अरबपस्त मुस्लिम इस्लामिक राष्ट्र के प्रयास में
   01-मई-2020
 

Zafarul-Islam Khan_1 
 
डॉ. शिवपूजन प्रसाद पाठक
सहायक प्राध्यापक
 
 
 
दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जफरुल इस्लाम खान ने अपने फसेबुक पर एक पोस्ट लिखा है जिसमें उन्होने कहा है कि “जिस दिन मुसलमानों ने अरब देशों से अपने खिलाफ जुल्म की शिकायत कर दी, सैलाब आ जाएगा।“ (mind you, bigots, Indian Muslim have opted until now not to complain to the Arab and Muslim world about your hate campaign and lynching and riots. The day they are pushed to do that, bigots will face an avalanche”). यह वक्तव्य एक वास्तविक सोच और सही संदर्भ में आत्मविश्वास के साथ आया है । इसमे आश्चर्यचकित करने वाला कुछ भी नहीं है ।
 
 
इस कथन को व्यापक संदर्भ में देखना होगा । यह सोच गजवा ए हिंद के परिकल्पना का हिस्सा है जिसके अनुसार भारत को एक इस्लामिक देश बनाना है । इस उद्देश्य के लिए कई माध्यम है और इसका नेतृत्व भारत में अरब परस्त इस्लाम मतावलंबी करते हैं ।
 
 
यह सत्य है कि इस्लाम की उत्पत्ति अरब में हुई और तुर्क, मंगोल और ईरान के माध्यम से भारतीय प्रायद्वीप में प्रचारित और प्रसारित हुआ । भारतीय प्रायद्वीप में आज का अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश शामिल है । भारत में इस्लाम मतावलंबी को दो समूह में विभाजित किया जा सकता है । एक समूह जो भारत के बाहर से आया है और यहाँ का शासक वर्ग रहा है जिसमे सैय्यद, शेख, पठान/खान, मुगल और तुर्क हैं । इसमे सैय्यद, बुखारी, गिलानी व हमदानी जैसे उपाधि के लोग हैं । यह भारत में शासक और पुरोहित वर्ग के रूप में प्रभावी रहा है । ये आज भी लोकतन्त्र में स्वयं को शाही ईमाम कहता है । इनकी संख्या बहुत ही कम है लेकिन अभिजन होने के कारण भारत में इस्लाम मतावलंबी का नेतृत्व करता है । इस समूह का भारत में लगभग 600 वर्षों तक आधिपत्य रहा है । ब्रिटिश के आने से पहले ये लोग अपने देश के नाम से जाने जाते थे, जैसे - तुरानी, ईरानी, उज्बेकी, शाह आदि । अंग्रेजों ने जानबूझकर उस आर्थिक, नृजातीय व सांस्कृतिक अन्तर को अनदेखा कर सब को मुसलमान के नाम से संबोधित करना शुरू किया । इस बाहरी मुस्लिम समूह को लेखकीय सुविधा के लिए अरबी इस्लाम मतावलंबी कह सकते है । सामाजिक वर्गीकरण में इन्हे ही ‘अशरफ’ कहा जाता है। ये विदेशी मुसलमान अपने को इस्लाम के अरबी मान्यताओं के अनुसार ढालना चाहते हैं । या इन्हे आप शुद्धतावादी भी कह सकते हैं ।
 
 
 
 
भारतीय प्रायदीप में दूसरा समूह वे भारतीय इस्लाम मतावलंबी है जो सत्ता के दबाव या अन्य किसी कारण से सनातन धर्म को त्याग कर इस्लाम को अपना लिया। यह धर्मांतरण भारत के सभी वर्णो में हुआ। यही समूह है जो भारत में बहुसंख्यक है और इनके पूर्वज मूलत: हिन्दू है; इनमें भी गोत्र की अवधारणा है । यह समूह कभी भी शासक वर्ग में शामिल नहीं रहा लेकिन तुर्क और मुगल शासन का समर्थक बना रहा है । यह बहुसंख्यक समूह अपना धर्मांतरण तो कर लिया लेकिन भारतीय संस्कृति और अपनी वर्णव्यवस्था के अनुसार उपाधियों को लगाता रहा। इन्हे हम भारतीय इस्लाम मतावलंबी कह सकते हैं । सामाजिक वर्गीकरण में यह समूह ‘अजलफ’ कहा जाता है । भारत के जजमानी व्यवस्था के भी कई लोग इस्लाम को अपना लिया लेकिन वे सनातनी सांस्कृतियों के वाहक बने रहे। एक प्रकार से इस्लाम को भारत के परम्पराओं के अनुरूप ढाल दिया। उपासना पद्धति तो इस्लामिक मान्यताओं की अपना लिया लेकिन सामाजिक संस्कार और स्थिति में भारतीय बने रहें।
 
 
उदाहरण के लिए, भारत के जजमानी व्यवस्था के प्रमुख अंग में नाई, धोबी, मालिन, कुम्हार व लुहार थे । इन लोंगों ने अपने उपासना को बदला लेकिन भारतीय सामाजिक व्यवस्था के प्रमुख अंग बने रहें। उत्तर भारत में नाई जाति भारतीय संस्कारों के वाहकों में पंडित के बाद दूसरा स्थान था । बहुत से नाई जाति के लोगों ने इस्लाम अपना लिया और तुर्किहया नाई कहलाने लगे लेकिन वे जजमानी व्यवस्था के भाग बने रहे । इस प्रकार,बहुत से माली जाति के लोगों ने इस्लाम को तो अपना लिया लेकिन देवी जी के लिए नवरात्रि में माला व फूल तथा विवाह में मौर की प्रबंध आज भी करती हैं । तात्पर्य यह है कि इस्लाम अपनाने के बाद भी वे सनातन संस्कृति व सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी रहीं।
 
 
भारतीय इस्लाम मतावलंबी भारतीय संस्कृति का प्रभाव के कारण उदार रहें ।वैश्विक स्तर पर इस्लामिक आतंकवाद के कोप के बाद भी भारतीय मुस्लिम उस संख्या तक आतंकवाद में शामिल नहीं हुए।
 
 

Zafarul-Islam Khan_1  
 
 
 
राजनीति में कहा भी जाता है कि सत्ता हमेशा अभिजन वर्ग में रहती है । भारतीय प्रायदीप में यह विदेशी इस्लाम मतावलंबी ने सत्ता तो अपने पास रखी लेकिन अपने स्वार्थ के लिए अपने बहुसंख्यक समूह को दुरुपयोंग किया और अनजाने में इन्हें अपनी साजिश में शामिल करता रहा है । चूंकि लोकतंत्र में संख्या बल महत्वपूर्ण है , भारतीय मुसलमान संख्या में ज्यादा है इसलिए यह असरफ क्लास ने कथित मुस्लिम हित के लिये इन्हें सदैव भीड़ के रूप में आगे किया ।भारतीय राजनीति में यह अरबी मुस्लिम सबसे पहले अपने हित के लिए मोहमद जिन्ना का उपयोग करते हुए भारत का विभाजन कराया। बांग्लादेश का संघर्ष वस्तुतः इन्ही विदेशी मुस्लिम व भारतीय मुसलमानों के बीच का संघर्ष था; जिसे भारतीय मुसलमान मुजीबुर्रहमान ने जीता । आज जम्मू कश्मीर के अलगाववादी और आतंकवादी गतिविधियों का नेतृत्व ये ही विदेशी मुस्लिम कर रहें -मीरवाइज़, गिलानी।
 
 
यही अरबी मुसलमान भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाना चाह रहें; जिसकी लडाई तो यहाँ के मुसलमान लड़ेंगे पर सत्ता इन विदेशी मुसलमानों के हाथ मे रहेगी। इसके कई माध्यम है । पहला भारत का विभाजन किया जाये । इसमें वे सफल रहें । पहले गांधार वर्तमान अफगानिस्तान को धर्मांतरण हुआ फिर भारत से पृथक हो गया। इसके बाद भारत के विभाजन कराकर पाकिस्तान का जन्म हुआ । वर्तमान समय इस अरबी इस्लाम का केंद्र जम्मू और कश्मीर और पश्चिम बंगाल है ।
 
 
वहाबी विचारधारा के कारण भारत में इस्लाम और कट्टर होता गया। अरबी समर्थकों का कहना की भारत में इस्लाम के अनुगामियों की संख्या बढ़ायी जाएं। अरब का धन भारत में इस्लाम के प्रचार और प्रसार के लिए व्यापक स्तर पर खर्च हो रहा है । मस्जिद और मदरसों का निर्माण व्यापक स्तर पर हो रहा है । वहाबी लोग ही है जो चाह रहें है कि अरब वाला इस्लाम को अपनाया जाय। भारत के बहुत सारे नाम अब ‘अल’ से शुरू होते हैं। यहाँ तक कि भारतीय वर्ण व्यवस्था की उपाधियों से दूर कर रहें है। इन अरब परास्त लोगों की कोशिश है कि भारतीय मुसलमानों कैसे भारतीय परम्पराओं और संस्कारों को कैसे दूर किया जाय । उन्हें अब रमजान की रमदान कहने के लिए, खुदा हाफिज की जगह अल्लाह हाफिज कहने के लिए कहा जा रहा है । मजारों व पीर को हराम बताया जा रहा है । अपने पुरखों तक कि मजारों में जाने से मना किया जा रहा है ।
 
