इंटरनेशनल मीडिया में मुसलमानों के झूठे डर को बेचकर जेब भर रहे हैं लिबरल पत्रकार, वाशिंगटन पोस्ट में राणा अयूब के लेफ्टिस्ट एजेंडे का पर्दाफाश
   19-मई-2019
 
 
लेखक- प्रखर श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार
 
 
राणा अयूब देश की एक जानी-मानी पत्रकार हैं । वे हमेशा से विवादों में रहती हैं, लेकिन पहली बार मुझे उनके एक लेख से बेहद दुख पहुँचा है। ये लेख हाल ही में अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट में छपा है। इस लेख में उन्होंने लिखा है कि भारत के मुसलमानों को 23 मई का डर सता रहा है कि कहीं मोदी वापस सत्ता में न आ जाएँ । उन्होंने ये भी कहा कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है। राणा अयूब के भारत को नीचा दिखाने वाले इस लेख में बताया गया है कि इस देश में मुस्लिम कितने भयभीत हैं और आने वाले चुनाव परिणाम को लेकर कितने चिंतित हैं। इस लेख को हथियार बना कर पाकिस्तान के पत्रकार ट्विटर के ज़रिए हमारे देश और लोकतंत्र का मज़ाक बना रहे हैं ।
 
 
 
इस लेख में सबसे आपत्तिजनक है इसके साथ छपा एक इलेस्ट्रेशन (चित्र), जिसमें राहुल गाँधी को तो कुर्ते पायजामें में दिखाया गया है, लेकिन मोदी एक फौजी वर्दी वाले तानाशाह की तरह दिखाए गए हैं, और वो दोनों इस देश के दो टुकड़े करते दिख रहे हैं (ये चित्र आप कमेंट बॉक्स में देख सकते हैं) अपनी इसी कपोल कल्पना को सही साबित करने के लिए राणा अयूब ने लेख में कई "अजीबो गरीब" तर्क दिए हैं । आज मैं उस लेख मे छपे हर तर्क का जवाब देना चाहता हूं... शुरुआत अपने व्यक्तिगत अनुभव से करूँगा।
 

राणा अयूब का तर्क - वो लिखती हैं कि एमएनसी में काम करने वाले उनके भाई को मुंबई में सिर्फ इसलिए फ्लैट छोड़ देना पड़ा क्योंकि उस पॉश बिल्डिंग में रहने वाले हिंदू पड़ोसी नहीं चाहते कि वहाँ कोई मुसलमान रहे।
 
 
 
 
 
राणा अयूब को जवाब - राणा अयूब जी, मैं भी दिल्ली एनसीआर की एक अच्छी-खासी सोसाइटी में रहता हूँ और मेरी सोसाइटी के अध्यक्ष एक मुसलमान हैं । मैंने खुद उन्हें वोट दिया था और आगे भी दूँगा , क्योंकि वो हमारी सोसाइटी के भले के लिए दिन रात सोचते हैं । वो भी आपके भाई की तरह एमएनसी में नौकरी करते हैं, और दिन भर दफ्तर में थकने के बाद अपना सारा समय सोसाइटी को देते हैं । शायद यही वजह है कि आज हमारी सोसाइटी पूरे इलाके में सबसे अच्छी मानी जाती है । इस अनुभव के आधार पर मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी भी पड़ोसी की इज़्ज़त उसके उसके धर्म से नहीं, उसके कर्म से तय होती है।
 
 
राणा अयूब का तर्क - वो लिखती हैं कि 1993 के दंगों में उनके परिवार को हिंदू इलाका छोड़ कर मुस्लिम इलाके में बसना पड़ा था, लेकिन अब 'नफरत' सरकार की पॉलिसी बन चुकी है।
 
 
 
राणा अयूब को जवाब - राणा अयूब जी, 1992 और 93 के दंगों के दौरान मैं भोपाल में रहता था और वहाँ भी बेहद खूनी दंगा हुआ था। मुस्लिम इलाकों में रहने वाले मेरे भी कई जान-पहचान वालों को हिंदू इलाकों में शरण लेनी पड़ी थी। मैडम दंगे होते हैं तो ये सब होता है... चाहे वो उस तरफ हो या इस तरफ... पिसता सिर्फ मासूम है।
 
 
 
 
 
 
 
 
राणा अयूब का तर्क - वो लिखती हैं कि मेरे कई मुस्लिम रिश्तेदार और दोस्त ये कहते हैं कि अगर मोदी फिर चुनाव जीत गए तो वो हिंदुस्तान छोड़ कर किसी "फ्रैंडली कंट्रीज़" में बस जाना चाहेंगे । वो अपने बच्चों को विदेश में पढ़ने के लिए भेज देंगे ।
 
 
 
राणा अयूब को जवाब - राणा अयूब जी, ये बताइए आखिर इस देश के कितने मुसलमान विदेश में बसने का माद्दा रखते हैं ??? आज भी इस देश के ज्यादातर मुस्लिम अपने जीवन की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने के लिए जूझ रहे हैं और इसके लिए मोदी नहीं बल्कि वो सरकारें ज्यादा जिम्मेदार हैं जिन्होंने साठ साल तक मुसलमानों के वोट तो लिए लेकिन उन्हे साठ पैसे की मदद तक नहीं पहुँचाई और इसके लिए आप जैसे मुस्लिम बुद्धिजीवी भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते, क्योंकि आप जैसे लोगों ने अपने तबके में सिर्फ निगेटिविटी फैलाई है।
 
