24 जून, 1990, इस्लामिक आतंकियों और अस्पतालों के साजिश तंत्र की कहानी, जब एक मेधावी छात्र गोलियों से छलनी कर दिया गया, फिर श्रीनगर के अस्पतालों ने भर्ती करने से इंकार कर दिया#KashmiriHinduExodus #30YearsInExile
    18-जनवरी-2020

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1990 के दशक में कश्मीर घाटी में इस्लामिक आतंकी पूरी तरह से कश्मीरी हिंदूओं की जान के पीछे पड़े थे। हिंदूओं को खदेड़ने में आतंकियों का साथ सरकारी संस्थानों में बैठे अधिकारी, कर्मचारी भी खुलकर दे रहे थे। सबको लग रहा है था, कि कश्मीर में निजाम-ए-मुस्तफा आना तय है। इसीलिए खौफ से या फिर समर्थन से सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा तबका आतंकियों के साथ था।
 
 
25 साल के अश्विनी कुमार गढ़याली, अपने माता-पिता और 2 भाई-बहन के साथ श्रीनगर के छत्ताबल में रहते थे। चार्टर्ड अकाउंटेंसी की पढ़ाई कर रहा अश्विनी एक मेधावी छात्र था। पड़ोसियों और आतंकियों को शक होने लगा कि वो सरकार के लिए मुखबिरी कर रहा है। 24 जून, 1990 को जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के 5 आतंकी मुंह ढंककर अश्विनी के घर में घुसे और स्टडी रूम में पढ़ाई कर रहे अश्विनी पर आरोप लगाया कि वो सरकारी इन्फॉर्मर है और इलाके में इस्लामिक आतंकियों के मूवमेंट की खबर सुरक्षा एजेंसियों को देता। अश्विनी ने इंकार किया। लेकिन आतंकियों ने अश्विनी के पेट और सिर में 5 गोलियां मारकर फरार हो गये।
 
 
5 गोलियां लगने के बावजूद भी अश्विनी की सांस चल रही थी। घर से अस्पताल पहुंचने के लिए कोई साधन नहीं था। अश्विनी के पिता शंभूनाथ लोकल पुलिस थाने पहुंचे, गिड़गिड़ाये कि उनके घायल बेटे को अस्पताल पहुंचाया जाये। लेकिन यहां के थानेदार ने उनकी कोई मदद न की। उल्टे मज़ाक उड़ाया।
 
 
बुरी तरह घबराये घरवालों घायल अश्विनी को किसी तरह श्रीनगर के SMHS अस्पताल तक पहुंचाया। लेकिन अस्पताल ने भरती करने से मना कर दिया। इसके बाद घरवाले इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस, सौरा लेकर गये। लेकिन यहां भी डॉक्टर्स ने अश्विनी को चेक नहीं किया और मर जाने दिया। इसके बाद जब अश्विनी के पोस्टमार्टम के लिए शव जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल अस्पताल, रैनावारी ले जाया गया। यहां अश्विनी के घरवालों को शव के लिए घंटों इंतजार कराया, यहां तक कि उन्हें शव देने के लिए पैसे भी मांगे गये।
 
 
ये घटना साबित करती है कि कैसे सरकारी संस्थानों में बैठे कर्मचारी कैसे आतंकियों की मदद कर रहे थे। जिससे कश्मीरी हिंदूओं में एक जबरदस्त अविश्वास पैदा हुआ। नतीज़ा ये हुआ कि अगले कुछ सालों में ढाई लाख से ज्यादा कश्मीरी हिंदूओं को घाटी हमेशा के लिए छोड़नी पड़ी।