सुधींद्र कुलकर्णी एंड द वायर कंपनी के प्रोपगैंड़ा का जवाब- पार्ट 03; गिलगित-बल्तिस्तान हज़ारों साल से भारत की सनातन संस्कृति, सभ्यता और इतिहास का हिस्सा है
   05-अक्तूबर-2020
 the wire_1  H x
 
 
-डॉ. शिव पूजन प्रसाद पाठक
 
सुधींद्र कुलकर्णी अपने तीसरे भाग में दस सूत्रीय शांति-प्रस्ताव का सुझाव देते हैं जो आदर्शवादी सोच-समझ का हिस्सा है और निराधार है । सुझाव पढ़कर कह सकते हैं कि लेख प्रतिशोध में लिखा गया है।
 
1- इस समापन भाग में लेख में लिखते है कि भारत को गिलगित-बाल्टिस्तान पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए। भारत का कोई ऐतिहासिक और वैधानिक आधार इस क्षेत्र पर नहीं है । इसके उत्तर पहले भाग में लिखा जा चुका है। उन्हे समझना चाहिए कि गिलगित-बल्तिस्तान भारत ही है। पाकिस्तान भी भारत है और अफगानिस्तान भी भारत है । सीमाओं का निर्णय केवल पिछले सौं वर्षों के आधार करने का कोई औचित्य नहीं है। तिहत्तर वर्ष पहले पाकिस्तान नहीं था। पाकिस्तान की सीमाएं भारत स्वतन्त्रता अधिनियम 1947 में परिभाषित हैं। उसका भू-क्षेत्र उसके संविधान में निर्धारित है। उसका क्या आधार है। सदियों से गिलगित-बाल्टिस्तान भारत है ।
 
 
2- कुलकर्णी के अनुसार गिलगित-बल्तिस्तान को एक शांति-क्षेत्र घोषित कर देना चाहिए। भारत, चीन और पाकिस्तान को त्रिपक्षीय वार्ता के माध्यम से शांति और विकास की बात करनी चाहिए। इस शांति वार्ता में परवेज़ मुशर्रफ वाली योजना का समावेश है। जम्मू और कश्मीर का विभाजन कर के पाकिस्तान अधिक्रांत भूमि को पाकिस्तान को सौप देना चाहिए। लिखते हैं कि यदि बंगाल और पंजाब विभाजन हो सकता है तो जम्मू और कश्मीर को क्यों नहीं विभाजित किया जा सकता है। नियंत्रण रेखा को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा बना देना चाहिए। भारत और चीन एक सभ्यतायी देश है जिसकी उत्पत्ति हिमालय की नदियों में हुई है। दोनों देशों का उद्देश्य विश्व कल्याण है। कुलकर्णी की शांति वार्ता और उसका परिणाम अतार्किक और अव्यावहारिक दुनिया का कोई भी देश अपनी भूमि और निवासियों को कैसे विदेशी के हाथ में सौंप देगा। जिस आधार पर जम्मू और कश्मीर के विभाजन की बात कह रहें उसके अनुसार तो एक दिन भारत के अन्य असम, केरल और पश्चिमी बंगाल का भी विभाजन करना पड़ेगा। चीन जब एक सभ्यताई देश था, कन्फूशियस धर्म का प्रचालन था, हो सकता है कि तब चीन विश्व कल्याण जैसा चिंतन उसके पास रहा होगा। वर्तमान में एक साम्यवादी विचारधारा पर आधारित तानाशाही देश है, जो पृथ्वी पर राजा (मिडिल किंगडम सिंड्रोम) से प्रभावित है। चीन शांतिप्रिय नहीं, बल्कि एक विस्तारवादी देश है । उसने तिब्बत और जिंजियांग पर अवैध कब्जा किया हुआ है । क्या वह कुलकर्णी के इस शांति के प्रस्ताव को मान लेगा? ऐसा सोचना वर्तमान परिस्थिति में कहा तक उपयुक्त है?
 
 

wire_1  H x W:  
 सुधींद्र कुलकर्णी के आर्टिकल का स्क्रीनशॉट
 
 
 
3- उनका सुझाव यह भी है कि भारत को चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) और बेल्ट रोड इनीसियाटिव (बीआरआई) में शामिल हो जाना चाहिए। अंत:निर्भरता शांति को बढ़ावा देते है। ऐसा करने पर एक प्रकार से भारत चीन की वैध्यता को स्वीकार कर लेगा। जबकि चीन भी गिलगित-बल्तिस्तान के भूभाग को पाकिस्तान का नहीं मानता है जिसका प्रमाण 1963 की संधि है। संधि के उप प्रबंध 6 कहता है कि चीन इस भूमि के संप्रभु से पुर्नवार्ता करेंगा।
 
