सिनेमा जगत में पैर पसारते राष्ट्र-विरोधी स्वर: Freedom of Expression VS Propaganda
   04-अप्रैल-2019
 
लेखक: हेमन्त हिंदूस्तानी
 
 
सिनेमा, मनोरंजन के साथ साथ ज्ञान, जानकारी व प्रचार-प्रसार का बेहतरीन माध्यम है। हमारे मन-मस्तिष्क पर इसकी छाप बहुत ही तीव्र और गहरी होती है। व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण एकाग्रता से इसको देखता, सुनता व समझता है। कईं दफा तो स्वयं को ही अदाकारों की जगह अनुभव करने लगता है। किसी भी विषय व मुद्दे को समाज मे उठाने व आग की तरह फैलाने मे इसकी अहम भूमिका होती है।
 
 
सिनेमा जगत मे अगर सबसे महत्वपूर्ण कोई व्यक्ति होता है, जिसके इशारे पर सारी कहानी पर्दे पर उतरती है तो वो है निर्देशक। हर निर्देशक की किसी न किसी क्षेत्र मे विशेष रूचि होती है और वो अपनी उसी रुचि के इर्द-गिर्द की कहानियों को एकत्र कर फिल्मों में दिखाता है। आज हम बात करते हैं एक ऐसे ही निर्देशक की। जिनकी रुचि भारत के अभिन्न अंग जम्मू-कश्मीर कश्मीर मे है। उनका नाम है अश्विन कुमार।
 
 
 
अश्विन कुमार कलकत्ता मे जन्में हैं वो एक मशहूर फैशन डिजाइनर ऋतु कुमार के बेटे है। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा LA MARTINIERE Kolkata, modern school, और THE DOON SCHOOL, देहरादून से की। उच्च शिक्षा दिल्ली के ST. STEPHEN'S COLLEGE से की है। जिसमे वो SHAKESPEARE SOCIETY के सक्रिय सदस्य भी थे। उसके बाद वो GOLDSMITH’S UNIVERSITY, London गए जहाँ से उन्होंने Media and communication मे स्नातक किया।
 
 
 
अश्विन कुमार का दिल व रुचि जम्मू- कश्मीर मे रमती है और ऐसा हो भी कैसे ना? इनके दादा जी और माताजी के परिवार का यहाँ से गहरा रिश्ता जुड़ा हुआ है। इनका परिवार हर साल गर्मियों की छुट्टियों मे एक दफा कश्मीर जरूर जाता था। लेकिन यह जाना 1989 मे आतंकवाद के कारण भड़के दंगो की वजह से अचानक रूक सा गया। कई वर्षों बाद जब अश्विन 2009 की गर्मियों मे वहाँ आये तो उनके अनुसार वो जगह पूरी तरह से बदल चुकी थी। जगह जगह पड़े हुए तारो के जालो, बंकरो, बन्दूको, खण्डरो ने उनके मन को घायल कर दिया। उनके इस अनुभव ने उनकी मानसिकता को कश्मीर और भारतीय सेना के प्रति पूरी तरह से बदल दिया था । नकारात्मक विचारों की भावनाएं उनके हृदय मे बस गयी। उन्हें कश्मीर मे ख़ुद को भारतीय कहने मे शर्मिंदगी महसूस होने लगी। यहीं से उन्होंने ठान लिया था के वो अपने काम व काबिलियत के दम पर भारतीय सेना की छवि को समाज मे दागदार करके रहेंगे। अपनी इस मंशा को पूरा करने के लिए उन्होंने कश्मीर विषय पर दो डॉक्यूमेंट्री बनाई। और अब तीसरी फ़िल्म बनकर तैयार है जिसकी Release तिथि 5 अप्रैल 2019 रखी हुई है।
 
 
 
 
 
 
अश्विन सिनेमा जगत मे कोई छोटा नाम नहीं है। 2004 मे उनकी पहली फ़िल्म ROAD TO LADAKH आयी। 2005 में बनी हुई एक short फ़िल्म 'LITTLE TERRORIST' OSCOR के लिए nominated हो चुकी है। 2010 मे इन्होंने अपने स्कूल की यादों को ताजा करने के लिए DAZED IN DOON बनाई और 2012 में FOREST आई।
 
