1947- नेहरू के चलते जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन खतरे में था, लेकिन सरदार पटेल ने इसको संभव कर दिखाया
   31-अक्तूबर-2019


 
 
 
सरदार पटेल के लिए कहा जाता है कि वे जम्मू और कश्मीर का भारत में अधिमिलन नहीं चाहते थे। जबकि दस्तावेजों के अनुसार सरदार पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस रियासत को भारत में शामिल करने की पहल की थी। यही नहीं, उन्होंने अधिमिलन को पुख्ता करने के लिए भी हरसंभव प्रयास किये थे। सरदार ने 3 जुलाई, 1947 को महाराजा हरि सिंह को एक पत्र लिखा और खुद को राज्य का एक ईमानदार मित्र एवं शुभचिंतक बताया। साथ ही महाराजा को आश्वासन दिया कि कश्मीर का हित, किसी भी देरी के बिना, भारतीय संघ और उसकी संविधान सभा में शामिल होने में निहित है।
 
 
रियासत के साथ संबंध स्थापित करने के लिए सरदार लगातार महाराजा के संपर्क में थे। अधिमिलन से पहले सरदार ने 2 अक्तूबर, 1947 को महाराजा को एक पत्र लिखा, "मैं टेलीग्राफ, टेलीफोन, वायरलेस और सड़कों के माध्यम से भारतीय संघ के साथ राज्य को जोड़ने के लिए जितना संभव होगा उतनी तेजी से प्रयास कर रहा हूँ।" उन्होंने राज्य की परिवहन और खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए मंत्रिमंडल के अन्य सहयोगी के. सी. नियोगी, रफी अहमद किदवई और बलदेव सिंह से भी अनुरोध किया।
 
एक तरफ कुछ ही महीनों में सरदार पटेल और महाराजा के बीच व्यक्तिगत संपर्क बन गए थे। वही दूसरी ओर अधिमिलन में देरी होने लगी और महाराजा पर एक जबरन आरोप लगा दिया कि वे दूसरे विकल्प पर भी विचार कर रहे है। दरअसल यह सब एक गलतफहमी थी जिसके जिम्मेदार शेख अब्दुल्ला थे। साल 1946 में हिंसा और दंगे फैलाने के लिए अब्दुल्ला को महाराजा ने गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद के घटनाक्रमों में इतनी कटुता आ गयी कि जवाहरलाल नेहरू ने महाराजा को सबक सिखाने का मन बना लिया। यही से कांग्रेस के नेताओं और महाराजा के बीच दूरी बन गयी और अधिमिलन की प्रक्रिया भी प्रभावित होती चली गयी।
 
 
सरदार को भी कांग्रेस के नेताओं की गलती का एहसास था। उनका मानना था कि हममें से किसी ने भी महाराजा के पक्ष को नही समझा। हमें उनसे व्यक्तिगत बातचीत के माध्यम से गलतफहमियों का दूर करना चाहिए था। महाराजा को भेजे एक पत्र में सरदार लिखते है कि रियासत के बारे में हमें गलत जानकारियां मिलती थी। इस व्यवस्था को सरदार पटेल ने ही सबसे पहले तोड़ा और स्थितियां पहले की अपेक्षा बेहतर होने लगी। महाराजा भी सरदार पटेल प्रति सकारात्मक थे क्योंकि कांग्रेस में उन्हें सिर्फ सरदार पर ही भरोसा था। जबकि महाराजा के लिए कहा जाता था कि वे जल्दी से किसी पर विश्वास नही करते थे लेकिन सरदार के प्रति उनका सम्मान सशक्त और स्थायी बन गया था।
 
 
इस बीच पाकिस्तान ने रियासत पर हमला कर दिया और हरि सिंह ने भारत के पक्ष में अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। नियमों के अनुसार सरदार के मंत्रालय को जम्मू-कश्मीर राज्य की आगे की दिशा तय करनी थी, लेकिन ऐसा होने नही दिया गया। इस विषय को हरि विष्णु कामथ ने स्पष्टता से सरदार को याद में प्रकाशित एक पुस्तक में लिखा है। सरदार पटेल और कामथ की जम्मू-कश्मीर पर बातचीत होती रहती थी। एक बार सरदार ने दुखी होकर उन्हें बताया कि नेहरू और आयंगर ने कश्मीर को मेरे गृह और राज्यों के मंत्री के दायरे से बाहर कर अपने तक सीमित कर लिया है। कामथ ने लिखा कि अगर ऐसा नही हुआ होता तो सरदार कश्मीर के मुद्दों को उचित तरीके से संभाल सकते थे। सरदार के बाद नेहरू, आयंगर और शेख ने मिलकर महाराजा हरि सिंह को भी राज्य से बेदखल कर दिया।
 
