“भारत में जम्मू कश्मीर के विलय से अनुच्छेद 370 का कोई संबंध नहीं था, 370 का उद्देश्य भारत के संविधान को लागू करना था न कि उसको सीमित करना”
   02-सितंबर-2019

 
 
 
कुछ संविधान विशेषज्ञ और सिविल सोसायटी के लोग लम्बे समय तक यह मानते रहे कि अनुच्छेद 370 चला जाएगा तो जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा। उनकी यह धारणा अब निर्मूल साबित हो चुकी है और जम्मू कश्मीर पहले से अधिक मजबूती से भारत के साथ है। जम्मू कश्मीर का भारत डोमिनियन में विलय हुआ 26 अक्तूबर 1947 के अधिमिलन पत्र से और जम्मू कश्मीर में भारत का संविधान लागू हुआ 25 नवम्बर 1949 के प्रोक्लेमेशन से। अनुच्छेद 370 भारत के संविधान का हिस्सा है, भारत के संविधान से ऊपर नहीं । इसके लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने कहा कि यह अस्थायी अनुच्छेद होगा। यह अस्थायी अनुच्छेद सिर्फ इस वजह से बनाया गया था कि विषम परिस्थतियों के चलते भारत का संविधान जम्मू कश्मीर में लागू नहीं हो पा रहा था। कुछ समय के बाद हम इस काम को करेंगे, तब तक क्या होगा? हम अनिश्चित काल के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं कर सकते कि वहां कोई कानून लागू न हो। लेकिन अंततः भारत का संविधान पूरी तरह लागू होना ही था। आज वह हो भी गया है। एक्सेप्शन और मोडिफिकेशन बाकी राज्यों के लिए भी थे। 1956 तक एक्सेप्शन और मोडिफिकेशन बहुत से राज्यों ने पार्ट बी के अपने-अपने राज्यों की परिस्थितियों के अनुसार किये थे।
 
 
वास्तव में 370 का उद्देश्य भारत के संविधान को लागू करना था न कि उसको सीमित करना। लेकिन यह समस्या कहां से शुरू हुई । एक ओर जहाँ अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र काम कर रहे थे वहीं उस समय के नेतृत्व की अदूरदर्शिता एवं अनुभवहीनता उसके पीछे के कारण थे। उस समय के नेतृत्व की मंशा गलत थी, यह मानने का कोई कारण नहीं। लेकिन अनुभव और दूरदृष्टि सबकी समान होगी ऐसा नहीं माना जा सकता। भावनाएं ठीक हो सकती है लेकिन अनुभव और दूरदृष्टि का अपना एक अलग महत्व और स्थान होता है।
 
 
 
 
हमसे गलती हुई कि हमने लेक सक्सेस में प्रतिनिधि के रूप में शेख अब्दुल्ला को भेजा। वह सीआईए और ब्रिटिश-यूएस के प्लान का हिस्सा बन गये जो पहले तो यह चाहते थे कि जम्मू कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बने पर बाद में वे जम्मू कश्मीर को आजाद देश बनाने की सोचने लगे। उनको लगा कि जम्मू कश्मीर स्वतंत्र रियासत के रूप में पश्चिमी ताकतों की सेनाओं का एक अड्डा बनेगी जिसकी भू-सामरिक स्थिति का लाभ लेकर चीन, रूस और सेंट्रल एशिया और वेस्ट एशिया पर निगाह रखी जा सकती है। वास्तव में इन एजेंसियों ने शेख अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षा को हवा देने का काम किया।
 
 
 
 
नेहरु जी का शेख पर बड़ा विश्वास था। 1951 में जम्मू कश्मीर की संविधान सभा का चुनाव हुआ। चुनाव नहीं इसे मनोनयन ही कहेंगे। विपक्ष के नामांकन रद्द कर दिए गये। 75 में से 73 प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित घोषित किये गये। 75 में से 75 संविधान सभा के सदस्य नेशनल कांफ्रेंस के हो गये। उस कालखंड में यह सब जो चल रहा था, ऐसा नहीं है कि नेहरु जी इस बारे में कुछ नहीं जानते थे। डॉ. कर्ण सिंह ने स्वयं उनको रिपोर्ट भेजी, आईबी ने उनको रिपोर्ट भेजी कि जिस तरह से विधानसभाओं का परिसीमन किया गया है उसके कारण से पूरे जम्मू कश्मीर में बहुत असंतोष है। बहुत असंवैधानिक तरीके से विधानसभाएं बन रही है और उसी पद्धति से चुनाव भी हो रहे है। चुनावों का मजाक बना दिया गया। किन्तु केन्द्र ने कोई कदम नहीं उठाया। इससे भी आगे जाकर इस प्रकार की धांधली के द्वारा जीते गये चुनाव से निर्वाचित संविधान सभा को मान्यता दी।
 
