पुलवामा हमला और देश की एकजुटता को तोडने की कोशिश, एक ही साजिश के 2 हिस्से
   10-मार्च-2019
 
 
लेखक- आशुतोष भटनागर
 
पुलवामा घटना के बाद देश के तमाम हिस्सों से कश्मीरियों पर हमले की खबरें आयीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर कड़ा रुख अपनाते हुए सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों को कश्मीरियों की सुरक्षा के लिये तुरंत आवश्यक कार्रवाई करने के निर्देश दिये।
 
यद्यपि केन्द्र सरकार ने सर्वदलीय बैठक के तुरंत बाद ही कश्मीरियों की सुरक्षा के संबंध में सूचना जारी की थी, गृह मंत्रालय द्वारा एडवाइजरी जारी कर इसे दोहराया गया। लेकिन याचिकाकर्ता ने इसे कश्मीरियों के साथ ही शेष भारत के मुसलमानों के साथ जोड़ दिया। इसे कुछ माह पहले हुई मॉब लिंचिग की घटनाओं से जोड़ कर दिखाने की कोशिश हुई। इस पर अदालत ने यह आदेश भी कर दिया कि गोरक्षकों के हमलों से निपटने के लिये नोडल अधिकारी बनाये गये पुलिस अधिकारी ही अब राज्यों में कश्मीरियों के खिलाफ हो रही हिंसक घटनाओं पर कार्रवाई करेंगे।
 
14 फरवरी को आत्मघाती हमले में 49 जवानों के बलिदान के बाद देश में गुस्सा उफान पर है। कुछ अराजक तत्व ऐसे माहौल का फायदा उठा समाज में वैमनस्य पैदा करने का प्रयास करते हैं। यह निंदनीय है और ऐसे तत्वों पर लगाम लगाया जाना बेहद जरूरी है। सर्वोच्च न्यायालय की चुस्ती ऐसे अवसरों पर जरूरी है।
 
सोशल मीडिया के दौर में न्यायालय की पहल से बहुत पहले फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स एप पर इसके अभियान चलते हैं। पेशेवर लोग इन्हें मिनटों में ट्रेन्ड कराने की क्षमता रखते हैं। लेकिन इसका सबसे खतरनाक पहलू है घटना की सत्यता की जाँच का कोई माध्यम और समय न होना। परिणामस्वरूप, पुलिस के सक्रिय होने तक अथवा न्यायालय तक पहुंचने से पहले ही सोशल मीडिया में मीडिया ट्रायल पूरा हो जाता है। अनेक बार इसके चलते ऐसा नुकसान हो चुका होता है जिसकी भरपायी संभव नहीं होती अथवा जिसका राष्ट्रव्यापी असर होता है।
 
14 फरवरी के बाद कश्मीरियों के साथ हुई घटनाओं में भी तीन पहलू साफ देखे जा सकते हैं। पहला, ऐसे अराजक तत्व, जो अक्सर ऐसे अवसरों की तलाश में रहते हैं। वे सड़कों पर आ गये और किसी समुदाय विशेष के निर्दोष व्यक्ति को निशाना बनाया। संवेदनाओं के ज्वार में कभी-कभी अनेक असंबद्ध लोग भी इसमें जुड़कर भीड़ का रूप ले लेते हैं। एक जिम्मेदार नागरिक के स्थान पर वे भी भीड़ की तरह व्यवहार करने लगते हैं और घटना का हिस्सा बन जाते हैं। ऐसी घटनाओं पर विचार करने से पूर्व यह विवेक रखना होगा कि वे अराजक लोग जो इस घटना के दोषी हैं, बच न पायें और जो उनके जाल में फंस कर भीड़ में शामिल हो गये, उन्हें सीख तो मिले लेकिन अपराधी जैसा व्यवहार नहीं। लेकिन ऐसी घटनाओं के पीड़ितों को न्याय मिलना और वास्तविक दोषियों को कठोर दण्ड मिलना अत्यंत आवश्यक है। भारत का संविधान देश के प्रत्येक नागरिक के लिये संवैधानिक सीमाओं में रह कर कहीं भी आने-जाने, रहने और गतिविधि करने की स्वतंत्रता देता है और इसे सुनिश्चित किया जाना अनिवार्य है। कश्मीर के निवासी भी किसी अन्य की तरह भारतीय नागरिक हैं और भारतीय संविधान उन्हें समान अधिकार प्रदान करता है। इन अधिकारों का हनन करने वाले अराजक तत्वों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई से ही संविधान के शासन के प्रति विश्वास पनपता है।
 
 
 
 कुछ चेहरे जिन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल खड़े किये
 
वहीं दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जो सोशल मीडिया में चल रहे संदेशों को बिना देखे अथवा बिना उसका निहितार्थ समझे उसे आगे बढ़ा देते हैं और कभी-कभी संकट में पड़ जाते हैं। ज्यादातर मामलों में ऐसे लोग निर्दोष होते हैं। इन्हें अपराधी नहीं बल्कि लापरवाह की श्रेणी में रखा जा सकता है। यद्यपि ऐसी किसी लापरवाही को भी क्षमा नहीं किया जा सकता जिसके कारण राष्ट्रीय एकता ही खतरे में पड़ जाय। आगे ऐसी गलती न हो, इतनी सीख तो उन्हें भी मिलनी चाहिये। लेकिन सोशल मीडिया की निगरानी और एक नागरिक के नाते उनकी भूमिका के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था न होने के कारण ऐसी परिस्थितियां बार-बार उत्पन्न होती हैं।
 
