जून 1953, जम्मू कश्मीर- जब लोकतांत्रिक भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने करायी राष्ट्रवादी सत्याग्रह की हत्या, नेहरू के पत्रों ने खोला तानाशाही साजिश का राज़
    22-जून-2019

 
यह लेख प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा गृह मंत्री कैलाश नाथ काटजू को 26 मई, 1953 और पंजाब के मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर को 28 मई, 1953 को लिखे दो पत्रों पर आधरित है (नेहरु मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, जे.एन. - एस.जी. 182)
 
 
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू लोकतंत्र की बातें जरूर करते थे लेकिन डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लेकर वे हमेशा अलोकतांत्रिक रहे। विपक्ष जैसा कोई शब्द उनके शब्दकोश में नही था। कम से कम भारतीय जनसंघ के 1952-1953 के जम्मू-कश्मीर सत्याग्रह के मामले यह बात साबित हो जाती है। उस दौरान जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान को पूर्ण रूप से लागू करने के लिए डॉ. मुखर्जी प्रयासरत थे। इस बीच 11 मई, 1953 को उन्हें अवैध तरीके से गिरफ्तार कर लिया गया। अब प्रधानमंत्री नेहरू पहले से भी ज्यादा असहिष्णु नज़र आने लगे। उन्होंने कांग्रेस सरकार के मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल सहित उच्च अधिकारियों तक को जनसंघ के खिलाफ उतार दिया।
 
 
शेख अब्दुल्ला ने डॉ. मुखर्जी को श्रीनगर में कैद करके रखा था। उनकी गिरफ़्तारी के विरोध में देश भर में प्रदर्शन होने लगे। दिल्ली सत्याग्रहियों का केंद्र बन गया था, लेकिन वे अब सीधे पठानकोट की ओर जाने लगे। सैकड़ों की संख्या में पंजाब और जम्मू-कश्मीर की सीमा पर सत्याग्रहियों को गिरफ्तार किया जाने लगा। चूँकि केंद्र सरकार पहले जैसी स्थिति में नहीं थी कि वह जम्मू-कश्मीर के संबंध में मनचाहा काम कर सके। प्रधानमंत्री नेहरू के लिए स्थिति असहज हो गयी थी। उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्री कैलाश नाथ काटजू को पत्र लिखकर कहा, “अगर जनसंघ का यह आन्दोलन चलता रहेगा तो हमें अधिक बल का प्रयोग करना पड़ेगा। ढिलाई की कोई अनुमति नहीं होगी और सभी अधिकारियों को इस सम्बन्ध में निर्देश दे दीजिए।”
 
 
इस जम्मू-कश्मीर सत्याग्रह से कांग्रेस की लोकप्रियता भी कम होने लगी थी। डॉ. मुखर्जी की सार्वजनिक सभाओं में हज़ारों की संख्या में लोग आते थे। उनके संसदीय भाषण इतने गंभीर और तथ्यों से भरे होते थे कि अखबारों में उन्हें पूरा प्रकाशित किया जाता था। कांग्रेस सरकार के गठन को अभी एक साल से भी कम समय हुआ था। देश की अखंडता के मुद्दे पर विपक्ष का इस तरह से मजबूत होना सरकार को रास नहीं आ रहा था। प्रधानमंत्री नेहरू ने उस दौरान जनसंघ पर जितने भी पत्र लिखे, उन सभी में उनकी असहनीयता साफ़ झलकती है।
 

 
 
मई के आखिरी सप्ताह में प्रधानमंत्री का एक महीने के लिए विदेश दौरा प्रस्तावित था। जाने से पहले उन्होंने कांग्रेस नेता और पंजाब के मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर को एक पत्र लिखा। जिसकी प्रति पंजाब के राज्यपाल सी.पी.एन. सिंह को भी भेजी। उस पत्र में उन्होंने लिखा, “मैं चाहता हूँ कि भविष्य में आप इस मामले पर कठोरता से कार्रवाई करेंगे। बाद में, अगर इस रास्ते में न्यायालय आते हैं तो हम उनसे भी निपट लेंगे। जनसंघ का यह आन्दोलन उत्तर प्रदेश, पंजाब और अन्य स्थानों के कुछ संपन्न लोगों की भारी मात्रा में पूंजी के प्रवाह पर निर्भर है। इन पूंजी देने को स्पष्ट रूप से यह आभास करा देना चाहिए कि सरकार उनसे खुश नहीं है और वे मानकर चले कि सरकार उनके व्यापार और किसी अन्य मामलों में सहायता नहीं करेगी।”
 
 
 
जम्मू-कश्मीर में अपनी गलतियों को ठीक करने के बजाय प्रधानमंत्री का ध्यान जनसंघ को कुचलने पर ज्यादा था। इस पत्र से साफ़ पता चलता है कि उन्हें किसी न्यायालय का डर नही था। जनसंघ के समर्थकों को खुलकर धमकी दी जा रही थी। जबकि वे भूल गए कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कांग्रेस का संपर्क उस ज़माने के बड़े उद्योगपतियों से था। जमनालाल बजाज और जी.डी. बिडला जैसे कई राष्ट्रवादी नाम थे जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस को समर्थन दिया। ब्रिटिश सरकार ने इन उद्योगपतियों को व्यक्तिगत रूप से कोई हानि नहीं पहुंचाई। आज़ादी के बाद देश की पहली लोकतांत्रिक सरकार ने ब्रिटिश सरकार से भी ज्यादा दमनकारी व्यवस्था को पैदा कर दिया था।
 
 
जनसंघ के इस सत्याग्रह में हिस्सा लेने वाले अधिकतर सामान्य नागरिक थे। जिनका राजनीति खासकर जनसंघ से कोई सम्बन्ध नहीं था। चूँकि उन्हें डॉ. मुखर्जी के जम्मू-कश्मीर को लेकर विचार एवं उद्देश्य समझ आ रहे थे। इसलिए इस मुद्दे पर जनसंघ को हर वर्ग का सहयोग मिल रहा था। प्रश्न राष्ट्रीयता का था, जबकि उसे नेहरू व्यक्तिगत और राजनैतिक नजरिये देख रहे थे। उन्हें लगता था कि जनसंघ का सीधा मुकाबला कांग्रेस से न हो जाए।
 
 
दिल्ली और पंजाब में भारी संख्या में सत्याग्रहियों को पुलिस गिरफ्तार कर रही थी। जल्दी ही जेलों में जगह नहीं बची। खबरें ऐसी भी आने लगी कि महात्मा गाँधी की तरह वे सभी जेल में ही सत्याग्रह कर रहे है। प्रधानमंत्री को यह भी नागवार गुजर रहा था। उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री को कहा, “उनमे से अधिकतर राजनीति से एकदम अंजान है। उन्हें इससे जनसंघ के सिद्दांत का बोध और प्रशिक्षित होने का अवसर मिल जाएगा। क्या उन्हें अलग नहीं रखा जा सकता है और उनके सम्बंधित राज्यों में भेज दिया जाए?” सरकार ने इससे निजात पाने के लिए पुलिस को निर्देश दिए कि वह सत्याग्रहियों को रात के समय जंगल में छोड़ आये। इस प्रकार के अमानवीय कृत्य किए गए।
 
 
इस सत्याग्रह की एक ख़ास बात यह थी कि डॉ. मुखर्जी ने कही भी इसका राजनैतिक फायदा नहीं उठाया। उनके भाषणों में व्यक्तिगत आक्षेप नहीं होते थे। उन्होंने सिर्फ वही सवाल उठाये जो जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय से सम्बंधित थे। देश के प्रधानमंत्री को जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक समाधान पर विपक्ष के साथ सहमति बनाने की आवश्यकता थी। क्योंकि राज्य के नागरिकों को मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। न्यायालय और वित्त जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। इसलिए भारतीय जनसंघ का संघर्ष जारी था। हालाँकि इसका दुखद समापन डॉ. मुखर्जी की ‘राज्य प्रायोजित हत्या’ के साथ हुआ।