 


 
 
संविधान सभा पर पूरा नियंत्रण पाने के बाद शेख अब्दुल्ला की भाषा बदल गयी। संविधान सभा में उन्होंने कहना शुरू किया कि “वी आर अ सोवरन बॉडी”। जबकि जम्मू कश्मीर की संविधान सभा एक सोवरन बॉडी नहीं थी। उसको जो अधिकार मिले थे वह भारत के संविधान के अंतर्गत मिले थे। उनको उन्हीं विषयों पर कानून बनाने का अधिकार था जिन पर भारत की संसद कानून नहीं बना रही थी। इसके अतिरिक्त उसके पास कोई अधिकार नहीं था। यहां तक कि शेख अब्दुल्ला ने संविधान सभा के भाषण में कहा कि हमको हमारे भाग्य का फैसला करना है। हम पाकिस्तान जा सकते हैं, भारत में शामिल हो सकते हैं, यहाँ तक कि स्वतंत्र भी रह सकते हैं। यह भाषणों में नहीं संविधान सभा के अन्दर शेख ने कहा। सब लोगों ने नेहरू जी को ध्यान दिलाया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
 
 
 
 
अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियां जम्मू कश्मीर की इस परिस्थति का लाभ उठाने को तैयार थीं। दिन-प्रतिदिन शेख की भाषा बदलती गयी। धीरे-धीरे भारत का नेतृत्व अपने-आपको ठगा सा महसूस करने लगा। उस समय उसको समझ में नहीं आया कि क्या करे। वास्तव में उस समय शायद भारत की शक्ति भी कम थी लेकिन नेतृत्व की प्रशासनिक क्षमता के ऊपर भी बहुत सारे प्रश्नचिन्ह्र थे और उसी कारण से उन्होंने घुटने टेक दिये। जुलाई 1952 में उन्होंने पहले शेख के प्रतिनिधियों के साथ और बाद में नेहरु और शेख दोनों ने मिलकर एक परस्पर सहमति बनाई। इस सहमति में उन्होंने ये सब बातें कहीं जिन्हें हम आज तक अनुच्छेद 370 के नाम से सुनते रहे। जम्मू कश्मीर में देश के लोग जाकर बस नहीं सकते, वे वोट नहीं दे सकते, वे वहां पर नौकरी नहीं कर पायेंगे। इन सारी बातों का सम्बन्ध अनुच्छेद 370 से नहीं है। वास्तव में इसी सहमति से उन्होंने यह तय किया कि राज्य का अलग संविधान होगा, अलग झंडा होगा आदि। अनुच्छेद 370 लाने के पीछे यह मंशा कभी भी नहीं थी कि जम्मू कश्मीर का अपना झंडा होगा और अलग संविधान होगा।
 
 
 
 
उस कालखंड में नेहरु जी ने शेख की अलगाववादी नीतियों के सामने घुटने टेक दिये। उसके सामने समर्पण करते हुए उन्होंने शेख की सारी अपमानजनक बातें मानीं। भारत में अधिमिलन का समर्थन पाने के लिये उनकी हर जिद मानी। दुनिया को यह दिखाने के लिए कि जम्मू कश्मीर भारत के साथ है, जबकि यह काम महाराजा हरि सिंह पहले ही कर चुके थे। आज जो ये लोग कह रहे है कि असंवैधानिक ढंग से यह सारा काम हुआ है। उनको यह समझ में आना चाहिये कि यह संविधान है क्या? किन-किन विषयों पर अनुच्छेद 370 के अंतर्गत संविधान की उपेक्षा की गयी।
 
 
 
