कारगिल युद्ध - अटल बिहारी बाजपेयी के शान्ति के प्रयास लेकिन पाकिस्तान ने किया कारगिल में धोखा
   20-जुलाई-2019



 

भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी शांति के प्रयास में पाकिस्तान से एक कदम आगे रखने के लिए तैयार थे। अपने इसी प्रयास में वह 20 फरवरी, 1999 को 22 विशिष्ट सदस्यों के एक दल के साथ एक डीलक्स बस में सवार होकर भारत-पाकिस्तान सीमा पार करके वाघा पहुंचे । पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने वाघा में उनका स्वागत किया।

लाहौर में वाजपेयी और शरीफ ने लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए जिसमें भारत और पाकिस्तान ने इस बात पर संयुक्त रूप से सहमति जाहिर की कि जम्मू-कश्मीर सहित सभी मुद्दों को सुलझाने के प्रयास तेज किए जाएंगे। साथ ही दोनों देशों ने किसी भी रूप में आतंकवाद की भर्त्सना करने और इसके खिलाफ लड़ने के अपने संकल्प को दोहराया।

अभी लाहौर घोषणापत्र की स्याही सूखी भी नहीं थी, जब पाकिस्तान ने कारगिल में घुसपैठ शुरू कर दी। बर्फ से ढके. चट्टानी पर्वतों की श्रृंखला कारगिल नियंत्रण रेखा के करीब 168 कि.मी. के अग्रभाग तक फैली हुई है।

पर्वत श्रृंखलाओं तथा सामान्य ऊंचाई की चोटियों के साथ करीब 5000 मीटर तक फैला हुआ यह भयंकर क्षेत्र शुष्क है। यहां नवंबर से मई तक बर्फ की मोटी परतें बिछी रहती हैं। विशाल चट्टानों और बर्फ से ढका यह डरावना क्षेत्र जल्दी ही युद्ध का मैदान बन गया। पाकिस्तानी सैनिक स्वतंत्रता सेनानियों के भेष में पाकिस्तान की नार्दन लाइट इन्फेटरी के सैनिकों के साथ भारतीय सैनिकों द्वारा सर्दियों में खाली किए गए बंकरों में घुस गए और नियंत्रण रेखा के भारतीय क्षेत्र में स्थित इन बंकरों के बीच की खाली जगहों में छिप गए

कारगिल सेक्टर में हुई इन घुसपैठों की तरफ सबसे पहले 3 मई, 1999 को दो चरवाहों का ध्यान गया। उन्होंने भारतीय सुरक्षा बलों को सतर्क किया। तत्पश्चात वास्तविकता की जांच के लिए 4 और 6 मई को दो गश्ती दलों को भेजा गया। सात मई, 1999 को घुसपैठ की सूचना की पुष्टि हो गई और भारतीय सैनिकों को वहां भेजा गया। दस मई को बटालिक क्षेत्र में उन्होंने मोर्चा संभाल लिया।

पाकिस्तानी सैनिकों ने 15 अप्रैल, 1999 से ही नियंत्रण रेखा के पास कारगिल की चोटियों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। यानी जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ नेभारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से वाघा तथा लाहौर में मुलाकात की, तब उन्हें कारगिल पर पाकिस्तानियों के हमले की योजना की जानकारी थी। इन योजनाओं को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने अक्तूबर 1998 को अपनी स्वीकृति दी थी।

 

 

घुसपैठ के पीछे आखिर पाकिस्तान का उद्देश्य क्या था

जुलाई 1999 में भारत में सरकार द्वारा गठित कारगिल समीक्षा समिति के अनुसार पाकिस्तान के राजनीतिक-रणनीतिक उद्देश्य निम्न थे:

(क) कश्मीर को ऐसा अंतर्राष्ट्रीय मसला बनाना जिसे लेकर परमाणु युद्ध की आशंका है और जिसमें तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप की तत्काल आवश्यकता है

(ख) नियंत्रण रेखा की पवित्रता को भंगकर कारगिल के अनियंत्रित क्षेत्रों को कब्जे में लेना, तथा

(ग) भारत द्वारा सियाचिन में संभाले गए ठिकानों के खिलाफ संभावित लेन-देन के लिए सौदेबाजी की बेहतर स्थिति प्राप्त करना।

भारतीय सेना की मुख्य रणनीति युद्धविराम सीमा को पार किए बिना भारतीय सीमा की तरफ से सभी पाकिस्तानी सैनिकों को हटाने की थी। इस तरह भारतीय सैनिकों को पाकिस्तानी बलों को आगे से रोकना था और साथ ही उन्हें पीछे की ओर से अलग-थलग करना था। भारतीय वायुसेना को भी कार्यवाही के लिए बुलाया गया, उसने भी भारतीय क्षेत्र में ही कार्यवाही की। बर्फ से ढकी दुर्गम पर्वतश्रेणियों पर 18,000 की फुट पर उड़ान भरना आसान नहीं था। भारतीय वायुसेना को भौगोलिक सीमाओं के भीतर ही उड़ान भरने की सख्त हिदायत थी। भारतीय नौसेना को भी विशेष तौर से पश्चिमी सेक्टर में सतर्क कर दिया गया था। पूर्वी बेड़े ने पश्चिमी बेड़े की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया था। इससे पाकिस्तानी नौसेना बीच में घेरी जाने लगी थी।

