आतंकवाद और पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई का समय, चूके तो होगी हार !!
   07-मार्च-2019

 
लेखक- आशुतोष भटनागर
 
14 फरवरी को कश्मीर के गोरीपोरा में आत्मघाती हमले में सीआरपीएफ के 49 जवानों का बलिदान हुआ। दर्जनों घायल हैं जिनमें से कुछ की स्थिति गंभीर है। हमला जैश-ए-मुहम्मद के अफजल गुरु स्क्वॉड ने किया है जिसे पाकिस्तान भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता रहा है। पहले से रिकॉर्ड किये गये हमलावर आदिल के एक वीडियो को बाद में जैश ने जारी कर हमले की जिम्मेदारी भी ली।
 
सरकार के सामने यह घटना चुनौती के रूप में आयी है जबकि आम चुनाव सिर्फ दो महीने दूर हैं। पिछले कुछ समय से आतंकियों के खिलाफ चल रही कार्रवाई को एक सफलता के रूप में देख रहा देश इस घटना से स्तब्ध है। ऑपरेशन ऑल-आउट के चलते जिस तरह से घाटी में सक्रिय सभी आतंकी समूह बैकफुट पर आ गये थे उससे यह आशंका तो थी कि वे किसी बड़ी घटना को अंजाम देने की कोशिश करेंगे। सरकार को चुनौती देने से अधिक उनके अपने कैडर के खोते आत्मविश्वास को बनाये रखने के लिये यह जरूरी था। जिस तरह से सुरक्षा बल आतंकियों का सफाया कर रहे थे उसके चलते उन्हें अपने परंपरागत ठिकानों और समर्थकों का भी साथ मिलना कम होता जा रहा था।
 
हाल ही में इशरत की जिस दरिंदगी से उन्होंने हत्या की और उसका वीडियो वायरल किया उससे उनकी निराशा की भी झलक मिलती है और अपने ही साथियों और समर्थकों को धमकाने की कोशिश की भी। संक्षेप में, साम-दाम-भय और भेद द्वारा अपने निरंतर सिकुड़ते जा रहे आधार को बचाये रखने की कोशिश भी इसमें शामिल है। इसमें अगर कुछ अलग है तो वह है किसी कश्मीरी आतंकी का आत्मघाती के रूप में इस्तेमाल। अफगानिस्तान और सीरिया में तो यह होता रहा है किन्तु कश्मीर घाटी में यह अपवाद ही है। खबरें यह भी आ रही हैं कि जैश ने आदिल के अलावा चार और आतंकियों को भी आत्मघाती हमले के लिये तैयार किया है। आगे देखना होगा कि यह घटना अपवाद ही रहेगी अथवा कश्मीर में आतंकवाद एक नये दौर में प्रवेश कर गया है।
 

 
 
दुर्भाग्य यह है कि ऐसे समय में भी, जब देश गुस्से से उबल रहा है, आतंकवाद के खिलाफ एकजुट है, देश की राजनीति का रुझान इसे राष्ट्रीय संकल्प के रूप में लेने के स्थान पर वोटों की गणित साधने की ओर ज्यादा है। घटना के बाद बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक में पारित प्रस्ताव में पाकिस्तान का नाम तक नहीं नहीं लिया गया। सरकार की ओर से प्रस्तुत प्रस्ताव के मसौदे में कहा गया था कि सभी दल सुरक्षा बलों और केन्द्र व राज्य सरकारों की ओर से किये जा रहे प्रयासों के साथ हैं, लेकिन विपक्षी दलों के सुझाव के बाद प्रस्ताव से केन्द्र व राज्य सरकारों का उल्लेख हटा दिया गया। अनेक राज्यों में सरकार चला रहे विपक्षी दल ऐसा करके किसे और क्या संदेश देना चाहते हैं, यह प्रश्न चिन्ह है।
 
घटना के समाचार आने के ठीक बाद जो प्रतिक्रियाएं राजनैतिक दलों के द्वारा आयीं वे स्वागत योग्य तो नहीं ही थीं। यह जरूर है कि देश में बने माहौल को देखते हुए उनमें बाद में सुधार किया गया। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने मोदी सरकार पर राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता करने का आरोप लगाया वहीं केन्द्र पर हमले का कोई मौका नहीं चूकने वाली शिवसेना की प्रवक्ता मनीषा कायंदे ने हमले रोकने के लिये मोदी सरकार की पूरी तैयारी न होने की बात कही। भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हो मंत्री बने नवजोत सिद्धू ने एक बार फिर अपने बेतुके बोल बोले।
 
पूरे मामले में जो सबसे चिंताजनक पहलू है वह है इस माहौल में भी जश्न मनाने की घटनाओं का सामने आना। इससे भी आगे, जो लोग इससे खुश हुए, उन्होंने अपनी खुशी को सोशल मीडिया पर जाहिर भी किया। ऐसी घटनाएं पूरे देश में सामने आयीं। एक राष्ट्रीय चैनल की समाचार उपसंपादक द्वारा भी आपत्तिजनक ट्वीट किया गया। इन घटनाओं को देख कर लगता है कि मोदी के नेतृत्व को लेकर जो राजनैतिक प्रतिद्वंदिता अथवा वैचारिक विरोध है वह रंजिश की हद तक पहुंच गया है। मोदी विरोध के लिये वे पुलवामा घटना पर उपजी पूरे देश की संवेदना को ताक पर रख सकते हैं।
 
