इस बीच प्रधानमंत्री वाजपेयी, सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्र और थल सेनाध्यक्ष वी.पी. मालिक के बीच 8 जुलाई को बैठक हुई। मालिक अपनी पुस्तक ‘कारगिल, फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ में लिखते है, “प्रधानमंत्री ने मुझसे पूछा कि शेष पाकिस्तानी सेना को भागने में कितना समय लगेगा? मैंने उत्तर दिया कि घुसपैठ मुक्त करने के लिए दो से तीन सप्ताह का समय लगेगा।” इसके बाद तीनों सेनाओं के प्रमुखों के बीच कई दौर की लम्बी बातचीत हुई। आखिरकार भारतीय सेना ने पाकिस्तान को पूरी तरह से भारतीय सीमा से खदेड़ दिया। कारगिल के बहादुर सैनिकों के सम्मान में 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है।
पाकिस्तान की हार से वहां आंतरिक तौर पर सेना और सरकार दोनों की आलोचना होने लगी। कारगिल युद्ध के कर्ताधर्ता परवेज मुशर्रफ उन समय आर्मी स्टाफ के प्रमुख थे। उन्होंने सितम्बर 2006 में अपनी पुस्तक ‘इन द लाइन ऑफ़ फायर : ए मेमोआर’ का प्रकाशन किया। इस किताब में उन्होंने खुद स्वीकार किया है कि पाकिस्तान सेना की ‘उपलब्धियां’ उसकी असफलताएं है।
पाकिस्तान की भूतपूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टों ने ‘द न्यूज़’ को 22 जुलाई, 1999 को बताया, “पाकिस्तान के इतिहास में कारगिल सबसे बड़ी गलती थी। पूरा अभियान पाकिस्तान को महंगा पड़ा। इससे भारतीयों में यह भावना घर कर गयी है कि पाकिस्तान ने उसके साथ विश्वासघात किया है और इस क्षेत्र में शांति प्रक्रिया के दौरान पाकिस्तान नेतृत्व ने धोखा दिया।” पाकिस्तान के भूतपूर्व वायुसेना प्रमुख, एयर मार्शल नूरखान ने भी 'द न्यूज़’ को बताया, “इस अभियान को उचित ठहराने का कोई तर्क नहीं है। पाकिस्तान 1947 से ऐसी गलतियां करता रहा है और अपनी गलतियों से हमने कोई सबक नहीं लिया, जिसे हमारे शासक करते आये है।”
कारगिल युद्ध ने पाकिस्तान में ऐसे हालात पैदा कर दिए कि वहां सेना और सरकार का एक-दूसरे से विश्वास तक उठ गया। वहां के सभी समाचार-पत्र सरकार की आलोचना से भरे जाने लगे। विदेशी मीडिया ने भी पाकिस्तान के युद्ध छेड़ने की निंदा की और भारतीय नीति और हमारी सेना की भूमिका की सराहना की। जनरल वी.पी. मालिक लिखते है, “कारगिल युद्ध भारतीय सेना की रणक्षेत्र में प्रदर्शित वीरता, धैर्य और दृढ़ निश्चय की अतुलनीय गाथा के रूप में भारतीय इतिहास में दर्ज रहेगा। यह महान गौरव और प्रेरणा का प्रतीक बनेगा।”