4 नवंबर 1989, जस्टिस नीलकंठ गंजू की नृशंस हत्या, जब घाटी में शुरू हुआ संगठित और राजनीतिक इस्लामिक आतंकवाद का दंश
   03-नवंबर-2020

Brutal murder of Justice
 
कश्मीर घाटी से हिंदूओं का पलायन कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं थी। इसकी पटकथा सन 1965 में लिख दी गयी थी जब भारत-पाक युद्ध चल रहा था. यह स्मरण रहे कि सन ’65 का युद्ध जम्मू कश्मीर राज्य को पूरी तरह पाकिस्तान में मिलाने के उद्देश्य से लड़ा गया था किंतु पाकिस्तान को इसमें पूर्ण विजय इसलिए नहीं मिल पाई थी क्योंकि तब तक कश्मीर में पाकिस्तान परस्ती और अलगाववाद का बीज नहीं बोया जा सका था. इसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अगस्त 1965 में अमानुल्लाह खान और मकबूल बट ने पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू कश्मीर में ‘नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ नामक अलगाववादी आतंकी संगठन बनाया था. इस संगठन ने जून 1966 में मकबूल बट को ट्रेनिंग देकर नियन्त्रण रेखा के इस पार भेजा. छः सप्ताह बाद ही पुलिस से हुई एक मुठभेड़ में मकबूल बट ने सी० आई० डी० सब इंस्पेक्टर अमर चंद की हत्या कर दी. दो वर्ष बाद अगस्त 1968 में मकबूल बट को तत्कालीन सेशन जज नीलकंठ गंजू ने फांसी की सजा सुनाई.
 
किन्तु उसी वर्ष दिसम्बर में मकबूल बट अपने एक साथी के साथ जेल तोड़कर नियन्त्रण रेखा के उस पार भाग गया. वह 1976 में लौटा और इस बार उसने कुपवाड़ा में बैंक डकैती का असफल प्रयास किया और पकड़ा गया. डकैती के प्रयास में उसने बैंक मैनेजर की हत्या की जिसके लिए उसे पुनः फांसी की सजा हुई. मकबूल बट के पकड़े जाने के बाद उसके साथी आतंकवादी इंग्लैंड चले गये जहाँ उन्होंने 1977 में ‘जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट’ नामक संगठन बनाया. इसी संगठन से संबद्ध नेशनल लिबरेशन आर्मी’ ने मकबूल बट को जेल से छुड़ाने के लिए फरवरी 1984 में भारतीय उच्चायुक्त रवीन्द्र म्हात्रे का अपहरण कर उनकी हत्या कर दी. इस घटना के पश्चात् प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने तत्काल मकबूल बट को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी.
 
 
मकबूल बट की फांसी उपरांत के घटनाक्रम
 
जिस दिन मकबूल बट को फांसी दी गयी थी उस दिन कश्मीर घाटी में रह रहे लोगों पर इसका कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा था. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बने अभी एक दशक भी पूरा नहीं हुआ था. इस संगठन को अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षाओं के चलते घाटी के लोगों में अपनी पैठ बनाने की आवश्यकता महसूस हुई. मकबूल बट को फांसी दिए जाने के दो वर्ष पश्चात् सन 1986 में फारुख अब्दुल्लाह को हटाकर गुलाम मोहम्मद शाह जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बनाये गए. शाह ने अलगाववादियों के सुर में सुर मिलाते हुए जम्मू स्थित न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक प्राचीन मन्दिर परिसर के भीतर मस्जिद बनाने की अनुमति दे दी ताकि मुस्लिम कर्मचारी नमाज पढ़ सकें. इस विचित्र निर्णय के विरुद्ध जम्मू के लोग सड़क पर उतर आये जिसके फलस्वरूप दंगे भड़क गये. अनंतनाग में पंडितों पर भीषण अत्याचार किया गया, उन्हें बेरहमी से मारा गया, महिलाओं से बलात्कार किया गया और उनके संपत्ति व मकान तोड़ डाले गये. सन 1987 से जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की गतिविधियों में तेजी आई. बाद के सालों में अलगाववादियों की दुष्प्रचार मशीनरी ने एक सुनियोजित तरीके से पंडितों के विरुद्ध वैमनस्य फैलाना प्रारंभ कर दिया. यही कारण था कि जिस मकबूल बट को 1984 में कोई जानता नहीं था फरवरी 1989 में उसका ‘शहादत दिवस’ मनाने के लिए लोग आतुर थे. सलमान रुश्दी की पुस्तक ‘सैटेनिक वर्सेज़’ का विरोध चरम पर था जिसकी आग कश्मीर तक भी पहुँची. परिणामस्वरूप 13 फरवरी को श्रीनगर में दंगे हुए जिसमें कश्मीरी पंडितों को बेरहमी से मारा गया.
 