जम्मू कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी सहित अनेक स्थानीय राजनैतिक दलों ने घटना की निन्दा की औपचारिकता के बाद देश भर में कश्मीरियों पर होने वाले अत्याचारों की घटनाओं को लेकर सोशल मीडिया अभियान छेड़ दिया। जबकि इनमें से कुछ को छोड कर अधिकांश आधारहीन थीं। सर्वदलीय बैठक में भाग लेने के बाद नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने कहा – यह सरकार की गलती है कि उसने वक्त रहते कश्मीरियों की आवाज और मांगें नहीं सुनीं। आप हमारे बच्चों को टारगेट कर रहे हैं और हमारी परेशानियां बढ़ा रहे हैं। पुलवामा में जो भी हुआ उसके लिये हम कश्मीरियों को जिम्मेदार न ठहराइये। पुलवामा जैसे हमले होते रहेंगे और तब तक बंद नहीं होंगे, जब तक कि कश्मीर मसले को राजनैतिक रूप से सुलझा नहीं लिया जाता। उमर और महबूबा मुफ्ती की बाद की प्रतिक्रियाएं भी शब्दों के हेर-फेर के साथ एक जैसी ही थीं।
 
जम्मू में सरकारी कर्मचारियों के क्वार्टर से इस संवेदनशील मौके पर भी पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगना सच में चिंताजनक है। इससे कुछ दिन पहले भी जब जम्मू-श्रीनगर हाईवे बर्फबारी के कारण रुक गया था तो कश्मीरी समूह में मौजूद कुछ लोगों ने पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगा कर माहौल खराब करने की कोशिश की थी। इससे भड़के कॉलेज विद्यार्थियों पर पुलिस ने लाठी भांजी थी और आनन-फानन में उन्हें विशेष विमानों द्वारा श्रीनगर पहुंचाया गया था। इससे उपजा गुस्सा ही था जो पुलवामा घटना के बाद ज्यादा तीखे विरोध के रूप में सामने आया और नौबत कर्फ्यू लगाने तक जा पहुंची।
 
कश्मीर के स्थानीय राजनैतिक दल और कथित सिविल सोसायटी हमेशा की तरह देश की संवेदनाओं से निर्लिप्त बने रहे। उनके नेताओं अथवा प्रतिनिधियों ने जवानों को श्रद्धांजलि देने की भी जरूरत नहीं समझी। खासतौर पर फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती, तीनों ही मुख्यमंत्री के रूप में यूनीफाइड कमांड के मुखिया रह चुके हैं और उनके कार्यकाल में सुरक्षा के मुद्दे पर नीतिगत स्तर पर लिये गये राजनैतिक फैसलों का यह परिणाम है। पिछले सत्तर वर्षों में से अधिकांश समय इन दोनों में से कोई न कोई परिवार राज्य की सत्ता पर काबिज रहा है। आज स्थिति जहां पहुंच गयी है उसके लिये वे ज्यादा जिम्मेदार हैं और इससे वे इनकार नहीं कर सकते।
 

 
 
पुलवामा की घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। इसमें सुरक्षा और इंटेलिजेन्स की भारी चूक है जिसका विष्लेषण संबंधित एजेंसियां करेंगी। लेकिन इसके पीछे बड़ा कारण जम्मू कश्मीर के भारत में अधिमिलन के बाद से ही रचा गया झूठ और भ्रम का मायाजाल और प्रश्नों से आंखें चुराने की आदत भी है। गढ़े गये झूठ का खणडन करने के बजाय जिम्मेदार लोग चुप रहे और अलगाववादियों को वॉक-ओवर दे दिया गया। जिन्हें पाकिस्तान पाल-पोस रहा था, उन्हें ही और अधिक सुविधाएं देकर हमने उनकी निष्ठाएं खरीदने की कोशिश की। संसाधनों की बंदरबाँट और लूट हुई। सत्ता किसी की रही हो, राज्य की जनता हमेशा छली गयी।
 
2014 को एक निर्णायक बिन्दु माना जा सकता है। इसलिये नहीं कि नीतिगत पंगुता समाप्त हो गयी है। वह अब भी कमो-बेश वैसी ही है क्योंकि कार्यकारी शक्तियां राज्य में जिन व्यक्तियों और संस्थानों के पास हैं वे इसमें बदल के लिये तैयार नहीं। अंतर यह आया है मोदी सरकार ने बिचौलियों को हटाकर सीधे जनता से संवाद करने और उनकी जरूरतों को पूरा करने की कोशिश की है। इसके चलते केन्द्र द्वारा उपलब्ध कराये गये संसाधनों पर कब्जा बनाये रखने वाला वर्ग अपने राजनैतिक मतभेद भुलाकर इस पहल के खिलाफ एकजुट है। उनकी बेचैनी में ही उजले भविष्य की धुंधली परछाईं देखी जा सकती है।
 
सबसे महत्वपूर्ण, जम्मू कश्मीर के प्रश्न को लेकर देश आज जिस तरह एकजुट हो उठ खड़ा हुआ है, वैसा कभी नहीं हुआ। वर्तमान प्रधानमंत्री से देश को उम्मीद है। यह निर्णायक कार्रवाई का समय है। इसी से देश की जनता का विश्वास भी जीता जा सकता है क्योंकि आक्रोष में भरे देश को इससे कम स्वीकार नहीं।
 
( लेखक आशुतोष भटनागर, जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक हैं)