जबकि प्रधानमंत्री नेहरू और उनके सहयोगियों की नीतियों पर कांग्रेस में आंतरिक आलोचना होने लगी थी। एन. वी. गाडगिल अपनी किताब गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड में लिखते है कि मैंने हमेशा नेहरू को कश्मीर पर मजबूत निर्णय लेने के लिए कहा और उसके लिए समर्थन देने का भी प्रस्ताव रखा। नेहरू कहते थे कि राजनीति हमेशा लचीली होनी चाहिए। गाडगिल ने इसका जवाब देते हुए कहा कि अगर आप ठोस कदम नही उठाएंगे तो आपको अपनी गलती स्वीकार करने का भी मौका नहीं मिलेगा। प्रधानमंत्री की अदूरदर्शिता पर गाडगिल का अंदाजा सटीक निकला। नेहरू के निधन के बाद राज्य के मुद्दे उलझते चले गए। नतीजतन आतंकवाद और अलगाववाद राज्य में फैल गया और नागरिकों को खामियाजा भुगतना पड़ा।
 
प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा जम्मू-कश्मीर की नीतियों एकतरफा फैसले लेने के बाद भी सरदार पटेल का राज्य के लिए मोह कभी कम नहीं हुआ। पाकिस्तान के हमले के बाद राज्य की सुरक्षा के लिए हर दिन 4 लाख रुपए खर्च हो रहे थे। इसकी जानकारी खुद सरदार ने दिल्ली में एक सार्वजनिक पुस्तकालय ने उद्घाटन के दौरान दी। इसी दिन उन्होंने साफ किया हमारा जम्मू-कश्मीर में अभियान चलता रहेगा और हम एक इंच भी पीछे नहीं हटने वाले है। ऐसा उन्होंने कलकत्ता में भी 3 जनवरी, 1948 को दोहराया।
 
इस पाकिस्तानी हमले ने सरदार पटेल को बेहद आहत कर दिया था। उन्हें हमलावरों द्वारा लूट-पाट, आगजनी, बलात्कार और सामूहिक नरसंहार की घटनाओं से भरे पत्र लगातार मिल रहे थे। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार बारामुला में तीन दिनों के अंदर हमलावरों ने 3000 लोगों की हत्या कर दी थी। इसमें पुरुषों और बच्चों के साथ गर्भवती महिलाएं भी शामिल थी। इन हमलों में हिन्दुओं और सिखों को ही निशाना बनाया जाता था। दिल्ली से रेडियो ब्रॉडकास्ट में भी उन्होंने इस हिंसा को अमानवीय बताया था।
 
सरदार पटेल इन घटनाओं की रोकथाम को लेकर प्रयासरत थे। उन्होंने रक्षा मंत्री बलदेव सिंह के साथ राज्य का दौरा भी किया। भारतीय सेना और स्थानीय पुलिस को जरूरत के सभी उपकरण एवं हथियार उपलब्ध कराए। साथ ही दूरदराज के गांवों को आत्मरक्षा के लिए हथियार दिए गए। इसके अलावा इस हमले का एक अन्य पहलू भी था। जिसमें हिन्दुओं के नरसंहार पर सरदार को भारत के मुस्लिम नेताओं का रुख भी अखर रहा था। इस नाराजगी को उन्होंने 6 जनवरी, 1948 को लखनऊ में जाहिर किया। यह उनके अनेक भाषणों में से सबसे ज्यादा चर्चित रहा क्योंकि उन्होंने पहली बार पाकिस्तान, मुस्लिम लीग और भारत के मुसलमानों पर खुलकर चर्चा की थी।
 
दरअसल पंजाब और जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं के नरसंहार पर भारतीय मुस्लिम नेताओं ने कोई विरोध नहीं किया। सरदार के भाषण से कुछ दिनों पहले आल इंडिया मुस्लिम कांफ्रेंस की बैठक बुलाई गयी थी। सरदार को उम्मीद थी कि हिन्दुओं पर हिंसा के खिलाफ वहां कुछ चर्चा होगी। जब ऐसा कुछ नही हुआ तो लखनऊ में उन्होंने साफ कह दिया कि जो मुसलमान भारत के प्रति वफादार नहीं है उन्हें यहां से जाना होगा। इसके बाद मुस्लिम नेताओं ने सरदार की शिकायत महात्मा गाँधी से की। सरदार ने बॉम्बे में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि मैं कमजोर इंसान नहीं हूँ जिसका बचाव दूसरों को करना पड़े।
 
यह सब वाकये दर्शाते है कि भारत के विभाजन से लेकर 1950 में उनके निधन तक के सालों में उनका सारा ध्यान भारत की अखंडता को बनाये रखने में था। इसमें जम्मू-कश्मीर भी प्रमुखता से शामिल था। सरदार के पास राज्य के बेहतर भविष्य के लिए एक सटीक सोच थी। उन्होंने सही और गलत को पहचान कर निर्णय लेने की क्षमता का उपयोग किया। वे जो कहते थे अथवा करते थे, उसके पीछे का मकसद भी स्पष्ट होता था। सरदार की यही सोच उन्हें लौह पुरुष की संज्ञा देती है।