1975 में इंदिरा गांधी द्वारा शेख को जेल से निकाल सीधे सत्ता सौंपने की ऐतिहासिक गलती का नतीजा, 9 जुलाई 1977, जब शेख अब्दुल्ला फिर से बने जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री
   09-जुलाई-2019
 
 
 
 
29 सितंबर 1947 को पंडित नेहरू और महात्मा गांधी की सलाह पर महाराजा हरि सिंह ने एक माफीनामे के बाद शेख अब्दुल्ला को रिहा कर दिया। इसके बाद जम्मू कश्मीर के अधिमिलन के बाद नेहरू ने जम्मू कश्मीर की सत्ता की चाबी सीधे जेल से बाहर आये शेख अब्दुल्ला के हाथों में सौंप दी। नेहरू शेख अब्दुल्ला को संपूर्ण जम्मू कश्मीर का एकमेव नेता घोषित थोपने की कवायद में जुटे थे और इसमें वो कामयाब भी रहे। लेकिन जम्मू कश्मीर की जनता के साथ सबसे बड़ा राजनीतिक धोखा था। खासतौर पर जम्मू, लद्दाख और श्रीनगर के अलावा शेष कश्मीर की जनता के साथ। बहरहाल अपनी विखंडनकारी और देशविरोधी नीतियों के चलते शेख अब्दुल्ला को अगस्त 1953 में प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर जेल में डाल दिया गया।
 
 
इसके बाद अगले लगभग 20 सालों तक शेख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर में जनमत-संग्रह के सपने पालता रहा और उसकी साजिश भी रचता रहा। केंद्र में नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी सत्ता पर काबिज हो चुकी थी। 1971 के युद्ध में भारत पाकिस्तान के एक हिस्से को अलग कर बांग्लादेश बनवा चुका था। ये समय था जब शेख अब्दुल्ला को भी एहसास हुआ कि जम्मू कश्मीर की जनमत-संग्रह या आजादी का रास्ता मुश्किल है। लिहाजा कैसे भी समझौता कर सत्ता में फिर से वापस लौटा जाए।  1972 के जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को जबरदस्त सीटें मिली थी। राज्य में कांग्रेसी नेता मीर कासिम राज्य के मुख्यमंत्री थे।
 
 

 
 
 
 
                                                        शेख अब्दुल्ला नेहरू की ऐतिहासिक भूल
 

1947 में जम्मू कश्मीर के अधिमिलन के महाराजा हरि सिंह और शेख अब्दुल्ला के बीच गहरे मतभेद थे। जुलाई 1931 में श्रीनगर दंगों के बाद से महाराजा हरि सिंह शेख अब्दुल्ला की राजनीतिक महत्तवाकांक्षा को बहुत अच्छी तरह से पहचानते थे। लिहाजा 1948 में संक्रमण काल के दौरान राज्य के प्रशासन से संबंधी अधिकारों को लेकर दोनों में तनातनी चल रही थी। ऐसे में देश के तत्कालीन सर्वेसर्वा पंडित जवाहर लाल नेहरू की निर्णायक भूमिका बनती थी, लेकिन पंडित नेहरू शेख अब्दुल्ला के प्रति इस कदर आसक्त थे कि उन्हें शेख अब्दुल्ला के अलावा जम्मू कश्मीर का भविष्य दिखायी ही नहीं दे रहा था। 7 मार्च 1948 को महाराजा हरि सिंह को लिखे पत्र में पंडित नेहरू ने लिखा- मुझे पूरा विश्वास है कि जम्मू कश्मीर का ये नया दौर राज्य और यहां के लोगों के लिए अच्छा भाग्य लेकर आयेगा और मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं कि ये तभी संभव होगा अगर आप (महाराजा हरि सिंह) शेख अब्दुल्ला में पूरी तरह से विश्वास दिखायें।
 
 
 
 
 
अब्दुल्ला के संदेशों के बाद इंदिरा गांधी ने भी फिर वहीं गलती दोहरायी। राज्य में जनमत-संग्रह की मांग खत्म करने और कांग्रेस में शामिल होने की शर्त पर शेख अब्दुल्ला को जेल से बाहर निकालकर सीधे राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया गया। ये अपने आप में इंदिरा गांधी का विचित्र फैसला था क्योंकि अब अब तक शेख अब्दुल्ला देश के विभाजन की साजिश में सक्रिय रहे थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला के तमाम साजिशों को एक झटके में भुला दिया। वो भी उस वक्त जब अब्दुल्ला की पार्टी जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस का राज्य में एक भी विधायक नहीं था। फिर भी एक बार फिर जनता के फैसले और वोट अधिकार से चुनी गयी सरकार को धोखा देते हुए इंदिरा गांधी ने 25 फरवरी 1975 को शेख अब्दुल्ला को सीधे फिर से जम्मू कश्मीर की सत्ता की चाबी सौंप दी।
 
 
कांग्रेस ने विधानपरिषद से अपने 2 सदस्यों से इस्तीफा ले लिया। इन खाली हुई सीटों पर शेख अब्दुल्ला और शेख के प्लेबिसिट फ्रंट को चलाने वाले मिर्जा अफ़ज़ल बेग को चुनाव जिताकर विधानपरिषद् भेज दिया गया।
 
