30 अप्रैल, 1990, जब इस्लामिक आतंकियों ने सेकुलरिज़्म की मिसाल सर्वानन्द कौल ‘प्रेमी’ की पुत्र समेत नृशंस हत्या की, इसके बाद कश्मीरी हिंदूओं का नरसंहार कश्मीर में कभी नहीं रूका #KashmiriHinduExodus #30YearsInExile
   18-जनवरी-2020

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सर्वानन्द कौल उनमें से थे जिन्होंने सेकुलरिज्म को अपना धर्म समझा था. सर्वानन्द कौल के ऊपर माता रूप भवानी की कृपा थी जिसने उन्हें कश्मीरी संतों की जीवनी लिखने को प्रेरित किया था. एक कवि, अनुवादक और लेखक के रूप में उनकी ख्याति ऐसी थी कि मशहूर कश्मीरी शायर महजूर ने उन्हें ‘प्रेमी’ उपनाम दिया था. सर्वानन्द ने टैगोर की गीतांजली और गीता का तीन भाषाओँ में अनुवाद किया था: हिंदी, उर्दू और कश्मीरी. हिंदी में एम् ए की डिग्री रखने वाले सर्वानन्द कौल कुल छः भाषाओँ के ज्ञाता थे- संस्कृत, फ़ारसी, हिंदी, अंग्रेजी, कश्मीरी और उर्दू तथा वे अपने पूजा घर में गीता के साथ क़ुरान की एक प्राचीन पाण्डुलिपि भी रखते थे.

सर्वानन्द कौल का जन्म जम्मू कश्मीर के अनंतनाग जिले के एक गाँव में सन 1924 में हुआ था. वे सत्रह बरस की आयु में महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े थे और बाद में आल इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन के सदस्य बन गये थे. यहीं से उनके अंदर गांधीवाद का बीज पड़ा था. भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् 1948 में उन्होंने कश्मीर छोड़ दिया और पंजाब सरकार में नौकरी कर ली थी. छः वर्ष बाद 1954 में सर्वानन्द कश्मीर घाटी लौटे और जम्मू कश्मीर सरकार के शिक्षा विभाग में अध्यापक बन गये जहाँ उन्होंने तेईस वर्षों तक नौकरी की. सेवानिवृत्ति के पश्चात भी सर्वानन्द कौल साल में तीन महीने दो स्कूलों में बिना वेतन लिए पढ़ाते थे- एक हिन्दू समाजसेवी संगठन द्वारा संचालित विद्यालय था और दूसरा इस्लामी तालीम देने वाला.
 
 
सर्वानंद कौल प्रेमी चार भाषाओं को पढ़ और लिख सकते थे, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी और कश्मीरी है। फारसी और संस्कृत समझने में भी वे सक्षम थे। उनकी प्रकाशित पुस्तकें- कलमी प्रेमी, पयँमी प्रेमी, रूई जेरी, ओश त वुश, गीतांजलि (अनुवाद), रुस्सी पादशाह कथा, पंच छ्दर (काव्यसंग्रह), बखती कुसूम, आखरी मुलाकात, माथुर देवी, मिर्जा काक (जीवन और काम), मिर्जा चाचा जी वखस, कश्मीर की बेटी, भगवद गीता (अनुवाद), ताज और रूपा भवानी ।

कश्मीर घाटी में जब पंडितों का नरसंहार प्रारम्भ हुआ तो यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया थी कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं. सन 1984 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापकों में से एक मकबूल बट को फांसी दी जा चुकी थी और 1986 में अनंतनाग में दंगे हो चुके थे. उसके पश्चात धीरे-धीरे स्थिति बिगड़ती गयी. सन 1989 में पूरे विश्व में सलमान रुश्दी की पुस्तक ‘सैटेनिक वर्सेज़’ का विरोध चरम पर था जिसकी आग कश्मीर तक भी पहुँची. परिणामस्वरूप 13 फरवरी को श्रीनगर में दंगे हुए जिसमें कश्मीरी पंडितों को बेरहमी से मारा गया. वे कराहते रहे और पूछते रहे कि रुश्दी के अल्फाजों का बदला उनकी आवाज खत्म कर क्यों लिया जा रहा है लेकिन पंडितों की सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था. पंडितों के संहार और दंगों के समय सरकार और उनके सहयोगी दल अलगाववादियों के सम्मुख भीगी बिल्ली बन जाते थे. अलगाववादी जानते थे कि पंडित घाटी से आसानी से नहीं जायेंगे. इसलिए सुनियोजित ढंग से पहले उन कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया जिन्हें जनता सम्मान देती थी.


 
सैटेनिक वर्सेज़ के विरोध के एक वर्ष पश्चात् 29 अप्रैल 1990 की शाम तीन आतंकी बंदूक लेकर सर्वानन्द कौल ‘प्रेमी’ के घर पहुँचे. उन्होंने कुछ बातचीत की और घर की महिलाओं से उनके गहने इत्यादि मूल्यवान वस्तुएं लाने को कहा. डरी सहमी महिलाओं ने सब कुछ निकाल कर दे दिया. सारे गहने जेवरात और कीमती सामान एक सूटकेस में भरा गया फिर उन आतंकियों ने सर्वानन्द से उनके साथ चलने को कहा. सर्वानन्द ने सूटकेस उठाया तो वह भारी था. उनके सताईस वर्षीय पुत्र वीरेंदर ने हाथ बंटाना चाहा और सूटकेस उठा लिया. तीनों आतंकी पिता पुत्र को अपने साथ ले गये. सर्वानन्द को विश्वास था कि चूँकि वे अपने पूजा घर में कुरआन रखते थे इसलिए अलगाववादी आतंकी उनके साथ कुछ नहीं करेंगे; घरवालों को भी उन्होंने यही भरोसा दिलाया था. लेकिन उनका भरोसा उसी प्रकार टूट गया जैसे कड़ाके की ठंड में चिनार के सूखे पत्ते टहनी से अलग हो जाते हैं. सर्वानन्द कौल ‘प्रेमी’ और उनके पुत्र को उनके परिवार ने फिर कभी जीवित नहीं देखा.


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प्रेमी को पुष्पांजलि अर्पित करते केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह

 
अगले ही दिन यानि 30 अप्रैल. 1990 को पुलिस को उनकी लाशें पेड़ से लटकती हुई मिलीं. सर्वानंद कौल अपने माथे पर भौहों के मध्य जिस स्थान पर तिलक लगाते थे आतंकियों ने वहाँ कील ठोंक दी थी. पिता-पुत्र को गोलियों से छलनी तो किया ही गया था इसके अतिरिक्त शरीर की हड्डियाँ तोड़ दी गयी थीं और जगह-जगह उन्हें सिगरेट से दागा भी गया था. सर्वानन्द कौल ने अपने जीवित रहते सेकुलरिज्म को धर्म मानकर काम किया था लेकिन वे जीते जी यह नहीं समझ पाए थे कि शैतान की आयतों को रटने वाले सेकुलरिज्म का मर्म नहीं समझते.