 
4- कुलकर्णी का सुझाव है कि पाकिस्तान गिलगित-बाल्टिस्तान को पाँचवाँ प्रांत घोषित कर सकता है। भारत ने 370 में संशोधन कर भौतिक परिवर्तन कर दिया है, इसलिए पाकिस्तान भी उस अपना पाँचवाँ प्रांत बना लेना चाहिए। पाकिस्तान को लगता है कि गिलगित-बाल्टिस्तान एक विवादित क्षेत्र है, उसे प्रांत बनाने से उसकी वैधानिक स्थिति कमजोर हो जाएगी। कुलकर्णी के अनुसार इससे पाकिस्तान के स्थिति कमजोर नहीं होगी क्योंकि जम्मू और कश्मीर कोई जनमत संग्रह नहीं हुआ है।
जम्मू और कश्मीर भारत का राज्य है। उसमें संवैधानिक परिवर्तन भारत का आंतरिक विषय है। गिलगित-बल्तिस्तान को पाकिस्तान में विलय करना ही विस्तारवाद है। यही पर कुलकर्णी को चीन और पाकिस्तान का विस्तारवाद नहीं दिख रहा है लेकिन भारत अपनी भूमि और नागरिकों के सुरक्षा की बात कर रहा है, तो कुलकर्णी को विस्तारवाद लग रहा है।
 
 
सहमति के बिन्दु :
 
1- इन लेखों की कड़ी में कुलकर्णी के इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि भारत के अधिकांश तत्कालीन नेतृत्व जम्मू और कश्मीर के विभाजन के लिए तैयार था। यद्यपि यह ब्रिटिश षड्यंत्र का हिस्सा था कि यदि पूरा जम्मू और कश्मीर पाकिस्तान के पास नहीं आ पाता है तो कम कम से अब गिलगित-बाल्टिस्तान को भारत में जाने से रोक लिया जाये। अंग्रेज़ गिलगित-बल्तिस्तान के रणनीतिक महत्व को समझते थे।
 
2- दूसरा इस लेख का सबसे बड़ा योगदान यह है कि पहली बार कोई लेखों की श्रृंखला में पूर्णत: गिलगित-बल्तिस्तान पर लिखी गयी है। अन्यथा सभी बातें 370 तक ही सीमित रह जाती थी।
 
 
 
वापस लेने के पक्ष में तर्क
 
भारत की सीमाएं प्राकृतिक है। हिमालय से लेकर हिन्दूमहासागर तक सब भारत है। किसी भी विशेष काल खंड में राजनीतिक मानचित्र कुछ भी रहा हो, लेकिन सांस्कृतिक एकता अनवरत रही है। गिलगित-बाल्टिस्तान भी हिमालय में है। भारत विश्वगुरु और सोने की चिड़िया तभी थे जब हमारे सीमाएं का विस्तार यहाँ तक था। भारत की सीमा पड़ोसी देश नहीं तय करेंगे।
 
1- अपने जन और धन (मानव और भौतिक संसाधनों) की सुरक्षा करना आवश्यक है। यहाँ के निवासी भारतीय हैं । किन्ही कारण वश पिछले सत्तर वर्ष से विदेशी शासन के आधीन आ गए है और दोहरे उपनिवेश का दंश झेल रहें हैं।
 
2- जम्मू और कश्मीर ही भारतीय सभ्यता के पुर्नस्थापना का मार्ग प्रशस्त करेगा। वह भारत का सांस्कृतिक धरोहर है। सदियों से यह भाग शैल चित्रों को सँजोये हुए है। सैकड़ों बोलियाँ और भाषा का क्षेत्र है।
 
3 - भारत का यह आर्थिक द्वार है। यहाँ से मध्य एशिया और यूरोप के लिए थल मार्ग है।
 
 
4- इस भूभाग को पाकिस्तान के दासता से मुक्त करना आवश्यक है। इसके दो कारण है- (ए) इससे पाकिस्तान का आत्मबल क्षीण होगा और पाकिस्तान का इस्लामिक नेतृत्व को भ्रम टूटेगा। भारत में रह रहे अरब परास्त इस्लामिक मतावलंबी को भी अहसास होगा कि उनके लिए भारत ही श्रेष्ठ स्थान है। कश्मीर को सुरक्षित करने के लिए गांधार को सुरक्षित करना होगा।
(ब) पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का केंद्र पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू और कश्मीर ही है । जम्मू और कश्मीर में युद्ध से अधिक धन और जन की हानि हो चुकी है । पिछले तीस वर्षों में भारत एक प्रकार से युद्ध में है।
 
5- गिलगित-बल्तिस्तान भारत के पास होने से पाकिस्तान के अधिकतर शहर 50 किमी के अंदर होंगे।
 
 
6- इस भूभाग के अर्जन से भारत चीन को प्रत्युत्तर दे सकता है क्योंकि उसका चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की असफलता चीन को भारी आर्थिक क्षति होगी। इस भूभाग पर आक्रमण करने से चीन के ऊपर कोई प्रत्यक्ष आक्रमण नहीं माना जाएगा और वह पाकिस्तान की सहायता के लिए सामने आएगा। इससे विश्व जनमत भारत के पक्ष में होगा। वर्तमान चीन की सीमा पर छटपटाहट का कारण यह गलियारे है । इसके नाकेबंदी से चीन को वार्ता के लिए विवश कर सकता है।
 
 
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिक शास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं )