आर्टिकल 35A कानून नहीं सज़ा है, जिसे पंडित नेहरू ने तानाशाही अंदाज़ में देश पर थोपा था
   01-अगस्त-2019
 
 
   
 
"एक ऐसा क्षण होगा, जो इतिहास में बहुत कम आता है, जब हम पुराने को छोड़कर नए जीवन में कदम रखते हैं। जब एक युग का अंत होता है, जब राष्ट्र की चिर काल से दमित आत्मा नवउद्धार प्राप्त करती है। यह सर्वथा उचित है कि इस गंभीर क्षण में हम भारत और उसके लोगों और उससे भी बढ़कर मानवता के हित के लिए सेवा-अर्पण करने की शपथ लें।" यह देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के वाक्य हैं, जो उन्होंने स्वतंत्रता से कुछ क्षण पहले संविधान सभा के समक्ष कहे थे।
 
 
 
अगस्त 1947 का यह भाषण 'नियति से साक्षात्कार' नाम से लोकप्रिय है। यह सटीकता और सकारात्मक ऊर्जा का उदाहरण माना जा सकता है। प्रधानमंत्री नेहरू उस दिन भविष्य की ठोस और स्पष्ट दिशा की झलक भी दिखा रहे थे। उन्होंने वादा किया था कि मानवता ही उनके लिए सर्वोपरि रहेगी। दुर्भाग्य से वे अपनी बात पर कायम रहने में असफल रहे। एक महीने के अंदर ही भारत के उत्तरी छोर पर जम्मू-कश्मीर रियासत पर पाकिस्तान ने हमला कर दिया था। इसी के साथ प्रधानमंत्री नेहरू का मानवता वाला नजरिया धूमिल हो गया। क्योंकि उनकी जिद्द के कारण कट्टर इस्लामिक, साम्प्रदायिक और अलगाववादी व्यक्ति को जम्मू-कश्मीर की कमान सौंप दी गयी। यह व्यक्ति शेख मोहम्मद अब्दुल्ला था, जो फारुख अब्दुल्ला के पिता और उमर अब्दुल्ला के दादा है।
 
 
 
देश के सामने अनुच्छेद 35A का प्रश्न कई बार सामने आ चुका है। हमें पता होना चाहिए कि इस अनुच्छेद की नींव शेख ने रखी थी। इसे गैर-कानूनी रूप से प्रधानमंत्री नेहरू ने लागू करवाया। आज इसके समर्थकों में शेख की तीसरी पीढ़ी के साथ पीडीपी भी शामिल है। पीडीपी के संस्थापक मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने राजनैतिक जीवन की शुरुआत नेशनल कांफ्रेंस से की थी। बाद में कांग्रेस में शामिल हुए और आज उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती भी पिता के नक्शे कदमों पर है। पूरे क्रम को कही से भी देख लीजिए, कांग्रेस केंद्र बिंदु में ही मिलेगी। इस तरह एक समस्या को पैदा किया, फिर उसे विकराल बनाया और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसके समर्थक बने।
 
 
 
जम्मू-कश्मीर में दो लाख से ज्यादा पश्चिमी पाकिस्तान के आए शरणार्थी है। यह सभी सियालकोट से विभाजन के दौरान राज्य में दाखिल हुए थे। वे भारत के नागरिक है; लोकसभा के चुनावों में मतदान कर सकते हैं, लेकिन विधानसभा और पंचायत चुनावों में उनका यह अधिकार छीन लिया गया। गोरखा प्रजाति के साथ भी यही स्थिति है। साल 1957 में वाल्मीकि समुदाय के 200 परिवारों को पंजाब से लाकर जम्मू-कश्मीर में बसाया गया था। राज्य मंत्रिमंडल के आदेश के तहत उन्हें सफाई कर्मचारी के तौर पर नियुक्त किया गया। इन्हें भी राज्य की निवासी नही माना गया और संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया।
 
 
 
साल 2011 की जनगणना के अनुसार जम्मू-कश्मीर की कुल आबादी 1.25 करोड़ है। इसमें महिलाओं की संख्या 59 लाख है।  अगर जम्मू-कश्मीर की कोई महिला राज्य से बाहर शादी करती है तो उसके पति और बच्चों के संवैधानिक अधिकार खत्म हो जाते हैं। उन्हें शिक्षा और नौकरी जैसी सामान्य जरूरतों के लिए भी कानूनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सोचने वाली बात है कि इतनी बड़ी जनसंख्या के मूलभूत अधिकारों का हनन होता रहा। फिर भी झूठा प्रचार किया गया कि मानवता के वास्तविक हितैषी जवाहरलाल नेहरू है।
 