 
 
अगर इनकी कश्मीर विषय पर बनाई हुई डॉक्यूमेंट्री के इतिहास और उसके निष्कर्ष पर गौर किया जाए तो ज्ञात होता है के इनके इरादे भारतीय सेना, एकता-अखण्डता व राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सही नही थें। इनमें अलगावाद, अराजकता और आतंकवाद की राह अपनाने की भावना को बल मिलता है।
  
 
2010 मे बनी 'इंशाअल्ला फुटबॉल' डॉक्यूमेंट्री मे इन्होंने दिखाया के भारत मे किस तरह एक आतंकवादी के बेटे को पासपोर्ट देने से रोका जाता है और उसके पिता के आतंकवादी होने का अंजाम उसका बेटा भी भुगता है। इसमें उम्र अब्दुल्लाह का साक्षात्कार भी इन्होंने चित्रित किया। 
 
 
2012 मे बनी ‘इंशाअल्ला कश्मीर’ को देखने मे आया कि इन्होंने आतंकवादियों के साक्षात्कारों के जरिये भारतीय सेना के जुल्मो-सितम को जाहिर कर समाज मे बदनाम करने के पुरजोर प्रयास किये। उनकी इच्छा लोगो के दिलो मे आतंकवादियो के प्रति सहानुभूति पैदा करने की थी। अलगाववादी जिन मुद्दों को उठा भारतीय सेना को विश्वर स्तर बदनाम करने मे लगे रहते है उनको उठाया। GAWKADAL MASSACRE और KUNAN POSHPORA INCIDENT जैसे मुद्दों से भारतीय सेना को कातिल, बलात्कारी दिखाकर समाज मे उनकी छवि को गिराने के असफल प्रयास किये। उन्होंने इस डॉक्यूमेंट्री मे खुर्रम परवेज, परवीना अहंगार, परवेज इमरोज़ जैसे एक्टिविस्टों के साक्षात्कार पर्दिशत किए। जो हमेशा से ही कश्मीर मे अलगाववाद की भावनाओं को बल देते रहे हैं। सबसे अचरज की बात तो यह है के उन्होने भारीतय सेना के विरुद्ध ASSOCIATION OF PARENTS AND DISAPPEARED PERSONS के live आंदोलन को भी कवर किया।
 
 
 
सेंसर बोर्ड ने इनकी इन दोनों डॉक्यूमेंट्री पर बैन लगा दिया था। लेकिन सिनेमाजगत और उस समय की कांग्रेस शासित सरकार व राजनेताओं की कृपा पाकर ये इन दोनों डॉक्यूमेंट्री मे राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किए गए। मन दु:खता ये सब जानकर के खुलेआम जो शख्स भारत माता की सेवा व सुरक्षा के लिए अपने प्राणो की आहुति देने मे अग्रणी रहने वाले वीर जवानों को विश्व स्तर पर बदनाम करता है। उसे राष्ट्रीय पुरस्कार देकर सम्मानित किया जाता है और अपनी इस उपलब्धि का डंका ये निर्देशक विदेशों में जाकर बजाता है। और हम मूक दर्शक बनकर रह जाते है।
 
 
 
 
यह निर्देशक यही नहीं रुकता। इनके होंसलें औऱ अधिक बुलन्द हो गए थे। इन्होने अपने मन में बैन की गयी documentaries का दर्द लेकर विश्वस्तर पर अपनी एजेंडे को ले जाने के लिए एक और फ़िल्म बनाने की योजना बनाई। आश्विन कश्मीर गए और वहा के लोगों से अपील की, कि जो लोग स्वतन्त्रता और आजादी से प्रेम करते है वो उनकी फ़िल्म को बनाने में उनका सहयोग दे। उनके अनुसार उनकी यह फ़िल्म एक प्रयास है अन्याय के उस भाव को साझा करने का जो वो कश्मीर मे भारतीय होने पर महसूस करते है।
  
