प्रियंका जी, नेहरू ने प्रजा परिषद् से कितनी बात की थी और जिन अलगाववादियों से कांग्रेस ने 30 साल तक बात की, उनसे क्या हल निकला?
   20-अगस्त-2019
 
 
 
सोमवार को मीडिया के एक ग्रुप ने आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान को तोड़-मरोड़कर पेश करते हुए आरक्षण विरोधी बयान साबित करने की कोशिश की। गलत दिशा में बहस मोड़े जाने के बाद आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख अरूण कुमार ने स्पष्ट किया कि आरएसएस सरसंघचालक ने समाज में सद्भावना पूर्वक परस्पर बातचीत के आधार पर सभी प्रश्नों के समाधान का महत्व बताते हुए आरक्षण जैसे संवेदशनशील मुद्दे पर विचार करने का एक सुझाव सामने रखा था।
 
 
 
अरूण कुमार के इस बयान में बातचीत कर समाधान निकालने पर तंज कसते हुए कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मंगलवार सुबह एक ट्वीट किया। जिसमें प्रियंका गांधी ने आरएसएस और मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए जम्मू कश्मीर पर लिखा कि- “…आरएसएस मानता है कि सभी मुद्दों का हल बातचीत से निकलें। तो मोदी जी और उनकी सरकार या तो आरएसएस का सम्मान नहीं करते या फिर उन्हें लगता है कि जम्मू कश्मीर कोई मुद्दा ही नहीं है।”
 
 
 
साफ था कि प्रियंका गांधी “बातचीत” जैसे शब्दों का सहारा लेकर जम्मू कश्मीर के मामले को फिर से ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा करना चाहती हैं। जिस मोड़ के इर्द-गिर्द जम्मू कश्मीर की राजनीति पिछले 70 से घूमती रही है। ऐसा मोड़ जहां एक तरफ कुछ देशविरोधी तत्वों से सिर्फ बातचीत इसीलिए की जाती रही लेकिन कोई हल नहीं निकला, दूसरी तरफ राष्ट्रवादियों से इसीलिए बातचीत से दूर रखा गया, कहीं कोई हल न निकल आये। यानि नेहरू से लेकर मनमोहन सरकार तक “बातचीत” शब्द की एक ही राजनीति करते रहे, लेकिन कोई हल न निकाल सके या निकालना नहीं चाहा।
 
 
 
जुम्मा-जुम्मा नेता बनीं प्रियंका गांधी अगर आजादी के ठीक बाद की हिस्ट्री पढ़ें तो पता चलेगा, कि कैसे लोकतांत्रिक देश के पहले प्रधानमंत्री ने जम्मू कश्मीर के प्रथम राष्ट्रवादी आंदोलन प्रजा परिषद् के नेताओं ने मिलने का समय तक नहीं दिया था। पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में प्रजा परिषद् के नेता पीएम नेहरू को शेख अब्दुल्ला की देश-विरोधी नीतियों के प्रति आगाह करना चाहते थे। उनके पास जम्मू कश्मीर को लेकर बेहतर सुझाव थे। इसके लिए 19 मई 1952 को पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने दिल्ली में पत्र लिखकर पीएम नेहरू से मिलने के लिए समय मांगा। जिसका जवाब नेहरू के निजी सचिव एमओ मथाई ने 20 मई को दिया और जिसमें लिखा कि- प्रधानमंत्री को आपका 19 मई का पत्र प्राप्त हो गया था। उन्हें खेद है कि वो आपको मुलाकात के लिए समय नहीं दे सकते। वे कुछ समय के लिए अत्यंत वयस्त हैं। इसके अलावा उन्हें पिछले साल आपके साथ हुई मुलाकात याद है। उन्होंने महसूस किया कि इस मुलाकात को लेकर आपने लोगों को गलत तरीके प्रभावित किया औऱ इससे अनेक गलतफहमियां पैदा हुई थी। वे इस अनुभव को दोहराने की इच्छा नहीं रखते।
 
 

 
 
साफ था नेहरू ने जम्मू कश्मीर के इतने बड़े राष्ट्रवादी आंदोलन नेताओं को बातचीत करने के लायक नहीं समझते थे, बल्कि इस कदर दूरी बनाकर रखना चाहते थे। जिससे उनका सखा शेख अब्दुल्ला नाराज़ न हो जाये। जबकि इसी दौरान नेहरू ने शेख के साथ एक गैर-संवैधानिक एग्रीमेंट किया। जोकि राष्ट्र की एकात्मकता के साथ धोखा था। जिसका फायदा अलगाववादी अगले 60 सालों तक उठाते रहे।
 
 
 
यहां प्रियंका गांधी से समझना ज़रूरी है कि क्या वो ऐसी ही नेहरू-मॉडल की “बातचीत” में ही जम्मू कश्मीर को उलझाये रखना चाहती हैं क्या...??
 
 
 
या फिर वो उस तरह की “बातचीत” में जम्मू कश्मीर को उलझाये रखना चाहती है, जिस “बातचीत” के मॉडल को कांग्रेस सरकार 1975 के बाद से अपनाती आयी है। जिस मॉडल के तहत राज्य में आम कश्मीरी मुस्लिम, कश्मीरी हिंदू और सुरक्षा बलों के जवान मारे जाते रहे। लेकिन न तो आतंकवाद कम हुआ और न ही अलगाववादी एक इंच भी अपनी मांगों से पीछे हटे। बल्कि अलगाववादी एक तरफ से केंद्र सरकार से दिल्ली में “बातचीत” करते रहे, दूसरी तरफ कश्मीर घाटी में आतंकवाद की जड़ों को मजबूत करते रहे। सरकारी मशीनरी, बिजनेस कम्यूनिटी, एनजीओ, मीडिया और राजनीति में धीरे-धीरे अलगाववादी लॉबी को मज़बूत करते रहे। जिसका नतीज़ा आने वाले कुछ सालों में बेहद खतरनाक साबित होने वाला था।
 
 

 
 
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ऐसे में प्रियंका गांधी जी आपका बयान न सिर्फ बचकाना हैं, बल्कि उसी राजनीतिक सडांध का नतीज़ा है जिसको आपकी कांग्रेस की “बातचीत” के ढ़कोसले में पोषते रहे हैं। जिससे जम्मू कश्मीर समेत देश अब उकता गया है और नयी ताज़ी हवा में सांस लेने पर उत्साहित है। मौका मिले तो आप भी महसूस करियेगा, क्योंकि जल्द ही मरणासन्न कांग्रेस आपको कंधों पर आने वाली है।