25 नवंबर, 1947 मीरपुर नरसंहार: जब पाकिस्तानी सेना ने 35 हज़ार हिन्दूओं का कत्लेआम किया और नेहरू ने आँखें फेर ली थी
   25-नवंबर-2019
 
 
 
 मीरपुर नरसंहार से पहले का घटनाक्रम
 
 
ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ 1846 की अमृतसर सन्धि से सम्पूर्ण जम्मू कश्मीर क्षेत्र महाराजा गुलाब सिंह के आधिपत्य में पहले से ही था, जो सन्धि की शर्तों के अंतर्गत, देशी रियासतों की आजादी के बाद और 1947 के भारत स्वतन्त्रता अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार ,अब महाराजा गुलाब सिंह के उत्तराधिकारी तत्कालीन महाराजा हरिसिंह के निर्णयाधीन था। निर्णयाधीन इसलिए क्योंकि कानून के अनुसार महाराजा ही एक मात्र निर्णयकर्ता थे कि उनकी स्टेट का विलय भारत संघ में हो या पाकिस्तान में । महाराजा हरिसिंह आजादी के बाद पहले दिन से ही जम्मू कश्मीर के भारत संघ में विलय का मन बना चुके थे और मन्तव्य स्पष्ट भी कर चुके थे। लेकिन वो दबाव में थे ।
 
 
दबाव यह था कि महाराजा हरिसिंह के 1932 में लंदन के गोलमेज सम्मेलन में स्वराज समर्थन में दिए भाषण से माउंटबेटन और अंग्रेज महाराज से नाराज थे ,और अंग्रेज अपनी वैश्विक कूटनीति के कारण जम्मू कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहते थे । जिन्ना को जम्मू कश्मीर के पाकिस्तान में विलय से मना कर दो टूक जवाब देने से जिन्ना भी महाराजा को हमले की धमकी दे रहा था ।
 
 
पाकिस्तान में शेख अब्दुल्ला के महाराजा विरोधी आंदोलन के समर्थन में जम्मू कश्मीर आये नेहरू को गिरफ्तार करने से नेहरू भी नाराज थे और उनकी मांग थी कि भारत संघ में विलय के पहले उस शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का प्रशासनिक प्रमुख बनाया जाए जिसे कश्मीर घाटी के बाहर कोई नही जानता था और शर्त यह भी थी कि महाराज हरिसिंह कश्मीर छोड़ दें ।
 
 
मोहनदास गांधी भी अप्रत्यक्ष रूप से जम्मू कश्मीर के बारे में अज्ञानतावश या जानबूझकर तथाकथित जनमत को लेकर महाराजा हरिसिंह पर पाकिस्तान के पक्ष में अप्रत्यक्ष दबाव बना रहे थे ।
 
 
 
 
 
शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का शासक बनाने पर ही भारत मे विलय की नेहरू की शर्त जम्मू कश्मीर में लद्दाख ,जम्मू ,तिब्बत इत्यादि बहुसंख्यक जनता के हित में न होने से महाराजा को अशांति की शंका थी ।
 
 
लेकिन बाद में आरएसएस के सरसंघ चालक श्री गुरुजी गोलवरकर और सरदार पटेल द्वारा समझाने के बाद और शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपने की शर्त पूरी होने पर 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के भारत संघ मे विलय पत्र पर हस्ताक्षर और ततपश्चात 27 अक्टूबर 1947 को भारत सरकार की विलय की स्वीकृति के बाद 31 अक्टूबर 1947 में भारत की सेना , पाकिस्तान की ट्राइबल आर्मी का प्रतिकार करने जम्मू कश्मीर पहुंची।
 
 
परन्तु इसके पहले पाकिस्तानी ट्राइबल आर्मी मीरपुर मुजफ्फराबाद तक पहुंच गई थी। मीरपुर में जम्मू-कश्मीर की जो आठ सौ सैनिकों की चौकी थी, उसमें आधे से अधिक मुसलमान सैनिक थे, वे अपने हथियारों समेत पाकिस्तान की सेना से जा मिले थे। मीरपुर के लिए तीन महीने तक कोई सैनिक सहायता नहीं पहुंची। शहर में 17 मोर्चों पर बाहर से आए हमलावरों को महाराजा की सेना की छोटी-सी टुकड़ी ने रोका हुआ था। लेकिन सैनिक लड़ते हुए मरते जा रहे थे। उस समय मीरपुर जम्मू-कश्मीर रियासत का एक हिंदू बहुल शहर था। इसके पास भिम्बर और कोटली जैसे बड़े कस्बे थे जो आज जिले बन चुके हैं।
 
 
विदित हो कि मीरपुर से विभाजन के समय सभी मुसलमान 15 अगस्त 1947 के कुछ दिन बाद ही बिना किसी नुकसान के पाकिस्तान चले गए थे ,और पाकिस्तान के पंजाब से हजारों हिंदू और सिख मीरपुर में आ गए थे। इस कारण उस समय मीरपुर में हिंदुओं की संख्या करीब 40 हजार हो गई थी।
 
 
पाकिस्तान से आये ये हिन्दू मीरपुर के पाकिस्तान गए मुसलमानों के खाली मकानों के अलावा वहां के गुरुद्वारा दमदमा साहिब, आर्य समाज, सनातन धर्म सभा और सभी मंदिरों में शरणार्थियों के रूप में रह रहे थे। कोटली, पुंछ और मुजफ्फराबाद में भी यही स्थिति थी ।
 
 

 
 
 
 
पाकिस्तानी ट्राइबल आर्मी के अत्याचारों की खबर से मीरपुर के हालात लगातार बिगड़ते जा रहे थे। महाराजा हरिसिंह के सलाहकार मेहरचंद महाजन ने शेख अब्दुल्ला को बताया कि मीरपुर में 40 हजार से ज्यादा हिंदू-सिख फंसे हुए हैं। उन्हें सुरक्षित लाने के लिए कुछ किया जाना चाहिए। लेकिन मीरपुर में शेख अब्दुल्ला ने अतिरिक्त सेना नहीं भेजी।
 
 
तब जम्मू का एक प्रतिनिधि मंडल दिल्ली गया और नेहरू से मीरपुर के हालात पर चर्चा करने पहुंचा ,पर नेहरू ने पूरे प्रतिनिधि मंडल को कमरे से बाहर निकलवा दिया और अकेले मेहरचंद महाजन से बात की। मीरपुर की हालत की जानकारी के बाद भी नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से ही बात करने कहा। लेकिन शेख से तो ये लोग पहले ही मिल चुके थे उससे निराश होकर ही दिल्ली आए थे इसलिए इसके बाद यह लोग सरदार वल्लभ भाई पटेल के पास गए। सरदार ने कहा कि वह बेबस हैं। इस बात पर पंडित जी से बात बिगड़ चुकी है। पटेल ने कहा कि पंडित नेहरू कल (15 नवम्बर, 1947) जम्मू जा रहे हैं। आप वहां उनसे मिले सकते हैं।
 
 
उसके बाद दिल्ली में ही ये लोग महात्मा गांधी से भी मिले तो उन्होंने जवाब दिया कि मीरपुर तो बर्फ से ढका हुआ है। उनको यह भी नहीं पता था कि मीरपुर में तो बर्फ ही नहीं पड़ती। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि यहां नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर ही अमल किया क्योंकि शेख अब्दुल्ला भी 13 नवंबर को दिल्ली में ही था ।
14 नवंबर को नेहरू ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलवाई और सेना मुख्यालय को सेना झंगड़ से आगे बढ़ने से रोकने के आदेश दिए। मीरपुर की ओर पीर पंचाल की ऊंची पहाड़ी है। यहां तक भारतीय सेनाओं का नियंत्रण हो चुका था। परंतु आदेश न मिलने के कारण सेना आगे नहीं बढ़ी।
 
 
 
15 नवंबर को जब पंडित नेहरू जम्मू पहुंचे तो हजारों लोग उनका इंतजार कर रहे थे। लेकिन नेहरूजी बिना किसी से बात किए चले गए।
 
 
नेहरू सरकार ने यहां अपना कब्जा मजबूत करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया और न ही कश्मीर की तत्कालीन सरकार ने हिंदुओं की रक्षा के लिए सेना की टुकड़ी ही यहां भेजी।
 
 
16 नवंबर को पाकिस्तान को पता चला कि भारतीय सेनाएं जम्मू से मीरपुर की ओर चली थीं, उनको उड़ी जाने के आदेश दिए गए हैं।
 
 
 
मीरपुर नरसंहार 
 
 
उधर मीरपुर शहर में जो हुआ, वह बहुत ही दर्दनाक था। पाकिस्तान की फौज ने शहर को घेर कर हर हिन्दू का कत्लेआम कर दिया। किसी परिवार का एक व्यक्ति मारा गया था, किसी के दो व्यक्ति। कई ऐसे थे जिनकी आंखों के सामने उनके भाइयों, माता-पिता और बच्चो को मार दिया गया था। कई ऐसे थे जो रो-रो कर बता रहे थे कि कैसे वे लोग उनकी बहन-बेटियों को उठाकर ले गए।
 
 

 
 
 
25 नवबंर को हवाई उड़ान से वापस आए एक पायलट से भारतीय सेनाओं को भी पता चल गया था कि मीरपुर से हजारों की संख्या में काफिला चल चुका है और पाकिस्तानी सेना ने शहर लूटना शुरू कर दिया है। लेकिन सेना दिल्ली से आदेश न मिलने पर लाचार थी ।


 
मीरपुर में उत्तर की ओर गुरुद्वारा दमदमा साहिब और सनातन धर्म मंदिर थे। इनके बीच में एक बहुत बड़ा सरोवर और गहरा कुआं था। लगभग 75 प्रतिशत लोग कचहरी से आगे निकल चुके थे। शेष महिलाओं, लड़कियों और बूढ़ों को पाकिस्तानी कबाइलियों (सैनिकों) ने इस मैदान में घेर लिया।
 
 
आर्य समाज के स्कूल के छात्रावास में 100 छात्राएं थीं। छात्रावास की अधीक्षिका ने लड़कियों से कहा अपने दुपट्टे की पगड़ी सर पर बांधकर और भगवान का नाम लेकर कुओं में छलांग लगा दें और मरने से पहले भगवान से प्रार्थना करें कि अगले जन्म में वे महिला नहीं, बल्कि पुरुष बनें। बाद में उन्होंने खुद भी छलांग लगा दी। कुंआ इतना गहरा था कि पानी भी दिखाई नहीं देता था। ऐसे ही सैकड़ों महिलाओं ने अपनी लाज बचाई।
 
 
 
बहुत से लोग अपनी हवेली के तहखानों में परिवार सहित जा छुपे, लेकिन वहशियों ने उन्हें ढूंढ निकाला। मर्दों और बूढ़ों को मार दिया। उस दौरान पाकिस्तानी सेना सारी हदें पार कर चुकी थी। 25 नवंबर के आसपास पांच हजार हिंदू लड़कियों को वे लोग पकड़ कर ले गए। बाद में इनमें से कई को पाकिस्तान, अफगानिस्तान और अरब देशों में बेचा गया।
 
 
कबाइलियों ने बाकी लोगों का पीछा करने के बजाय नौजवान लड़कियों को पकड़ लिया और शहर को लूटना शुरू कर दिया। इसी दौरान वहां से भागे हुए मुसलमान मीरपुर वापस आ गए और शाम तक शहर को लूटते रहे। उन सबको पता था कि किस घर में कितना माल और सोना है।
 
 
मीरपुर को लूटने में लगे पाकिस्तानी सैनिकों ने यहां से करीब दो घंटे पहले निकल चुके काफिले का पीछा नहीं किया। काफिला अगली पहाड़ियों पर पहुंच गया। वहां तीन रास्ते निकलते थे। तीनों पर काफिला बंट गया। जिसको जहां रास्ता मिला, भागता रहा। पहला काफिला सीधे रास्ते की तरफ चल दिया जो झंगड़ की तरफ जाता था। दूसरा कस गुमा की ओर चल दिया। पहला काफिला दूसरी पहाड़ी तक पहुंच चुका था, परंतु उसके पीछे वाले काफिले को कबाइलियों ने घेर लिया।
 
 
उन दरिंदों ने जवान लड़कियों को एक तरफ कर दिया और बाकी सबको मारना शुरू कर दिया।
 
 
कबाइली और पाकिस्तानी उस पहाड़ी पर जितने आदमी थे, उन सबको मारकर नीचे की ओर बढ़ गए। इस घटनाक्रम में 18,000 से ज्यादा लोग मारे गए।
 
 

 
 
 
फॉरगॉटन एट्रोसिटीज़: मेमोरीज़ ऑफ़ अ सर्वाइवर ऑफ़ द 1947 पार्टीशन ऑफ़ इंडिया, लेखक के. गुप्ता की लिखी किताब में ये घटनाएं और तथ्य सिलसिलेवार उद्घृत हैं ।
 
 
वर्तमान में मीरपुर पाकिस्तान में है लेकिन वहां पुराने मीरपुर का नामोनिशान बाकी नहीं है। पुराने मीरपुर को पाकिस्तान ने झेलम नदी पर मंगला बाँध बना कर डुबो दिया है। यहां के अधिकांश वाशिंदे अब लंदन में बस गए हैं और पाकिस्तान ने यहां की डेमोग्राफी बदल कर इस जगह की सांस्कृतिक आभा नष्ट कर दी है । बचे हैं तो कुछ मंदिरों के खण्डर और अवशेष ।
 
 
आज मीरपुर में हिन्दुओ के हत्यारे एलओसी के उस और तथाकथित आजाद कश्मीर के नाम से बैठे हैं ।
 
 
वहीं इस और मीरपुर से माल और सगे सम्बन्धियो की जान गवां कर जैसे तैसे बच कर आये लोगों को जम्मू कश्मीर की पीआरसी नही होने के चलते 70 सालों तक रिफ्यूजी का जीवन जीना पड़ा, वो भी अपने ही पुरखो की धरती पर।