एक विधान, एक निशान: जम्मू कश्मीर में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान #23rdJune

22 Jun 2020 17:12:34

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आशुतोष भटनागर 
 
दिसम्बर 1952 में प्रजा परिषद के अध्यक्ष पं प्रेमनाथ डोगरा को कानपुर में सम्पन्न जनसंघ के पहले अधिवेशन में जम्मू कश्मीर की स्थिति प्रतिनिधियों के समक्ष रखने के लिये आमंत्रित किया गया। अधिवेशन में प्रजा परिषद के आन्दोलन को पूर्ण समर्थन देने तथा इसे देशव्यापी बनाने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया। इसके लिये अन्य राष्ट्रवादी संगठनों से सहायता प्राप्त करने की भी बात कही गयी।
 
 
संसद के अंदर और बाहर डॉ मुखर्जी ने जम्मू कश्मीर का मामला जोरदार ढ़ंग से उठाया। इस संबंध में उनका पं नेहरू और शेख अब्दुल्ला से लंबा पत्र व्यवहार भी चला। 9 जनवरी 1953 को उन्होंने पं. नेहरू को पहला पत्र लिखा जिसमें प्रजा परिषद की न्यायोचित माँगों को न ठुकराने की अपील की। इस अपील का कोई स्पष्ट असर नहीं दिखाई पड़ा। श्री दीनदयाल उपाध्याय को लिखे अपने पत्र में श्री मुखर्जी ने यह आशंका व्यक्त करते हुए लिखा – आन्दोलन अवश्य करना पड़ेगा। नेहरू अपनी गलत हठ छोड़ेंगे, ऐसी आशा दिखायी नहीं देती। लेकिन फिर भी उन्होंने अपने प्रयास जारी रखे और संवाद बनाये रखने का प्रयास किया।
 
 
डॉ मुखर्जी ने श्री नेहरू को लिखा – यदि आप चाहते हैं कि मैं आपसे और शेख अब्दुल्ला से व्यक्तिगत रूप से मिल कर बात करूं तो आप मुझे बतायें। मैं प्रसन्नतापूर्वक आपकी इच्छानुसार वैसा करूंगा। इसके उत्तर में पं नेहरू ने व्यस्तता जताते हुए मिलने से इनकार कर दिया किन्तु उनसे जम्मू आन्दोलन को खत्म करने के लिये अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने की बात कही।
 
 
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पं. नेहरू और डॉ. मुखर्जी के बीच दो माह तक पत्रव्यवहार चलता रहा किन्तु कोई मार्ग नहीं निकला। फरवरी के अंतिम पत्र में डॉ मुखर्जी ने पं. नेहरू को सूचित करते हुए सारा पत्र-व्यवहार सार्वजनिक कर दिया ताकि जनता को सही स्थिति की जानकारी मिल सके। सदन के भीतर भी उन्होंने पं. नेहरू से प्रजा परिषद नेताओं से वार्ता का आग्रह किया जिसके उत्तर में उन्होंने कहा कि यदि मैं शेख अब्दुल्ला के स्थान पर होता तो इससे भी कड़ी कार्रवाई करता।
 
 
5 मार्च को दिल्ली स्टेशन के सामने उमड़े जनसूह को संबोधित करते हुए श्री मुखर्जी ने कहा - अब हमारे सामने दो रास्ते शेष बचे हैं। पहला रास्ता इस अन्याय के समक्ष सिर झुका कर बैठ जाने का रास्ता है जिसका अर्थ है शेख अब्दुल्ला की दुर्नीति का विषफल प्रकट होने देना। दूसरा रास्ता है इस अन्याय का परिमार्जन करने के लिये शुद्ध देशभक्ति से प्रेरित होकर सर्वस्व त्याग करने की तैयारी करना। शांतिपूर्ण ढ़ंग से पं नेहरू व अब्दुल्ला की राष्ट्रघाती नीति का विरोध करते हुए ऐसा जनमत प्रकट करना कि आने वाले भयंकर संकट से देश को बचाने के लिये सरकार को बाध्य किया जा सके। अत्यंत गंभीर एवं दृढ़ स्वर में डॉ मुखर्जी ने घोषणा की – हमने दूसरा मार्ग स्वीकार किया है।
 