 
NATIONAL FILM DEVELOPMENT CORPORATION OF INDIA मे (NFDC) ने 2012 मे अश्विन की फिल्म NOOR को अपने प्रोजेक्ट में जगह दी। इसके बाद 2013 मे PROJECT FORUM OF THE INDEPENDENT FILMMAKER PROJECT (IFP) ने INDEPENDENT FILM WEEK के लिए इसका चुनाव किया। वर्तमान मे इसका नाम बदलकर इन्होंने NO FATHER IN KASHMIR कर दिया है। महिंद्रा ग्रूप के मीडिया डिवीजन MUMBAI MANTRA और SUNDANCE INSTITUTE ने आपने तीसरे वार्षिक lab session के लिए इनकी स्क्रिप्ट का चुनाव किया और इसका lab session 16-21 march 2014 को CLUB MAHINDRA RESORT, Tungi में सम्पन हुआ। इसके बाद आगे की योजनाओ के लिए उन्होंने विदेश की तरफ रूख कर लिया ।
 
  
शुरुआत मे अश्विन ने नूर के लिए ASIA PACIFIC SCREEN ACADEMY CHILDREN’S FILM FUND संस्था से फंड लिया। उस समय इस संस्था को बताया गया के वो एक 10 साल की लड़की के ऊपर फ़िल्म बना रहे है। जबाकी fund पास होने के बाद उसकी उम्र 15 कर दी गई।
 
 
 
अश्विन ने विदेशों से भी fund जुटाना शुरू कर दिया। उन्होंने crowd funding platform KICKSTARTER के माध्यम से पैसे जुटाए। लोगो से चंदा इकट्ठा करने के लिए उन्हीने UK, के लंदन, ब्रैडफोर्ड, मैनचेस्टर, बर्मिंघम जैसे शहरों का चुनाव किया। इन शहरों मे लोगो को आकर्षित करने के लिए उन्होंने अपनी कश्मीर पर बनी हुई डॉक्यूमेंट्री इंशाअल्ला कश्मीर और इंशाल्लाह फुटबॉल दिखाकर भारत विरोधी स्वरों का प्रचार-पसार भी किया और चन्दा भी एकत्र किया। Funding के प्रोमोशन के लिए इन्होंने BBC रेडियो कार्यक्रमों मे भी हिस्सा लिया। और अंततः $100000 की रकम जुटा ली।
 
 
 
कश्मीर के विषय मे अगर इनके विचार देखे जाए तो इनके मतानुसार वहां सेना के 5 लाख जवान पिछले 70 सालों से बलात्कार, सामुहिक कत्ल करने के साथ साथ वहाँ के लोगो को जबरदस्ती गायब कर रहे है। वहा 1 लाख लोगों की जाने जा चुकी है। और 10 हजार लोग लापता है। जब कुछ सामूहिक कब्रे मिलती है। तो उन्हें लगता है के वो उन्ही आम लोगों की है जो लापता हुए है। लेकिन यह घाव और दर्द उनके परिवार के बच्चो और पत्नियों के लिए असहनीय हैं । अश्विन के अनुसार WESTERN MEDIA इन तथ्यो को उजागर नही करता। वो अपनी इस फ़िल्म no father in Kashmir/ Noor के माध्यम से इन सभी NARRATIVES को बदलना चाहते है।
 
 
 
अश्विन के अनुसार यह फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है। जिसकी एक कहानी वहाँ के 10,000 लोगो की कहानियों को बयां करती है। इसकी कहानी मे एक 15 वर्ष की लड़की अपने पिता के गूम होने की गुत्थी सुलझाने के लिए ब्रिटेन से वापिस कश्मीर आती है जिसे भारतीय सेना गिरफ्तार कर लिया था। जब नूर अपने पिता को खोजने जाएगी तो वो कब्र के ढेर से ठोकर खायेगी। इन कब्रो का जिम्मेदार भारतीय सेना को ठहराया जाएगा। और ये दर्शाया जाएगा के कब्र उन्हों लोगों की है जिन्हें भारतीय सेना ने गिरफ्तार करके मार दिया है। जिनके लिए ASSOCIATION OF PARENTS AND DISAPPEARED PERSON नाम की संस्था जगह जगह प्रोटेस्ट करती है। नूर इन कब्र की pictures को अपने कैमरे मे कैद कर लेगी। उसे भारीतय सेना गिरफ्तार कर लेगी। माजीद जो नूर के पिता के दोस्त का लड़का है वो नूर से प्रेम करता है वो उसे छुड़ाने के प्रयास मे खुद भी गिरफ्तार कर लिया जाता है। बाद मे भारीतय सेना का मेजर उसे एक शर्त पर छोङने को कहता है के वो उन्हें camera वापिस कर दे जिससे नूर ने उन कब्रो की pictures क्लिक की है। तो वो मजीद को छोड़ देगा। अंततः यह खबर राष्ट्रीय स्तर पर फैल जाती है तो भारतीय सेना नूर को भी गिरफ्तार कर गायब कर देती है।
 
 
 
 
इस फ़िल्म मे आजादी के नारे लग रहे है। जो अलगावाद की भावनाओं को बल दे रहा है और भारत की एकता और अखंडता पर चोट कर रहा है। भारतीय सेना को मासूम लोगो का कातिल दर्शाया गया। अलगाववादी, आंदोलनकारी संस्था APDP का भारतीय सेना के खिलाफ प्रदर्शन दर्शाया गया। आतंकवादियों के साथ फोटोशूट की इतनी बेक़रारी और बेताबी दिखाना क्या आतंकवाद को बढावा नही देगा? नागरिकों के गायब होने के आरोप भारतीय सेना पर मढ़कर समाज मे बदनाम करने के प्रयास किये गए। भारतीय सेना की नकारात्मक छवि दर्शायी गयी।
 
 
 
इस फ़िल्म के ट्रेलर रिलीस होने के समय जाने माने निर्देशक महेश भट्ट और उनकी पत्नी सोनी राजदान भी मौजूद थी। इन्होंने अश्विन का इस फ़िल्म को बनाने व release करवाने मे पूरा सहयोग किया है। जब इसे बैन किया गया था तब अदाकारा सोनी राजदान , आलिया भट्ट , स्वरा भास्कर और कांग्रेस के दिग्गज नेता शशि थरूर भी बैन हटाने के समर्थन मे उतरे थे। अश्विन ने ट्रेलर रिलीस के समय भारतीय सेना के प्रति जो प्रतिक्रिया दी क्या वो सही थी। उन्होंने कहा था के हमारे देश की सेना को फ़िल्म सेंसर बोर्ड से सुरक्षा की जरूरत है। उन्हें इसके लिये एक सेंसर बोर्ड के रूप मे एक स्पोक्सपर्सन चाहिए क्योंकि वो उनकी निगरानी मे हुए अनिष्टों को सहन नही कर सकते। उन्होंने राष्ट्रहित मे बात करने वाले पत्रकार अर्नब गोस्वामी को जहरीला बताया।
 
 
 
CENTRAL BOARD OF FILM CERTIFICATION (CBFC) द्वारा बैन किये जाने बाद भी इन्होंने लम्बी खींचतान के बाद FILM CERTIFICATION APPELLATE (FCAT) में माध्यम से अपनी इस फ़िल्म को U/A CERTIFICATE दिलवा ही दिया।
 
 
 
कुछ सवाल है जिनके जवाब हर कोई जानना चाहेगा। क्या अश्विन की राष्ट्र विरोधी डॉक्यूमेंट्री 'इंशाअल्ला कश्मीर' और 'इंशाल्लाह फुटबॉल' को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जाना चाहिए था? इस फ़िल्म के ट्रेलर को देखते हुए उपरोक्त तथ्यो को ध्यान मे रखकर क्या इस फ़िल्म को U/A certificate देना सही था?
 
 
 
जिस मानसकिता और उद्देश्य से अश्विन ने no father in Kashmir/Noor बनाई। अगर वो कामयाब हुई तो राष्ट्रहित में इसके परिणाम कितने भयंकर हो सकते है ये सोचते हुए भी रूह कांप उठती है। जो director भारत विरोधी डॉक्यूमेंट्री को विश्व मे घूम-घूमकर मुफ्त में दिखा सकता है. वो इस फ़िल्म को कहा और कैसे इस्तेमाल करेगा इसका अंदाजा आप स्वयं लगा सकते है। शायद इस फ़िल्म के जरिये ही अश्विन Western Media की रुचि कश्मीर की और दिलाने के प्रयास कर सकता है। सिनेमा जगत मे बैठे हुए कुछ एजेंटों के माध्यम से क्या पता वो इसे ऑस्कर तक भी ले जाये तो इसमें संशय नहीं।