 
इसके बाद अगले 2 सालों तक कांग्रेस के बिना शर्त समर्थन से जम्मू कश्मीर में राज किया। शेख अब्दुल्ला ने देश के साथ जम्मू कश्मीर में भी आपातकाल लागू करवाया। लेकिन इस दौरान शेख कांग्रेस में शामिल होने के बजाय अपने दल नेशनल कांफ्रेंस को मजबूत करने में लग गया और सत्ता संभालने के कुछ महीनों के भीतर ही कांग्रेस के दर्जन भर नेताओं को नेशनल कांफ्रेंस में शामिल कर लिया। आपातकाल के बाद 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई ने केंद्र सरकार की कमान संभाल चुकी थी। इस दौरान मुफ़्ती मोहम्मद सईद कांग्रेस की राज्य इकाई के अध्यक्ष थे। उन्होंने राज्यपाल को पत्र लिखा कि कांग्रेस समर्थन वापस लेना चाहती है। शेख ने भी अगले दिन की सुबह विधानसभा भंग करने की सिराफिश कर दी। उसी दिन शाम को कांग्रेस के विधायक दल की बैठक हुई जिसमें सरकार गिराने का निर्णय लिया गया। कांग्रेस को लगा कि राज्यपाल उन्हें सरकार बनने के लिए आमंत्रित करेंगे। ऐसा कुछ नहीं हुआ और 27 मार्च, 1977 को विधानसभा भंग कर दी गयी। तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने दावा किया कि तीन महीनों में चुनाव करा लिए जायंगे।
 
 
  
दो महीनों के राज्यपाल शासन के बाद वहां जून में चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया गया। कांग्रेस की मदद से शेख ने नेशनल कांफ्रेंस को खड़ा कर लिया था। जिस व्यक्ति का राज्य में दो दशकों से कोई खास बजूद ही नही था, वह किस आधार पर चुनाव लड़ता? इसलिए शेख ने इशारे पर उसके कार्यकर्ताओं ने गुंडागिर्दी मचा दी। हब्बाकदल से जनता पार्टी की महिला प्रत्याशी के साथ 7 जून, 1977 को मारपीट की गयी। वे एक जनसभा को संबोधित करके आ रहे थी। उनकी कार पर पत्थर फेंके गए और उन्हें गंभीर चोटें आई। इसके तीन दिन बाद ही कांफ्रेंस और आवामी एक्शन कमेटी के कार्यकर्ताओं में झडपें हुई। इस घटना में 44 लोग घायल हो गए। इसी दिन अनंतनाग में शेख के लोगों के दूसरे दलों के कार्यकर्ताओं पर हमले किये। पूरे शहर में आगजनी की कई घटनाएँ दर्ज की गयी।
 
 
दंगो, मारपीट और आगजनी के बीच नेशनल कांफ्रेंस ने कुल 75 में से 47 सीटों पर जीत दर्ज की। इसलिए इसे निष्पक्ष चुनाव तो नहीं कहा जा सकता। हालांकि इस बहुमत से 72 साल के शेख अब्दुल्ला राज्य के तीसरी बार मुखिया जरूर बन गए। यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण था, लेकिन इन चुनावों का एक सुखद पहलू भी था। यह एक तथ्य है कि शेख ने नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस पहली बार चुनावों का सामना कर रही थी। इससे पहले शेख ने 1951 में संविधान सभा का चुनाव लड़ा था। जिसके निर्वाचन में भी उन्होंने भारी गड़बड़ी की थी। अब 1977 के विधानसभा चुनावों में उनके 18 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई। यह साबित करता है कि शेख राज्य में एक अलोकप्रिय नेता थे।
 
 

 
 
राज्य की जनता का उनमें कोई भरोसा नही था। खासकर जम्मू और लद्दाख में उनकी स्थिति नाजुक थी। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र की 32 सीटों में उन्हें मात्र 7 जगह जीत हासिल हुई। कई विधानसभाओं में उनकी पार्टी की हालत बदतर थी। उनके प्रत्याशी को उधमपुर में कुल मतों में 40375 में से 1198 मत; रणबीरसिंहपपुरा में 35431 में से 1395 मत; जम्मू पश्चिम 37810 में से 684 मत; जम्मू उत्तर 40693 में से 748 मत; और अखनूर 33101 में से 1154 मत मिल सके। इन इलाकों में शेख को पांच फीसदी मत तक हासिल में नही हुए थे।
 
 
 
 
फिर भी जम्मू-कश्मीर की बागडौर फिर से शेख के हाथों में आ गयी थी। उस दशक के किसी भी कांग्रेसी नेता से अगर पूछा गया होता कि वह शेख और देश में से किसको चुनेंगे तो जवाब में शेख ही मिलता। अब जब कांग्रेस के साथ गलत हुआ तो उन्हें देश की तथाकथित सुध आने गयी। राज्य में पहले अनिश्चितता पैदा करने में जितना नेहरु का योगदान था, अब उससे भी ज्यादा इंदिरा ने वहां के भविष्य के साथ खिलवाड़ की। इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने एकबार संसद में कहा था कि जम्मू-कश्मीर में कोई ऐसा काम मत कीजिये, जो हमारे लिए सिरदर्द बन जाए। वह सिरदर्द सिर्फ सरकार के लिए नहीं होगा, बल्कि सारे देश के लिए होगा और जनता कभी कांग्रेस पार्टी को माफ़ नहीं करेगी।
 
- देवेश खंडेलवाल के साथ Team JK Now