
वीर सेनानी जनरल जोरावर सिंह के कारण ही लद्दाख आज भारत का अभिन्न अंग है। जनरल जोरावर सिंह का जन्म 13 अप्रैल, 1786 को ग्राम अनसरा (जिला हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) में ठाकुर हरजे सिंह के घर में हुआ था। जोरावर सिंह के पिता हरजे सिंह बिलासपुर की कहलूर रियासत में काम करते थे। इस कारण गाँव की खेती उनके भाई देखते थे। 16 वर्ष की अवस्था में जोरावर सिंह का अपने चाचा से विवाद हो गया। जिसके बाद जोरावर सिंह घर छोड़कर हरिद्वार, लाहौर और फिर जम्मू पहुँचकर महाराजा गुलाब सिंह की डोगरा सेना में भर्ती हो गये थे। राजा गुलाब सिंह जोरावर सिंह के सैन्य कौशल से इतना प्रभावित हुये थे कि कुछ ही समय में ही उन्हें सेनापति बना दिया था। वे अपना विजय पताका लद्दाख और बल्तिस्तान तक फहराना चाहते थे। महाराजा के इसी लक्ष्य के लिए जोरावर सिंह ने सैनिकों को कठिन परिस्थितियों के लिए प्रशिक्षित किया था। जिसके बाद जोरावर सिंह प्रशिक्षित सैनिकों के साथ लेह की ओर कूच किया था। किश्तवाड़ के मेहता बस्तीराम के रूप में इन्हें एक अच्छा सलाहकार मिल गया। सुरू के तट पर वकारसी तथा दोरजी नामग्याल को हराकर जनरल जोरावर सिंह की डोगरा सेना लेह में घुस गई थी, इस प्रकार लद्दाख जम्मू राज्य के अधीन हुआ था। लद्दाख जीतने के बाद जब जोरावर सिंह ने बल्तिस्तान पर हमला किया था, उस वक्त लद्दाखी सैनिक भी अब उनके साथ थे। अहमदशाह ने जब देखा कि उसके सैनिक बुरी तरह कट रहे हैं, तो उसे सन्धि करनी पड़ी। जिसके बाद जोरावर ने उसके बेटे को गद्दी पर बैठाकर 7 हजार रुपये वार्षिक जुर्माने का फैसला किया था। फिर जोरावर सिंह अपनी सेना के साथ तिब्बत की ओर कूच किया। हानले और ताशी गांग को पारकर वे आगे बढ़े थे। उस वक्त तक जोरावर सिंह और उनकी विजयी सेना का नाम इतना फैल चुका था कि रूडोक तथा गाटो ने बिना युद्ध किये ही हार मानते हुये हथियार डाल दिये थे। जिसके बाद जोरावर सिंह की सेना मानसरोवर के पार तीर्थपुरी पहुँच गई थी। जहां पर उन्होंने 8,000 तिब्बती सैनिकों से युद्ध करते हुये उन्हें पराजित किया था। उसके बाद जोरावर सिंह तिब्बत, भारत तथा नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट पहुँचे थे। लेकिन फिर वहाँ का प्रबन्ध उन्होंने मेहता बस्तीराम को सौंपा तथा वापस तीर्थपुरी आ गये थे।
जोरावर सिंह के पराक्रम से घबरा गये थे अंग्रेज
जोरावर सिंह के शौर्य और पराक्रम की बात सुनकर उस वक्त अंग्रेज अधिकारियों के कान खड़े हो जाते थे। इसी कारण अंग्रेज अधिकारियों ने जोरावर सिंह को नियंत्रित करने के लिए राजा रणजीत सिंह पर दबाव डाला था। जिसके बाज निर्णय हुआ कि 10 दिसम्बर, 1841 को तिब्बत को उसका क्षेत्र वापस कर दिया जाये। इसी बीच जनरल छातर की कमान में दस हजार तिब्बती सैनिकों की जनरल जोरावर सिंह के 300 डोगरा सैनिकों से मुठभेड़ हुई। इस मुठभेड़ में राक्षसताल के पास सभी डोगरा सैनिक शहीद हो गये थे। जिसके बाद जोरावर सिंह ने गुलामखान तथा नोनो के नेतृत्व में और सैनिक भेजे थे, लेकिन वे सब भी शहीद हो गये थे। अब वीर जोरावर सिंह स्वयं आगे बढ़े। वे तकलाकोट को युद्ध का केन्द्र बनाना चाहते थे। लेकिन तिब्बतियों की विशाल सेना ने 10 दिसम्बर, 1841 को टोयो में इन्हें घेर लिया था। जिसके बाद दिसम्बर की भीषण बर्फीली ठण्ड में तीन दिन तक घमासान युद्ध चला। लेकिन फिर युद्ध के दौरान 12 दिसम्बर को जोरावर सिंह को गोली लगी और वे घोड़े से गिर पड़े थे। जिसके बाद डोगरा सेना तितर-बितर हो गयी। लेकिन उस वक्त भी तिब्बती सैनिकों में जोरावर सिंह का इतना भय था कि उनके शव को स्पर्श करने का भी वे साहस नहीं कर पा रहे थे। बाद में उनके अवशेषों को चुनकर एक स्तूप बना दिया गया था। ‘सिंह छोतरन’ नामक यह खंडित स्तूप आज भी टोयो में देखा जा सकता है। जोरावर सिंह के सम्मान में बने इस स्तूप की आज भी तिब्बती पूजा करते हैं।
इस प्रकार जोरावर सिंह ने भारत की विजय पताका भारत से बाहर तिब्बत और बल्तिस्तान तक फहराई थी। वह भारत ही नहीं अपितु विश्व के एकमात्र योद्धा हैं जिनके शौर्य व वीरता से प्रभावित होकर शत्रुओं की सेना द्वारा उनकी समाधि बनाई गई हो। उन्ही की वीरता के कारण आज जम्मू राज्य में कश्मीर,लद्दाख, गिलगित-बल्तिस्तान तक का क्षेत्र आता है। जोरावर सिंह आज ही के दिन यानी 12 दिसंबर 1841 ईं में तिब्बती सेना से लड़ते हुये टोयो नामक जगह पर वीरगति प्राप्त की थी। उनकी शौर्य और वीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके मृत्यु के बाद तिब्बतियों ने सम्मान में उनकी समाधि बनाई थी।