 
मार्च-अप्रेल में दिल्ली में सत्याग्रह का तांता लगा हुआ था। पूरे देश से सत्याग्रही आकर गिरफ्तारी दे रहे थे। सड़क पर ही नहीं, जेल में भी उनके साथ दुर्व्यवहार हो रहा था। दमन नीति चरम पर थी। ऐसे में अंतिम प्रयास के रूप में डॉ. मुखर्जी ने 7 मई को जम्मू जाने की घोषणा की। यात्रा प्रारंभ करने से पहले डॉ मुखर्जी ने अपनी यात्रा के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए एक वक्तव्य दिया। इसमें कहा गया-
 
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मैं पंजाब के दौरे के लिये जा रहा हूं। यद्यपि जिन स्थानों पर धारा 144 लगी है वहाँ जनसभाओं में भाषण देना संभव नहीं हो सकेगा, किन्तु फिर भी मैं वहाँ कार्यकर्ताओं और जनता के प्रमुख व्यक्तियों से मिलूंगा और वहाँ की स्थिति का अध्ययन करना चाहूँगा। मुझे जम्मू से ऐसे समाचार मिल रहे हैं कि वहाँ दिल को दहला देने वाला भीषण दमनचक्र जारी है। गत तीन माह में हमने कई बार प्रयत्न किया कि निष्पक्ष जाँच के लिये लोग भेजे जायें किन्तु उन्हें वहां जाने की अनुमति नहीं दी गयी।
 
 
श्री नेहरू बार-बार दोहराते हैं कि जम्मू कश्मीर शत-प्रतिशत भारत में मिला दिया गया है। फिर भी यह आश्चर्य की बात है कि बिना परमिट कोई उस राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता। जो भारत की राष्ट्रीयता और एकता के लिये प्रयत्नशील हैं, उन्हें वहां जाने की अनुमति नहीं। मैं नहीं समझता कि भारत सरकार को भारत के किसी भी हिस्से में, जिसमें श्री नेहरू के अनुसार जम्मू कश्मीर भी शामिल है, किसी के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार है।
 
 
मेरा जम्मू जाने का उद्देश्य यही है कि मैं वहां की स्थिति का सच्चा हाल जान सकूं। मैं वहां प्रजा परिषद के बाहर के लोगों से भी मिलूंगा। जम्मू की जनता की इच्छा को समझने का प्रयत्न करूंगा और यदि संभव हो सका तो आंदोलन को शांतिपूर्ण और आदरयुक्त ढ़ंग से बन्द करवाने का भी यत्न करूंगा जो कि न केवल कश्मीर बल्कि सम्पूर्ण भारत के लिये न्यायपूर्ण व हित का होगा। यदि मुझे जम्मू जाने दिया गया तो मैं अपनी ओर से शेख अब्दुल्ला से व्यक्तिगत बात-चीत करने का प्रयत्न करूंगा।

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पत्रकारों के अतिरिक्त प्रधानमंत्री नेहरू को भी उन्होंने अपना कार्यक्रम सूचित करते हुए तार भेजा। उन्होंने लिखा आपकी जानकारी के लिये मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मैंने जानबूझ कर परमिट प्राप्त करने के लिये आवेदन नहीं किया। चूंकि आपकी सरकार ने योजनापूर्वक ढ़ंग से कई लोगों को जो आपकी कश्मीर नीति से मतभिन्नता रखते हैं, परमिट देने से इनकार कर दिया है। नैतिक, वैधानिक तथा राजनैतिक, तीनों दृष्टियों से मेरा जम्मू जाना न्यायपूर्ण है। उन्होंने यह भी कहा कि मैं उस भारतीय संसद का सदस्य हूँ जिसमें कश्मीर सम्मिलित है और संसद के प्रत्येक सदस्य का यह कर्तव्य है कि देश के किसी भी भाग में किसी भी स्थिति का अध्ययन करने वह स्वयं जाये।
 
