24 साल का एक पश्तून नौजवान- जिसने पाकिस्तानी सत्ता की चूलें हिला दीं, 1971 के बाद पाकिस्तानी आर्मी के लिए सबसे बड़ी चुनौती
   07-Feb-2019
 
 
करीब 5 साल पहले मई 2014 में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा की गोमल यूनिवर्सिटी में जब एक 20 साला स्टूडेंट ने एक छोटी सी पहल शुरू की, जिसका नाम रखा गया महसूद तहफुज़ मूवमेंट। जिसका मकसद था उसके इलाके वजीरिस्तान के महसूद में पाकिस्तानी आर्मी द्वारा बिछायी गयी लैंडमाइंस को हटाने के लिए मुहिम शुरू करना। ये लैंडमाइन्स पाकिस्तान ने तहरीके-तालिबान-पाकिस्तान के सफाये के लिए शुरू किये ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़्ब में बिछायीं थी। जिनको बाद में हटाया नहीं गया। इन लैंडमाइन्स की वजह से इन इलाकों में रहने वाले पश्तूनों की जान जा रही थी। जिसके नतीजे में महसूद तहफुज़ मूवमेंट शुरू किया गया और इसको शुरू करने वाला स्टूडेंट था... मंजूर पश्तीन। अगले कुछ सालों में महसूद तहफुज मूवमेंट पश्तून तहफुज़ मूवमेंट में तब्दील हो गया और मंजूर पश्तीन पश्तूनों के हकूक के लिए लड़ने वाला वो नाम बन गया। जो एक जमाने में बंगालियों के लिए मुजीबुर्रहमान का नाम हुआ करता था। 
 
आज 24 साल का ये नौजवान मंजूर पश्तीन पाकिस्तानी सत्ता आर्मी और आईएसआई के लिए सबसे बड़ा सिर-दर्द बन चुका है।
 
 
 
मंजूर पश्तीन कैसे बना स्टूडेंट लीडर से पश्तूनों का इंटरनेशनल लीडर
 
पश्तीन का जन्म खैबर पख्तूख्वा के साउथ वजीरिस्तान में 25 अक्टूबर,1994 को हुआ था। जिसका नाता एक गरीब कबीले मंजूर महसूद से हैं। उनके पिता अब्दुल वदूद महसूद एक स्कूल टीचर थे। पाकिस्तानी आर्मी द्वारा टीटीपी और हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान जर्ब-ए-अज़्ब की वजह से हजारों पश्तूनों की जानें गंवानी पड़ी। जबकि हजारों पश्तून बेघर हो गये। यहां तक कि पाकिस्तानी आर्मी और वायुसेना के हमलों की वजह से हजारों पाकिस्तानी पश्तून देश छोड़कर भागने के लिए मजबूर हो गए और कुछ अपनी जान बचाने के लिए अफगानिस्तान जाकर बस गए। मुश्किल हालत में बचपन गुजारने वाले मंजूर भी इसी के कारण बेघर हो गए थे और उनके खानदार को डेरा इस्माइल खान में बेघर लोगों के लिए लगे शिविर में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा।

मंजूर अहमद पश्तीन चार भाई और तीन बहनों में सबसे बड़े हैं। आज से आठ-नौ साल पहले तक मंजूर अहमद का राजनीति से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं था। 2011 में जब उन्होंने गोमल यूनिवर्सिटी डेरा इस्माईल खान में दाखिला लिया तो उनको महसूस हुआ कि पूरे कबीलाई इलाकों में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध के नाम पर पाकिस्तान ने आम लोगों की जिंदगी तबाह कर रखी है। यहीं से दमन और शोषण के खिलाफ मंजूर के अंदर का क्रांतिकारी इंसान जाग उठा। 2014 में मंजूर यूनिवर्सिटी की एक ट्राइबल स्टूडेंट संगठन में शामिल हुए और उसके अध्यक्ष निर्वाचित हुए। यूनिवर्सिटी से डिग्री पूरी करने के बाद सोशल मीडिया पर एक विडियो वायरल हुआ जिसमें दिखाई दे रहा था कि उनके इलाके की महिलाओं का अपमान किया गया है। इस घटना के खिलाफ मंजूर पश्तीन और उनके आठ साथियों ने डेरा इस्माईल खान में एक बड़े विरोध-प्रदर्शन का आयोजन किया।
 
 
 
