23 जून 1953, जम्मू कश्मीर में राष्ट्रवादी सत्याग्रह शुरू करने पर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की ‘राज्य प्रायोजित हत्या’, फिर नेहरू ने इसकी जांच भी न होने दी
 
 
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का पार्थिव शरीर अंतिम संस्कार के लिए श्रीनगर से कोलकाता 24 जून, 1953 को लाया गया। उस दिन दो लाख से अधिक लोग अपने नेता को श्रद्धाजंली देने एकत्रित हुए। अगले दिन समाचार पत्रों ने पहले पन्ने पर लिखा, “चारो तरफ लोगों की भीड़ मौजूद थी, इससे पहले ऐसा दृश्य 1925 में ‘देशबंधु’ डॉ. चितरंजन दास के निधन के समय देखा गया था। (अमृत बाज़ार पत्रिका, 24 जून, 1953) यह उस दौर के सबसे जनप्रिय नेता और बेहतरीन संसद सदस्य की ‘राज्य प्रायोजित हत्या’ की दु:खद और मार्मिक तस्वीर है।
 
 
 
दक्षिण कोलकाता से लोकसभा के सदस्य रहे डॉ. मुखर्जी 44 दिनों तक जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी में कैद रहे। शेख अब्दुल्ला का अपना पैतृक गांव सूरा श्रीनगर से 11 किलोमीटर दूर है। राज्य की संविधान सभा के लिए हज़रतबल से शेख का निर्वाचन हुआ, जिसका फासला राज्य मुख्यालय से 9 किलोमीटर है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री कैलाश नाथ काटजू ने 24 मई, 1953 को श्रीनगर के दौरे पर थे। किसी का भी ध्यान डॉ. मुखर्जी पर नही गया। राज्य सरकार ने उन्हें अंत तक रिहा नही किया बल्कि 23 जून, 1953 को उनका शव श्रीनगर के हवाईअड्डे पर रख दिया गया। जहां शेख अब्दुल्ला अपने सहयोगियों के साथ औपचारिकता निभाने के लिए पहुंच गए।
 
 
 
कोलकाता में जब डॉ. मुखर्जी की अंतिम यात्रा निकली गयी, तो उसमें शामिल लोग एक ही बात दोहरा रहे थे, ‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी को क्या हुआ? : ‘जहर दिया गया’, किसने दिया? : ‘शेख ने’। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, मिनिस्ट्री ऑफ़ स्टेट्स, 1(4)–K/53) दरअसल संदिग्ध परिस्थितियों में उनका निधन हुआ था। जिसकी जांच के लिए एक आयोग की मांग की गयी थी, सरकार ने इसे सिरे से नकार दिया था। शेख की शख्सियत तानाशाही प्रवृत्ति की थी, जिसे नेहरू का समर्थन मिला हुआ था। कैद के दौरान राज्य सरकार ने डॉ. मुखर्जी के किसी से भी मिलने पर रोक लगा रखी थी। मुलाकात करने के लिए सरकार से विशेष इजाजत लेनी पड़ती थी। डॉ. मुखर्जी के वकील और संसद सदस्य यू.एम. त्रिवेदी को भी इस लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। दोनों की आपसी बातचीत पर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट गुलाम नबी की निगरानी हमेशा रहती थी।
 
 

 
डॉ मुखर्जी ने नेहरू से कई बार जम्मू कश्मीर में शेख पर काबू करने को कहा, लेकिन नेहरू ने नहीं सुनी
 
 
ऐसे कई तथ्य है जिससे तत्कालीन भारत सरकार की विपक्षी नेताओं के प्रति नकारात्मक शैली का पता चलता है। जैसे डॉ. मुखर्जी का निधन सुबह 3:40 बजे हुआ। जबकि ऑल इंडिया रेडियो ने इसकी सूचना 12:50 बजे प्रसारित की। सूचना प्रसारण मंत्री बी. वी. केसकर से इस देरी के लिए सासंद सी.पी. गिडवानी ने सवाल किया तो उनके पास कोई जवाब ही नहीं था। जबकि ऑल इंडिया रेडियो का एक विशेष संवाददाता श्रीनगर में मौजूद था, जिसके माध्यम यह दुखद सूचना तुरंत प्रेषित की जा सकती थी। यही नहीं डॉ. मुखर्जी के पार्थिव शरीर को राजकीय सम्मान तक नही दिया गया। जिस विमान से उनका शव लाया गया उसके किराए के भुगतान पर भी केंद्र सरकार ने विवाद खड़ा कर दिया। आखिरकार एयरलाइन्स को 7548 रुपए की प्राप्ति के लिए भारत सरकार को कई पत्र लिखने पड़ गए।
 
 
 
प्रधानमंत्री नेहरू 23 जून को कायरो में थे। डॉ. मुखर्जी निधन के तुरंत बाद पहली सफाई शेख की तरफ से आयी, “सरकार सोच रही थी कि श्री जवाहरलाल नेहरू की भारत वापसी के तुरंत बाद ही उन्हें दिल्ली भेज दिया जाये। अब इस कथन का कोई तर्क नहीं था। अगर प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर थे और डॉ. मुखर्जी को शेख रिहा करना चाहते थे, तो वे दिल्ली में गृह मंत्री और अन्य अधिकारियों से संपर्क कर सकते थे। उन्होंने ऐसा नही किया। नजरबंदी से पहले दिल्ली में निषेधात्मक आदेश के उल्लंघन से सम्बंधित एक मामला डॉ. मुखर्जी के खिलाफ लंबित था। ऐसी उम्मीद थी कि इसकी सुनवाई के लिए राज्य सरकार उन्हें दिल्ली भेज देगी।
 
 
 
केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने इस मामले को बेहद निजी दृष्टिकोण से देख रही थी। लगातार मनमानी करने के बाद 2 जुलाई, 1953 को प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा, "कश्मीर का प्रश्न साढ़े-पांच वर्षों से हमारे सामने है। यह कोई आसान समस्या नहीं है और यदि इसका निर्णय शांतिपूर्ण ढंग से किया जाता है, जैसा हम चाहते है और यह होना भी चाहिए, इसके लिए सम्बंधित मुख्य दलों द्वारा एक शांतिपूर्ण दृष्टिकोण की आवश्यकता है।” इस कथन का अब कोई मतलब नहीं रह गया था। डॉ. मुखर्जी ने जीवित रहते एक बार नहीं कई बार शांतिपूर्ण समाधान के लिए हरसंभव सौहार्दपूर्ण कोशिश की थी।
 
 

 
 डॉ भीमराव अंबेडकर के साथ डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अंबेडकर भी जम्मू कश्मीर में शेख की देश विरोधी नीतियों के  विरूद्ध थे
 
 
 
डॉ मुखजी जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा मानते थे। इसके लिए देश भर में जम्मू-कश्मीर सत्याग्रह का नेतृत्व कर रहे थे। मात्र इसी कथित ‘अपराध’ के लिए उन्हें 11 मई को पंजाब और जम्मू-कश्मीर की सीमा पर गिरफ्तार किया गया। डॉ. मुखर्जी ने तत्कालीन सरकार से अनुरोध किया था कि वे इस प्रकार के कार्य न करे कि मानों भारत में तीन राष्ट्रीयताएँ हो – भारतीय, कश्मीरी, और पाकिस्तानी। सत्याग्रहियों पर दमन के लिए उन्होंने सरकार से अनुरोध किया था कि वह हिंसा के रास्ते को छोड़कर शांतिपूर्ण समाधान के लिए चर्चा करे।
 
 
 
 
डॉ. मुखर्जी संभवतः पहले राजनेता थे जिन्होंने सरकार की जम्मू-कश्मीर नीतियों का लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिकार किया था। उन्होंने राज्य की स्थितियों का वहां स्वयं जाकर अवलोकन किया और शेख अब्दुल्ला एवं उनके सहयोगियों से मुलाकात की। उन्होंने नेहरु और शेख दोनों को पत्र लिखे, संसद में अपने विचार रखे, सार्वजनिक सभाएं की और संवाददाता सम्मलेन आयोजित किये। वे जेल भी गए, नज़रबंद कर दिए और अंत में सत्याग्रह करते हुए जम्मू-कश्मीर की धरती से हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह गए। इस प्रकार भारत ने एक महान राष्ट्रवादी नेता खो दिया।