युद्धविराम रेखा को पार किए बिना भारतीय क्षेत्र में ही रहने की रणनीति से भारत को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन प्राप्त हुआ। अमेरिका, ब्रिटिश तथा जी-8 देशों सहित चीन ने भारत का समर्थन किया। पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ चीन से मदद मांगने के लिए गए, किंतु उनके हाथ कुछ नहीं लगा।

श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय मार्ग को किसी भी तरह से पाकिस्तानी खतरे से मुक्त करने के लिए भारतीय सेना तथा वायुसेना को संयुक्त रूप से यह कार्यभार सौंपा गया। इन दुर्गम चढाइयों पर, जहां बर्फीली हवाएं काटने को दौड़ती हैं, भारतीय सैनिक एक-एक चोटी पर गए। उन्होंने हिमखंडों से ढकी घाटियों को पार करके दुश्मन को खदेड़ा। उन्हें वायुसेना ने सहयोग दिया। और तोपों -बंदूकों की मदद से उन्होंने बर्फ से ढके भयानक पर्वतों में अपने लिए राह बनाई।

भारतीय जवानों ने एक चोटी से दूसरी चोटी पर कब्जा करते हुए एक के बाद दसरा ठिकाना जीतने में असाधारण वीरता और साहस का परिचय दिया और इस पूरे क्षेत्र को घुसपैठियों से मुक्त कर दिया। 13 जून, 1999 को तोलोलिंग चोटी भारतीय सैनिकों के कब्जे में गई, जिससे उन्हें बेहद मदद मिली। जल्दी ही 20 जून, 1999 को प्वांइट 5140 भी उनके कब्जे में आने से तोलोलिंग पर उनका विजय अभियान पूरा हो गया। चार जुलाई को एक और शानदार विजय दर्ज की गई, जब टाइगर हिल को घुसपैठियों से मुक्त कर दिया गया। पाकिस्तान घुसपैठियों को खदेड़ना जारी रखते हुए भारतीय सैनिक आगे बढ़ते रहे। बटालिक की प्रमुख चोटियों को दोबारा कब्जे में ले लिया गया।

 
 
 

इसी तरह की जीत असाधारण कोशिशों के बाद द्रास, काकसर, हनीफ (तुर्तुक ) तथा चोरबट लॉ सेक्टर में भी दर्ज की गई। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ समझ गए कि दुर्भाग्य निकट ही है। वह जानते थे कि पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया है। वह मदद के लिए वाशिंगटन के लिए रवाना हुए जहां अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उन्हें सलाह। दी कि वह कारगिल छोड़ दें। शरीफ ने 12 जुलाई, 1999 को टेलीविजन पर प्रसारित अपने एक संदेश में पाकिस्तान के इस फैसले का ऐलान किया कि उन्होंने कारगिल छोड़ने का निर्णय लिया है और वह प्रधानमंत्री वाजपेयी के साथ बातचीत करेंगे।

भारत के प्रधानमंत्री ने कारगिल के अग्रिम मोर्चा का दौरा किया और भारतीय सैनिकों की वीरता और असीम बलिदानों की सराहना की। उन्होंने 14 जुलाई को हुए आपरेशन विजय की शानदार सफलता की घोषणा की। उन्होंने कहा कि युद्धविराम रेखा पवित्र है और पाकिस्तान से हो रहे सीमा पार आतंकवाद को रोकना होगा

कारगिल में राष्ट्र की अखंडता की रक्षा करते हुए भारतीय सशस्त्र सेनाओं के 474 अधिकारियों और जवानों ने अपने प्राणों की बलि दी। इस भीषण युद्ध में वीरता के लिए चार शूरवीरों को परमवीर चक्र प्रदान किए गए। जिनमें से दो को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

इस युद्ध में पाकिस्तान को भी काफी क्षति उठानी पड़ी। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने। स्वीकार किया : “पाकिस्तान को बड़े पैमाने पर मानवीय जीवन की क्षति उठानी पड़ी जी। 1965 के युद्ध में हुई क्षति से कहीं अधिक थी।

पाकिस्तान ने ये तो माना कि युद्ध में उनका नुक्सान हुआ लेकिन पाकिस्तान इस हद तक गिर गया कि उसने अपने अधिकारियोंऔर सैनिकों के शवों तक को लेने से इंकार कर दिया। अंतत: भारतीय सेना के जवानों द्वारा इस्लामी विधि से उनके शवों को ससम्मान दफनाया गया।