 

 
35A पीड़ित, रिकॉर्डधारी एथलीट होने के बावजूद भी राधिका गिल जम्मू कश्मीर में नौकरी नहीं कर सकती
 
 
जम्मू-कश्मीर पर आतंकियों और पत्थरबाजों के समर्थन में मानवाधिकार सम्बन्धी कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट्स आती रही है। ऐसा क्यों है कि अनुच्छेद 35A के कारण मानवाधिकारों के दमन पर कोई रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की गयी? इस दोहरेपन के कारण भी जम्मू-कश्मीर की असल समस्याओं की तरफ किसी का ध्यान नही जाने दिया। वास्तव में अनुच्छेद 35A पर सार्थक चर्चा होनी चाहिए थी, वह कभी नही होती।
 
 
अनुच्छेद 35A के समर्थकों के पास कोई ठोस जवाब नहीं होता है। सकारात्मक बातचीत के बजाए वे बारूद, दंगे, पत्थरबाज़ी और उकसाने वाली भाषा का इस्तेमाल करते है। उच्चतम न्यायालय के विवादास्पद वकील प्रशांत भूषण को इतिहास के तथ्यों की कम समझ है। कुछ महीने पहले 'द हिन्दू' में प्रकाशित उनके लेख से तो यहीं लगता है। उन्हें कम-से-कम भारत में राज्यों के अधिमिलन की प्रक्रिया को गंभीरता से पढना चाहिए। भूषण साहब को पता लगाना चाहिए कि कितनी रियासतों ने जम्मू-कश्मीर के जैसे अधिमिलन पत्र को स्वीकार किया था। वैसे भी अनुच्छेद 35A का जम्मू-कश्मीर के अधिमिलन से कोई लेनादेना नहीं है। यह अधिमिलन के 7 साल बाद यानि 14 मई, 1954 को प्रधानमंत्री नेहरू के निर्देश पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा संविधान में शामिल किया गया था।
 
 
 
भारत के राष्ट्रपति संवैधानिक तौर पर आदेश पारित कर सकते है। इससे किसी को क्या परेशानी हो सकती है। सवाल तब उठता है कि अनुच्छेद 35A को गुप्त रूप से क्यों शामिल किया गया? साल 1954 के बाद किसी भी समाचार-पत्र, इतिहास और क़ानून की पुस्तकें, मैगजीन, किसी राजनेता की आत्मकथा और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के किसी भाषण अथवा पत्र में इसका उल्लेख नहीं मिलता है। संविधान की प्रतियों से भी यह लगभग गायब कर दिया गया। सवाल यह भी है कि जो कानून सिर्फ दोषपूर्ण है उसे लागू करने की इतनी जल्दी क्यों थी? संसद के दोनों सदन, मंत्रिमंडल और कानूनविद किसी से भी चर्चा क्यों नही की गईं?
 
 
 
इस एक मामलें में प्रधानमंत्री नेहरू का व्यावहार किसी तानाशाह की तरह नज़र आता है। ऐसा लगता है कि वे अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकते थे। जम्मू-कश्मीर को लेकर पहले भी 1947 से 1952 के बीच उन्होंने जरुरत से ज्यादा दिलचस्पी दिखाई थी। अगर उन्हें कोई सलाह देता तो वह अपना व्यक्तिगत अपमान समझते थे। सरदार वल्लभभाई पटेल, महाराजा हरि सिंह, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और प्रेमनाथ डोगरा जैसे कुछ नाम है जो प्रधानमंत्री नेहरू की बदले की भावना के शिकार बने।
 
 
 
 
हालाँकि, 1952-1953 में जम्मू-कश्मीर संबंधी सरकार की नीतियों का एकमात्र विरोध डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने किया। साल 1950 से पहले तक सरदार पटेल भी प्रधानमंत्री कई बार रोकने की कोशिश करते थे। अनुच्छेद 35A जिस दिन अस्तित्व में आया, तब तक दोनों नेता इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे। प्रधानमंत्री नेहरू को रोकने वाला अब कोई नहीं था। बीते सात दशकों के बाद अब पहला मौका है कि पुरानी गलती को सुधार दिया जाए। अनुच्छेद 35A कानून नही, एक सजा बन गया है। इसके समाप्त होने का फायदा किसी दिल्ली के नागरिक को नही बल्कि जम्मू-कश्मीर को मिलेगा।