रात डोमेल के डाक बंगले में बितायी। जोकि रियासत के अन्दर का एक गाँव था। पूरे प्रकरण में महाराजा ने बेहद समझदारी और धैर्यता से काम लिया। रियासत की तरफ से वक्तव्य जारी किया गया कि 'नेहरू को नजरबन्द करने की कोई इच्छा नहीं है। वे जब चाहे ब्रिटिश इंडिया लौट सकते है।'
 

 
 
डोमेल से नेहरू ने 22 जून को महाराजा को एक पत्र लिखा, "यह मेरा आखिरी पत्र है।" इसके बाद के दस्तावेज बताते है कि उन्होंने कभी हरि सिंह से संपर्क नहीं किया। इस एक साधारण मामले में उन्होंने व्यक्तिगत अहम को अपने ऊपर हावी होने दिया। देश के सामने विभाजन, संविधान सभा, रियासतों का अधिमिलन, ब्रिटिश सरकार से बातचीत और मुस्लिम लीग की जिद्द जैसे मसलें थे। फिर भी नेहरू के दिमाग में शेख का जुनून सवार हो गया था। दीवान चमनलाल को 27 जून को एक पत्र लिखा, "मेरे दिमाग में सिर्फ कश्मीर है।" विडंबना देखिए कि जवाहरलाल नेहरू ने निधन 27 मई, 1964 को हुआ। साल 1946 से लेकर अंतिम सांस तक उन्होंने जम्मू-कश्मीर पर एक बाद एक गलत निर्णय लिए। जिसका परिणाम यह राज्य आज तक भुगत रहा है।
 
 
खैर, शेख का ट्रायल 22 जुलाई से शुरू होने वाला था। नेहरू ने वायसराय वेवल को 13 जुलाई को एक पत्र लिखकर फिर से कश्मीर जाने की इच्छा जाहिर की। इस बार 23 से 24 जुलाई को वे वहां जाने चाहते थे। अपनी इस यात्रा की जानकारी उन्होंने महाराजा को टेलीग्राम भेजकर दे दी। वायसराय के कहने पर महाराजा ने नेहरू को आने से नहीं रोका। हालांकि महात्मा गाँधी ने अनुसार नेहरू फिर से जल्दबाज़ी कर रहे थे। सरदार पटेल को लिखे एक पत्र में महात्मा ने कहा कि कश्मीर के संबध में हमें जो करना है वो संविधान सभा के मिलने के बाद करना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि मौलाना अथवा सरदार को पहले वहां जाकर पता लगाना चाहिए कि क्या संभावनाएं है।
 
नेहरू ने मौलाना के कश्मीर जाने पर अपनी असहमति जता दी। आखिरकार नेहरू ने इतना दवाब बना दिया था कि इस बार उन्हें वहां जाने से किसी ने नहीं रोका। वे और उनके दो साथी – मेजर जनरल शाहनवाज़ और कर्नल हबीबुर रहमान वहां चार दिन रहे। शाहनवाज़ पहली बार कश्मीर गए थे जबकि रहमान स्वयं एक कश्मीरी थे। सभी लोग 29 जुलाई को रावलपिंडी लौटे और हवाई यात्रा से दिल्ली की ओर रवाना हो गए।
 
नेहरू ने शेख से चारों दिन मुलाकात की। उनकी इस मुलाकात के दौरान उनके साथ कोई मौजूद नहीं रहता था। इन मुलाकातों के बाद उस अध्याय की शुरुआत होती है जिसमें शेख को एकतरफा नेहरू का समर्थन मिलता रहा। महाराजा जिन्होंने कई बार समझाने की कोशिश की थी कि शेख पर भरोसा नही करना चाहिए। नेहरू ने किसी की नही सुनी और अंत में उन्हें खुद पछताना पड़ा, जब अगस्त 1953 में खुद उनके कहने पर शेख को गिरफ्तार किया गया।