 
शेख अब्दुल्ला को भेजे गये एक अन्य तार में उन्होंने लिखा कि मैं ऐसी स्थिति का निर्माण करने के लिये उत्सुक हूं जिसके द्वारा परस्पर सदभावना और शांतिपूर्ण समझौते पर पहुंचा जा सके। जम्मू की स्थिति का अध्ययन करने के बाद मैं आपसे मिलने की संभावना का भी स्वागत करता हूं। इसके जवाब में उन्हें शेख अब्दुल्ला का तार मिला जिसमें उन्हें जम्मू न आने के लिये कहा गया था।
 
 
यहां यह उल्लेखनीय है कि जब दिल्ली में आंदोलन चरम पर था, लोकसभा के दो अन्य सदस्यों, जनसंघ के कोषाध्यक्ष बैरिस्टर यू. एम. त्रिवेदी और हिन्दू महासभा के महामंत्री विष्णु घनश्याम देशपाण्डे ने कश्मीर जाने की घोषणा कर दी थी। उन्हें 17 अप्रेल को जालंधर में गिरफ्तार कर लिया गया किन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें निर्दोष घोषित करते हुए रिहा कर दिया। भारत सरकार ने इससे यह सबक लिया कि यदि डॉ. मुखर्जी को सर्वोच्च न्यायालय की सीमा में रोका गया तो उन्हें भी मुक्त कर दिया जायेगा। इससे नेहरू-शेख की योजना पूरी नहीं होती थी। उस समय तक जम्मू कश्मीर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं था इसलिये उन्हें जम्मू कश्मीर की सीमा में गिरफ्तार किया गया।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के अनुसार, जो उस समय पत्रकार के रूप में उनके साथ थे, गुरदासपुर के डिप्टी कमिश्नर ने स्वयं आकर कहा था कि हमारी तरफ से आपको कोई रुकावट नहीं होगी। किन्तु जैसे ही वे माधोपुर के पुल पर आधी दूर तक पहुंचे, जम्मू कश्मीर की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके साथ वैद्य गुरुदत्त और श्री टेकचन्द भी गिरफ्तार कर लिये गये।
 
 
डॉ. मुखर्जी की गिरफ्तारी से सम्पूर्ण देश में गुस्से की लहर दौड़ गयी। धारा 144 लागू होने बावजूद जम्मू के गाँव-गाँव में प्रचण्ड जलूस निकले, प्रदर्शन हुए। दिल्ली में बैरिस्टर निर्मल चन्द्र चटर्जी की अध्यक्षता में आयोजित आम सभा के पश्चात आक्रोषित जनसमूह दिल्ली प्रदेश जनसंघ के उपप्रधान वीर प्रद्युम्न जोशी के नेतृत्व में प्रधानमंत्री निवास की ओर बढ़ चला। पुलिस ने आंदोलनकारियों पर भारी बल प्रयोग किया जिसमें 40 कार्यकर्ता घायल और 97 गिरफ्तार हुए।
 
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दूसरी ओर जम्मू में पुलिस अब लाठी के साथ ही बंदूक का भी प्रयोग कर रही थी। अखनूर में पुलिस गोली से 4 कार्यकर्ता मारे गये। दिल्ली से जम्मू के लिये सत्याग्रही जत्थे जाने लगे। मार्गों से अनजान आंध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के सत्याग्रही जंगलों और पहाड़ों के रास्ते जम्मू कश्मीर में प्रवेश कर वहां के आंदोलनकारियों का हौंसला बढ़ाने लगे।
 