पंडित टीकालाल टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या का उद्देश्य
 
पं० टीकालाल टपलू पेशे से वकील और जम्मू कश्मीर बीजेपी के अध्यक्ष थे. पं० टपलू आरंभ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे तथा उदारमना व्यक्ति थे. पं० टपलू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की थी परंतु पैसे कमाने के लिए उन्होंने इस पेशे का कभी दुरुपयोग नहीं किया. वकालत से वे जो कुछ भी कमाते उसे विधवाओं और उनके बच्चों के कल्याण हेतु दान दे देते थे. उन्होंने कई मुस्लिम लड़कियों की शादियाँ भी करवाई थीं. पूरे हब्बाकदल निर्वाचन क्षेत्र में हिन्दू मुसलमान सभी पं टपलू का सम्मान करते थे तथा उन्हें ‘लाला’ अर्थात बड़ा भाई कह कर सम्बोधित करते थे. उनकी यह छवि अलगाववादी गुटों की आँखों का काँटा थी क्योंकि पं० टिकालाल टपलू उस समय कश्मीरी पंडितों के सर्वमान्य और सबसे बड़े नेता थे. वास्तव में अलगाववादियों को घाटी में अपनी राजनैतिक पैठ बनाने के लिए कश्मीरी पंडितों के समुदाय को हटाना जरुरी था जो किसी भी कीमत पर पाकिस्तान का समर्थन नहीं करते. इसीलिए जम्मू कश्मीर लिबेरशन फ्रंट ने पंडितों के विरुद्ध दुष्प्रचार के विविध हथकंडे अपनाये. कश्मीर घाटी के कुछ लोकल अखबारों ने पंडित टीकालाल टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू समेत कई प्रतिष्ठित पंडितों के विरुद्ध दुष्प्रचार सामग्री प्रकाशित करना आरंभ कर दिया था.
 
 
आतंकियों ने पं० टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या की रणनीति बनाई. पं० टपलू को आभास हो चुका था कि उनकी हत्या का प्रयास हो सकता है इसीलिए उन्होंने अपने परिवार को सुरक्षित दिल्ली पहुँचा दिया और 8 सितम्बर को कश्मीर लौट आये. चार दिन बाद चिंक्राल मोहल्ले में स्थित उनके आवास पर हमला किया गया. यह हमला उन्हें सचेत करने के लिए था किंतु वे भागे नहीं और डटे रहे. महज दो दिन बाद 14 सितम्बर को सुबह पं० टीकालाल टपलू अपने आवास से बाहर निकले तो उन्होंने पड़ोसी की बच्ची को रोते हुए देखा. पूछने पर उसकी माँ ने बताया कि स्कूल में कोई फंक्शन है और बच्ची के पास पैसे नहीं हैं. पं० टपलू ने बच्ची को गोद में उठाया, उसे पाँच रुपये दिए और पुचकार कर चुप करा दिया. इसके बाद उन्होंने सड़क पर कुछ कदम ही आगे बढ़ाये होंगे कि आतंकवादियों ने उनकी छाती कलाशनिकोव की गोलियों से छलनी कर दिया. सन 1989-90 के दौरान कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करने पर मजबूर करने के लिए की गयी यह पहली हत्या थी.
 
कश्मीरी पंडितों के सर्वमान्य नेता को मार कर अलगाववादियों ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि अब कश्मीर घाटी में ‘निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा’ ही चलेगा. टीकालाल टपलू की हत्या के बाद काशीनाथ पंडिता ने कश्मीर टाइम्स में एक लेख लिखा और अलगाववादियों से पूछा कि वे आखिर चाहते क्या हैं. अगले दिन इसका जवाब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने यह दिया कि या तो कश्मीरी पंडित भारत राज्य को समर्थन देना बंद करें और अलगाववादी आन्दोलन का साथ दें या कश्मीर छोड़ दें.
 
जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या
 
पं टपलू की हत्या के मात्र सात सप्ताह बाद जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गयी. सन 1989 तक पं० नीलकंठ गंजू- जिन्होंने मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी- हाई कोर्ट के जज बन चुके थे. वे 4 नवंबर 1989 को दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी थी. आतंकियों ने जस्टिस गंजू से मकबूल बट की फांसी का प्रतिशोध लिया था. साथ ही मस्जिदों से लगते नारों ने कश्मीर के लोगों को यह भी बता दिया था कि ‘ज़लज़ला आ गया है कुफ़्र के मैदान में, लो मुजाहिद आ गये हैं मैदान में’. अर्थात अब अलगाववादियों के अंदर भारतीय न्याय, शासन और दंड प्रणाली का भय नहीं रह गया था. कई वर्षों बाद जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यासीन मलिक ने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि उसने जस्टिस गंजू की हत्या की थी.
 
पं० टीकालाल टपलू और जस्टिस गंजू की हत्या के बाद भी कश्मीरी पंडितों को मारे जाने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया, परन्तु तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला दिलासा मात्र देते रहे और मार्तण्ड सूर्य मन्दिर के भग्नावशेष पर सांस्कृतिक कार्यक्रम कराते रहे. फिर वो हुआ जिसने जम्मू कश्मीर की सदियों पुरानी समरस संस्कृति को हमेशा के लिए तार-तार कर दिया और लाखों कश्मीरी हिंदूओं को हमेशा के लिए अपने पुरखों की जमीन हमेशा के लिए छोड़नी पड़ी।