मंजूर अहमद पश्तीन का नाम दुनिया और मीडिया के सामने तब आना शुरू हुआ जब जनवरी 2018 में आईएसआई के इशारे पर पुलिस ने मंजूर पश्तीन के साथी नकीबुल्ला महसूद की फर्जी एनकाउंटर में हत्या कर दी। इसके बाद मंजूर पश्तीन ने 26 फरवरी, 2018 को खैबर पख्तूनखवा के शहर डेरा इस्माईल खान से विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया और कई शहरों से गुजरते हुए इस्लामाबाद प्रेस क्लब के सामने एक पश्तून नेता की हत्या के खिलाफ धरना शुरू कर दिया। देखते ही देखते इस आंदोलन में भारी संख्या में पश्तून जुड़ने लगे। नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तानी तत्कालीन पीएम अब्बासी को मामले में दखल देकर, मांगे मानने का आश्वासन देकर धरना बंद करवाना पड़ा।
 
 
 
 
लेकिन आईएसआई और आर्मी इंटैसिजेंस की ज्यादती मंजूर पश्तीन के संगठन पश्तून तहफुज़ मूवमेंट से जुड़े लोगों पर बढ़ती गयी। पीटीएम के कई कारकूनों को फर्जी एनकाउंटर में मार दिया गया, सैंकड़ों लापता कर दिये गये, माना जाता है कि वो इंटैलिजेंस की गैरकानूनी गिरफ्त में हैं।
 
 
 
 
पाकिस्तान के सरकारी आकंड़ों के मुताबिक देश में करीब 1.4 करोड़ पश्तून रहते हैं। जोकि मूलत: पश्तो बोलते हैं और सांस्कृतिक रूप से सीमा पार अफगानिस्तान के ज्यादा करीब हैं। जिसके चलते पाकिस्तान के सत्ता पर काबिज पंजाबी और उर्दू भाषियों के लिए हमेशा शक के दायरे में रहते हैं। पाकिस्तान के मेनस्ट्रीम मीडिया में भी पीटीएम के आंदोलनों और इंटरव्यूज़ को बैन कर दिया गया है। पीटीएम आंदोलन सिर्फ सोशल मीडिया के सहारे आगे बढ रहा है।
 
 
 

 
 नकीबुल्लाह के एनकाउंटर के बाद तेज़ हुआ आंदोलन 
 
फरवरी 2019 के पहले हफ्ते में पीटीएम के एक और साथी अरमान लूनी की हिरासत में हत्या कर दी गयी। जिसके बाद मंजूर पश्तीन की अगुवाई में पीटीएम ने 5 फरवरी को पाकिस्तान के 24 शहरों और दुनिया भर के कई देशों में एक धरना-प्रदर्शनों का आयोजन किया। एक अनुमान के मुताबिक इन धरनों में करीब 10 लाख पश्तूनों ने हिस्सा लिया। जिसका नतीज़ा ये हुआ कि पाकिस्तानी आर्मी ने फिर मंजूर पश्तीन और उनके साथियों को हिरासत में लेकर डराने की कोशिश की। लेकिन सोशल मीडिया पर PTM के पक्ष में एक बड़ा समर्थन खड़ा हो गया। एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे ह्यूमनराइट संगठनों ने भी पाकिस्तानी सत्ता के दमन का विरोध किया।
 
 
 
चौतरफा निंदा के बाद पाकिस्तानी आर्मी को फिर से झुकना पड़ा और मंजूर के ज्यादातर साथियों को छोड़ना पड़ा।
जानकारों का मानना है कि पीटीएम आंदोलन के साथ जिस तरीके से पश्तून जुड़ रहे हैं। उतना बड़ा आंदोलन पाकिस्तान में 1971 के बांग्लादेश बनने के बाद कभी नहीं हुआ। आंदोलन का स्वरूप भी कुछ ऐसा ही है।
 

 
 

मंजूर पश्तीन की टोपी भी हिट-
 
 
मंजूर पश्तीन एक खास मजारी टोपी पहनते हैं, जोकि मूलत: अफगानिस्तान के मजार-ए-शरीफ में पहनी जाती है। लेकिन आज ये टोपी पश्तून तहफुज़ मूवमेंट का खास हिस्सा बन चुकी है। पश्तून विरोध स्वरूप इस टोपी को पहनते हैं। पाकिस्तान में इस टोपी का नाम भी पश्तीन टोपी पड़ चुका है।