 
भारत में मुस्लिम भले अल्पसंख्यक हो लेकिन वैश्विक स्तर पर इस्लाम अनुयायी बहुसंख्यक है । जफरुल इस्लाम खान का पोस्ट इसी आत्मविश्वास का प्रकटीकरण है । उनके कथन जनांकिकी श्रेष्ठता का परिचायक है।
 
 
वर्तमान भारत सरकार को सबसे पहले इन मस्जिदों और मदरसों को सुरक्षा दृष्टि से अध्ययन करना चाहिए। करोना के समय जमाती लीग ने इसका उपयोग कैसे किया है और सबसे अधिक प्रतिरोध इन्ही स्थानों से आया है । सबसेनया यह हो रहा है कि हमारी उदार सूफी दरगाहों की कमान इन वहाबी मानसिकता वाले कट्टर मुस्लिमों के हाथ जा रही है ।
 
 
अब बड़ी मात्रा में भारतीय मुसलमान खाड़ी देशों में रोजगार के लिए जाते है, वहाँ से सिर्फ धन नही अपितु वहाबी विचारधारा भी इनके साथ आती है । अपने को ' शुद्ध ' मुसलमान दिखाने के लिए ये अपने पूर्वजों की संस्कृति से हटकर कट्टरता की ओर मुड़ते है । इधर सऊदी द्वारा पेट्रो डॉलर से संपोषित तबलीग़ जैसे बड़े संगठन व मदरसों, मस्जिदों जैसे स्थानीय संस्थाओं से उन्हें कट्टर पंथ की तरफ धकेला जाता है । एक आर्थिक परिपेक्ष्य यह है कि आज की आधुनिक तकनीक आधारित अर्थव्यवस्था में मदरसों से शिक्षित आलिमों के पास न तो वैज्ञानिक चेतना न रोजगार, इनके पाठ्यक्रम देवबंद से बनाये जाते है; ध्यान देने वाली बात है कि इसी पाठ्यक्रम पढ़कर अफगानिस्तान में लोग तालिबान के समर्थक हो गए थे ( तालिब का अर्थ ही होता है - विद्यार्थी) । इसलिए बहावी कट्टरता इन्हें आकर्षित करने एक एक कारक होती है । एक अन्य तथ्य यह है अब के समय मे जितने बड़े आतंकी सरगना है वह उच्च तकनीकी शिक्षित है । केरल के जो लोग आईसीस में भर्ती होने की इच्छा से गये थे उनमें अधिकांश इंजीनियरिंग के छात्र है । एक चीज गौर करने वाली है कि भारत के सीमांत इलाके में- केरल, तमिलनाडु, बंगाल, असम जम्मू कश्मीर आदि में मस्जिदों, मदरसों की संख्या बहुत बड़ी है , साथ मे कट्टरता भी । यह पुरे भारत की सीमाओं को इस्लामीकरण का प्रयास बहुत कुछ संदेश पैदा करता है । शुरू से ही हस्तशिल्प से जुड़े रहने के कारण व हिंदुयों के अपने परम्परागत पेशे को छोड़ने के कारण इनका उन रोजगारों में हस्तक्षेप बढ़ा । साथ मे रोजगार को लेकर राज्य के ऊपर से निर्भरता घटी, जिसने एक आत्मविश्वास पैदा किया ।लेकिन इस आत्मविश्वास को अशरफ लोगो द्वारा उपयोग एक कट्टर मुस्लिम बनाने में करने लगा ।
 
निष्कर्ष में कह सकते है कि भारत मे मुश्किल से पांच प्रतिशत असरफ ही अपने हितों के लिए पूरे मुस्लिम समुदाय को कट्टरता व भारत विरोध में खड़ा करने की कोशिश करता है । ये मध्यकालीन इस्लामिक साम्राज्य का दिवास्वप्न देखते है और दिखाते है; जिसके मूल्य में मंगोल तुर्क बर्बरता है। लेकिन भारतीय सांस्कृतिक गरिमा से युक्त प्रगतिशील भारतीय मुस्लिम वर्ग को अपना ईमानदार नेतृत्व खुद विकसित करना होगा ।