 
 
राणा अयूब का तर्क - वो लिखती हैं कि इस चुनाव में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह विदेशी घुसपैठियों को निकालने की बात कर रहे हैं और उनका इशारा सिर्फ मुस्लिम घुसपैठियों की तरफ है।
 
 
 
राणा अयूब को जवाब - मैडम, अगर कोई देश अपने यहाँ गैर कानूनी तौर से बसे विदेशियों को निकालना चाहता है तो इसमें क्या गलत है ??? अब आप ही बताइए अगर मैं धोखे से साउदी अरब में घुस जाऊँ , तो वहाँ की सरकार मेरी आरती तो उतारेगी नहीं । ज़ाहिर है मुझे बाहर फेंक दिया जाएगा । मतलब अब विदेशी घुसपैठियों को बाहर निकालना भी नफ़रत फैलाना हो गया ???
 

 
 
बीते शुक्रवार दिल्ली के व्यस्ततम बाज़ार, पहाड़गंज में नमाज पढ़ते मुस्लिम
 
 
 
राणा अयूब का तर्क - वो लिखती हैं कि इस देश में ज़्यादातर मुसलमान दूसरे दर्जे के नागिरक की तरह ज़िंदगी जीते हैं क्योंकि इसके लिए उन्हें इस देश के नेताओं ने मजबूर किया है । 23 मई को अगर मोदी आयेंगें तो ये नफरत और बढ़ जाएगी।
 
 

राना अयूब को जवाब - मैडम, पहली बात तो मुसलमान इस देश में दूसरे दर्जे का नागरिक नहीं हैं । उसे वो सभी हक़ हासिल हैं जो मुझे हैं और कई मायनों में तो उसे मुझ जैसे हिंदुओं से भी ज्यादा हक़ हासिल हैं । रही बात गरीबी और अशिक्षा की तो हिंदू धर्म में भी कई ऐसे लोग हैं जिन्हें दो वक्त की भी रोटी नसीब नहीं हैं । और जहाँ तक बात नफ़रत की है तो, भारत 2014 के पहले कोई शांति का टापू तो था नहीं । आज़ादी के साथ ही इस देश में दंगों और नफ़रत का बीज पड़ गया था । समय मिले तो गुजरात दंगों के अलावा देश मे बाकी 70 साल में हुए दंगों का रिकॉर्ड निकाल कर देख लिजिएगा।
 
 
 
मैडम राणा अयूब, मैं जानता हूँ कि पिछले कुछ सालों में आपको कई बार सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया है । यकीन मानिए मेरा इरादा आपको ट्रोल करने का बिल्कुल नहीं है । मैं किसी भी तरह की ट्रोलिंग के खिलाफ हूँ, खासकर किसी महिला को तो बिल्कुल ट्रोल नहीं किया जाना चाहिए । लेकिन मैं बस आपसे इतना ही कहना चाहता हूँ कि ये देश जितना मेरा है, उतना ही आपका भी है । इस देश में मुसलमान पहले भी सुरक्षित थे और 23 मई के बाद भी सुरक्षित रहेंगें, चाहे कोई भी चुनाव जीते, कोई भी हारे... इस देश का लोकतंत्र अमर है, अमर रहेगा... आपका बहुत-बहुत धन्यवाद !!!
 
 
 
 
राणा अयूब का परिचय
 
राणा अयूब पहले तहलका मैगजीन में काम करती थीं । इसी दौरान उन्होने गुजरात दंगों और उसके बाद हुए पुलिस एनकाउंटर्स में मोदी की भूमिका पर एक सनसनीखेज़ इनवेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग की । ये और बात है कि उनकी इन रिपोर्टस को तहलका मैगजीन ने छापने से इनकार कर दिया था क्योंकि वो रिपोर्ट्स पूरी नहीं थी । इसे लेकर तहलका मैगजीन और राणा अयूब के बीच विवाद भी हुआ, जो ऑन रिकॉर्ड है । ख़ैर बाद में इन रिपोर्ट्स को राणा अयूब ने एक किताब ''गुजरात फाइल्स'' की शक्ल दे दी और जो काफी विवादित किताब रही । अपने रिपोर्टिंग करियर में राणा अयूब ने भगवा आतंकवाद की थ्योरी को सही साबित करने वाली कई ख़बरें ब्रेक कीं । उस दौर में पत्रकारिता जगत में ये सवाल बार-बार उठता था कि आखिर साध्वी प्रज्ञा या असीमानंद से जुड़ी हर निगेटिव ख़बर, जाँच ऐजेंसी NIA से राणा अयूब और आशीष खेतान (पूर्व पत्रकार और वर्तमान में AAP के नेता) को ही क्यों मिलती है ??? डॉ. प्रवीण तिवारी ने भगवा आतंकवाद की थ्योरी को एक बहुत बड़ा षड़यंत्र बताने वाली अपनी किताब The Great Indian Conspiracy में तब की NIA और कुछ खास पत्रकारों की साँठ-गाँठ पर कई सवाल उठाए हैं।