तीसरा समूह है उनका जो अच्छी तरह जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। ऐसे संवेदनशील मौके पर भी बहुसंख्यक संवेदनाओं की खिल्ली उड़ाते हुए जो लोग ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाते हैं, सोशल मीडिया पर बधाइयाँ देते हैं और जश्न मनाते हैं, उन्हें मासूम नहीं ठहराया जा सकता। ऐसा कौन सा राज्य है जहाँ पुलवामा के हमले के बाद बलिदानी सैनिकों के शव न पहुंचे हों। जब हर देशभक्त आंख से आंसू बह रहे हों, यह स्वीकार करने के बाद भी, कि कुछ लोगों की सोच अलग है, इसलिये वे दुख में शामिल नहीं हैं, यह स्वीकार्य नहीं हो सकता कि दुख में डूबे देश की संवेदनाओं से खेलने का अधिकार उन्हें हासिल है।
 
कश्मीर की घटना के बाद वहां के प्रायः सभी स्थानीय राजनेताओं ने ऐसा किया भी। माना जा सकता है कि भारत और भारतीयों के प्रति उन्हें अपनापन नहीं लगता इसलिये उन्हें श्रद्धांजलि देने की औपचारिकता के लिये भी विवश नहीं किया जा सकता। इसलिये उन्होंने शायद कुछ घंटों के लिये ही मौन साधना उचित समझा, हालांकि अगले दिन ही वे अपने पुराने स्टैंड पर वापस आ गये। लेकिन भावनाओं के इस उफान के बाद भी कश्मीरियों के साथ जो गिनी-चुनी घटनाएं हुईं उनमें किसी के हताहत होने का कोई समाचार नहीं है।
 
वास्तव में भावुकता के क्षण में भी देश ने विवेक का परिचय जिस तरह दिया वह रेखांकित करने योग्य है। केन्द्र द्वारा राज्यों के लिये एडवाइजरी जारी करने और स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा सार्वजनिक अपील किये जाने को भी इस क्रम में जोड कर देखा जाना चाहिये। तुलना के लिये स्व. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री के बयान और उसके बाद हुए नरसंहार को देखा जा सकता है। जाहिर है जिनके दिलों में प्रधानमंत्री मोदी के लिये नफरत सुलग रही है वे उन्हें इसका श्रेय देने को तैयार नहीं होंगे। लेकिन क्या वे इस सकारात्मकता को भी महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि देश सिख नरसंहार और बाबरी विवाद के दौर से बाहर आ गया है और भावनाओं पर जरूरी नियंत्रण कर अपनी विवेकशीलता का परिचय दे रहा है।
 
पुलवामा घटना के बाद कश्मीरियों के साथ अपवादस्वरूप हुई इन घटनाओं की पडताल की जानी भी जरूरी है। इन घटनाओं में नहीं, किन्तु इन घटनाओं की रिपोर्टिंग में और उन्हें लेकर सोशलमीडिया में हुई हलचल में एक ‘पैटर्न’ नजर आता है। प्रथमदृष्टया यह भी लगता है कि यह एक सुविचारित अभियान था जिसकी परिणति सर्वोच्च न्यायालय से अपेक्षित निर्देश प्राप्त करने में हुई। याचिकाकर्ता ही नहीं, सोशल मीडिया के अभियान में शामिल सभी लोग इन घटनाओं पर तो गुस्सा जता रहे थे किन्तु इस राष्ट्रीय शोक के अवसर पर जश्न मनाने और एक प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन की प्रशंसा करने वाली टिप्पणियां करने की आलोचना तो दूर, जख्मों पर नमक छिड़कने जैसी यह टिप्पणियां नहीं करनी चहिये, ऐसी साधारण नसीहत देने की जरूरत भी नहीं समझी गयी।
 
एक और गंभीर पहलू, ज्यादातर घटनाएं पाकिस्तान अथवा जैश के समर्थन अथवा भारत विरोधी टिप्पणियों के बाद ही हुईं। किसी को बिना उकसावे के केवल कश्मीरी होने के नाते प्रताड़ित किया गया हो, ऐसी घटना शायद ही कहीं हुई हो। लेकिन इससे भी आगे, वह मुस्लिम है इसलिये प्रताडित हुआ, ऐसी घटना तो इस एक पखवाड़े में सुनने को नहीं मिली। फिर भी याचिका में कश्मीरियों के साथ मुस्लिम को भी जोड़ दिया गया। वह क्यों ? इससे ठीक पहले एक मीडिया समूह ने घटना में बलिदान होने वाले सैन्य बलों को जातियों में बाँट कर दिखाया। यह अप्रासंगिक ही नहीं अप्रिय भी था।
 
पुलवामा की घटना के विरुद्ध जाति-पंथ से ऊपर उठ कर पूरा देश जिस तरह एकजुट हुआ है वह स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभूतपूर्व है। ऐसे में सैनिकों को जाति और पीड़ितों को सम्प्रदाय के खांचों में बांटने की कोशिश क्या इस एकजुटता को तोड़ने की साजिश तो नहीं ? संदेह इसलिये गहराता है क्योंकि इस अभियान के पीछे भी वही चेहरे सकिय दिख रहे हैं जो जेएनयू में 'भारत तेरे टुकड़े' गैंग के साथ खड़े नजर आ रहे थे।
(आशुतोष भटनागर जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक हैं)