 
वास्तव में संप्रभुता जम्मू कश्मीर के महाराजा में निहित थी। संविधान को लागू करने की शक्तियां शेख के पास नहीं, महाराजा के पास थीं। जम्मू कश्मीर में जो संविधान सभा बनी वह महाराजा की उदघोषणा से बनी। लेकिन जिस महाराजा की शक्ति से जम्मू कश्मीर की संविधान सभा बनी, जिन्हें जम्मू कश्मीर का संविधान बना कर सौंपा जाना था, उसी महाराजा को राज्य से हटा दिया गया। महाराजा को बदलकर उन्होंने कहा कि हम सदर-ऐ-रियासत बनायेंगे और बाद में इसे लागू करने के लिए राष्ट्रपति के पास भेज दिया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरु जी को पत्र लिखा कि यह सारे जो असंवैधानिक काम हो रहे हैं इसका स्पष्टीकरण कैसे करेंगे। मेरे सामने प्रश्न है – क्या जम्मू कश्मीर के महाराजा द्वारा गठित संविधान सभा महाराजा को हटा सकती है ? मेरे द्वारा मान्यता प्राप्त राजप्रमुख को हटाने का अधिकार क्या संविधान सभा के पास है ? अनुच्छेद 370 के तहत जो संशोधन किये जाने हैं वह जम्मू कश्मीर संविधान सभा को करने है या भारतीय संसद को ? उन्होंने कहा मेरी समझ यह कहती है कि असेम्बली जिन-जिन बातों पर विचार करने हैं कर ले। मैं बाद में आदेश जारी करूंगा।
 
 
 
 
पं. नेहरु ने कहा कि जम्मू कश्मीर की प्रजा के हित में है कि महाराजा जम्मू कश्मीर से चले जाएं। जम्मू कश्मीर संविधान को लागू करते हुए कोई असंवैधानिक काम भी होता है तो उसको करने में हिचकूंगा नहीं। वास्तव में संविधान में तोड़-मरोड़ उस समय सत्ता में बैठे हुए लोगों ने की।
 
 
 
पांच और सात अगस्त 1952 को लोकसभा और राज्य सभा में नेहरु और शेख की सहमति से प्रस्तुत प्रस्ताव पर चर्चा हुई। उस प्रस्ताव में उन्होंने कहा कि हम “मोशन ऑफ़ असेप्टेंस” लाना चाहते है। यह मोशन ऑफ़ असेप्टेंस क्या होता है संविधान विशेषज्ञ नहीं समझा पायेंगे। क्योंकि इसका कोई प्रावधान ही नहीं है। इस मोशन में उन्होंने कहा कि हमने जो फैसला किया है इसका आप अनुमोदन कर दीजिये। श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने कहा कि भारत में संविधान सर्वोच्च है। हम कोई भी काम ऐसा नहीं कर सकते जो संविधान से बाहर हो। अनुच्छेद 370 भारत के संविधान का हिस्सा है। 370 के नाम पर आप जो चाहेंगे वह नहीं कर सकते। अगर आप जम्मू कश्मीर को कुछ देना चाहते हैं तो आप उसके लिए संसद में प्रस्ताव लाइए और संवैधानिक रूप से जम्मू कश्मीर में लागू कीजिये। यह असंवैधानिक है, पॉवर लाइज इन कांस्टीट्यूशन। नेहरु जी का उत्तर था “पॉवर डज नाट लाइज इन कांस्टीट्यूशन. पावर लाइज इन विशेज ऑफ़ द पीपल. व्हेन दे वांट वी शुड ऑनर” . यह संवैधानिक व्यवस्था का सर्वोच्च उदाहरण है जो नेहरु जी ने दिया। उन्होंने कहा कि संविधान को परे रखकर भी महाराजा को हटाने में कोई आपत्ति नहीं है।
 
 
संविधान का सबसे बड़ा मजाक बना 14 मई 1954 को जब जम्मू कश्मीर की संविधान सभा के अन्दर चर्चा होने के बाद असेम्बली के होते हुए सरकार की सहमति (कन्करेंस) से उन्होंने जम्मू कश्मीर में भारत के संविधान को लागू करते समय एक नया संविधान का प्रावधान जोड़ दिया। 368 की शक्ति को सीमित कर दिया गया। आज जो लोग कह रहे हैं कि अनुच्छेद 370 के उपबंध एक की शक्ति से संवैधानिक आदेश 272 लागू हुआ है, वह असंवैधानिक है। वास्तव में अगर यह असंवैधानिक है तो संवैधानिक आदेश 1954 को वे क्या कहेंगे। आज तक जम्मू कश्मीर में भारत का जितना संविधान गया वह अनुच्छेद 370 के उसी उपबंध से गया। उस उपबंध एक की शक्ति को कौन चुनौती दे सकता है। 1954 का जो आदेश था वह भारत के संविधान को संशोधित करता था। वह भारत के संविधान का मजाक बनाता था। वह भारत के संविधान को भारत में जाने से रोकता था। लेकिन आदेश क्र. 272 जम्मू कश्मीर में भारत का संविधान लेकर जाने का माध्यम बना है। संविधान का मजाक तब बना था जब 1954 का आदेश जारी हुआ था।