 
कांग्रेस के वरिष्ठ सहयोगियों के दवाब देने पर पं. नेहरू कैलाशनाथ काटजू और श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित के साथ स्वयं कश्मीर गये किन्तु संभवतः शेख ने उनकी बात मानने से भी इनकार कर दिया। डॉ. मुखर्जी के सलाहकार बैरिस्टर उमाशंकर त्रिवेदी को शेख सरकार ने डॉ. मुखर्जी से मिलने की अनुमति नहीं दी। अंततः उच्च न्यायालय के निर्देश पर उनकी भेंट हो सकी। जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय ने बैरिस्टर त्रिवेदी की याचिका पर 23 जून को सुनवाई की तारीख दी थी। सभी को उम्मीद थी कि इस दिन वे मुक्त हो जायेंगे। किन्तु 22 जून की रात्रि को ही रहस्यमय परिस्थिति में उनकी मृत्यु हो गयी। उनका शव कोलकाता भेज दिया गया। उनके अन्य साथियों को भी रिहा कर दिया गया। डॉ. मुखर्जी की मृत्यु के बाद सत्याग्रह को 13 दिनों के लिये स्थगित किया गया। इसी बीच प्रधानमंत्री नेहरू ने आंदोलन वापस लेने की अपील की। 7 जुलाई को पं. प्रेमनाथ डोगरा ने आंदोलन की समाप्ति की घोषणा की और श्री नेहरू, डॉ. कैलाशनाथ काटजू तथा बख्शी गुलाम मुहम्मद के आश्वासन पर जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण करने के लिये राज्य व भारत सरकार को अवसर दिया गया।
 
 

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भारतीय जनसंघ के तत्कालीन महामंत्री पं. दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा – जब सत्याग्रही कष्ट सहने के लिये अड़ जाता है तो कुछ समय तक अन्याय बढ़ते हैं। प्रतिष्ठा और पार्टी-बाजी के मद में अन्धे सत्ताधारी उपेक्षा करते हैं जिसके परिणामस्वरूप बलिदान होते हैं। किन्तु इसके साथ इन अस्वाभाविक कृत्यों की एक सीमा रहती है जिसके बाद वह क्रमशः क्षीण होने लगते हैं और शुद्ध भावनाएं हिलोरें मारने लगती हैं। बस, इसी समय सत्याग्रह सफल होता है। शेख अब्दुल्ला की क्रूरता का असली रूप डॉ मुखर्जी की मृत्यु के रूप में जनता के समक्ष प्रकट होने से श्री नेहरू को अपना हठ छोड़ कर आंदोलन समाप्त करने के लिये अनुरोध करना पड़ा।
 
 
सरकार ने जिन बातों का आश्वासन दिया था उन पर प्रगति बहुत धीमी गति से हुई। पुलिस गोली में मारे गये 15 आंदोलनकारियों के परिवारीजनों को कोई सहायता नहीं उपलब्ध करायी गयी। जम्मू कश्मीर को भारत में पूर्ण रूप से विलीन करने के अपने वचन को भी सरकार ने पूरा नहीं किया। यह श्रेय प्राप्त हुआ श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार को जिसने 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 में संशोधन कर जम्मू कश्मीर में भारत के संविधान को संपूर्ण रूप में लागू करने का निर्णय किया और उसे दोनों सदनों से पारित करा कर संवैधानिक स्वरूप दिया।
 
 
सात दशक के संघर्ष का यह सकारात्मक परिणाम आया है। संकल्प का दूसरा भाग, जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है, जो कश्मीर हमारा है वह सारे का सारा है, अभी अधूरा है। इसके पूरा होने तक एकात्मता का यह अभियान रुकेगा नहीं। एक प्रधान, एक विधान और एक निशान पूरा होने के पश्चात डॉ. मुखर्जी का पहला बलिदान दिवस इस संकल्प की मंजिल नहीं पड़ाव मात्र है।
 
(लेखक जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक हैं) 
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