जम्मू कश्मीर के विस्थापित: अंतहीन पीड़ा का सुखान्त #DomicileLaw

29 Jun 2020 18:10:28

New Domicile Law in Jammu
 
- आशुतोष भटनागर
 
26 जून का दिन जम्मू कश्मीर के उन विस्थापितों के लिये ऐतिहासिक बन गया जब उन्हें राज्य के स्थायी निवास के प्रमाण पत्र सौंपे गये। 70 वर्षों से अपने इस अधिकार से वंचित लोगों ने अपने जीवन में इसकी आस भी छोड़ दी थी। नयी पीढ़ी भी उनके जैसा नारकीय जीवन जीने के लिये विवश न हो इसके लिये ही वे बार-बार इसकी माँग करते थे।
 
 
1947-48 में जम्मू कश्मीर के विस्थापितों की कहानी अत्यंत लोमहर्षक है। बेबसी का एक ऐसा दस्तावेज है जिसे देश जान भी नहीं सका। मीरपुर, मुजफ्फराबाद, कोटली, भिम्बर, देवा, बटाला, राजौरी, पुंछ, झंगड़ और बल्तिस्तान। पश्चिमी पाकिस्तान से जम्मू में आये लोग। हजारों लोगों का कत्ले-आम और लाखों का विस्थापन। अधिकांश जनसंख्या अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की। औपचारिक शिक्षा लगभग नगण्य। बदलती दुनियां से कोई संबंध नहीं। मानवाधिकार भी कुछ होता है, इसका अनुमान भी नहीं। विस्थापन के बाद जिन शरणार्थी शिविरों में डाल दिये गये, तीन पीढ़ियाँ उन्हीं शिविरों में कट गयीं। कपड़े के तम्बू पर मेहनत मजदूरी कर छत अपनी डाल भी ली तो धरती अपनी नहीं। न शिक्षा के अवसर और न विकास के। मानवाधिकारों से रहित, नागरिक अधिकारों से वंचित।
 
 
जिस भाषा में वे आपस में बात करते हैं उसे उनके अलावा कोई समझता नहीं। उनकी भाषा की कोई लिपि नहीं। भाषा को राजकीय मान्यता नहीं। जहाँ आ बसे वहां इसे कोई बोलता नहीं, इसलिये स्थानीय भाषा में संवाद की विवशता और अपनी भाषा से कटते जाने की नियति। आंख के आंसू सूख गये लेकिन कविता उनसे बह न सकी। उनकी भाषा की कविता, उनकी भाषा का लेखन, कहें भी तो सुने कौन। अर्थ का अनर्थ हुआ। जीवन व्यर्थ हुआ। सत्तर साल। किसी ने नहीं सुनी सिसकी। किसी की आंख नम नहीं हुई। किसी ने सांत्वना नहीं दी। शब्द खो गये। भाषा बाँझ हो गयी।
 
New Domicile Law in Jammu
 
 
पीढ़ियों से जम्मू कश्मीर में रह रहे थे। महाराजा ने भारत में अधिमिलन किया तो उनका इलाका भी भारत हो गया और वे भारत के नागरिक। पाकिस्तान का हमला हुआ। भारतीय सेना श्रीनगर में संघर्ष समाप्त होने के बाद भी उनकी सहायता के लिये नहीं पहुंची। आगे जाने से रोक दिया गया। साजिश किसकी थी, आज इस पर बहस का कोई मतलब नहीं बचा। सच यह है कि अपने ही राज्य में विस्थापित हुए। शांति की खोज में श्रीनगर पहुंचे पर ठहरने नहीं दिया गया। जम्मू की ओर धकेल दिया गया। फिर जम्मू से भी लखनपुर के आगे तड़ी पार।
 
दिल्ली की दरियादिली की चर्चा सुनी। सभी विस्थापितों का पुनर्वास दिल्ली कर रही है। मुआवजा दे रही है। जमीन दे रही है। चल पड़े दिल्ली की ओर। जब विधाता ही रूठा हो तो भारत भाग्य विधाता क्यों सुनते। जवाहरकट की जेब पर इतरा रहा गुलाब कुटिलता से मुस्कुराया और शेख अब्दुल्ला से मिलने की सलाह दी। जब बताया गया कि शेख ने ही हमें राज्य से बाहर धकेल दिया है तो आश्वासन मिला कि आपका इलाका जल्दी ही पाकिस्तान से खाली करा लिया जायेगा और आप अपने घरों में जा सकेंगे। बरस-दर-बरस बीतते गये और एक दिन सरकार ने फैसला ले ही लिया। फैसला था कि जम्मू कश्मीर के इन विस्थापितों का पुनर्वास नहीं होने देंगे। पुनर्वास हो गया तो उनके इलाके पर हमारा दावा कमजोर हो जायेगा।
 
जम्मू कश्मीर बैंक की स्थापना महाराजा हरि सिंह ने की। मीरपुर, मुजफ्फराबाद, गिलगित, बल्तिस्तान, सभी जगह उसकी शाखाएं। सभी जगह स्थानीय लोगों के खाते, जिनमें उनकी खून पसीने की कमाई का पैसा। इलाके पर कब्जा हो गया। जेके बैंक आज भी चल रही है। नेताओं और अधिकारियों के लाड़लों पर करोड़ों रुपये लुटाने की खबरें हर रोज आ रही हैं, लेकिन जिन लोगों का धन 1947 के पहले से इन खातों में जमा था, उन्हें आज तक वह पैसा नही मिल सका। विश्व बैंक के ऋण से मंगला बाँध बनाया गया। मीरपुर शहर उसमें डूब गया। जिन लोगों की संपत्ति उसमें डूबी, उन सभी को विश्ववैंक ने मुआवजा दिया। पाक अधिक्रांत जम्मू कश्मीर के जिन विस्थापितों की संपत्तियां इस बांध में डूबीं, उनके लिये भी मुआवजे का प्रावधान हुआ। पर सरकार फिर बीच में आ गयी। उसने तर्क दोहराया कि अगर लोगों ने अपना मुआवजा ले लिया तो जमीन पर से दावा खत्म हो जायेगा। अगर दावा खत्म हो जायेगा तो हम उन्हें उनके घरों में वापस भेजने का वादा कैसे पूरा कर सकेंगे। निष्कर्ष यह, कि कोई भी विस्थापित अपना मुआवजा नहीं लेगा। हम भी किसी का पुनर्वास नहीं करेंगे। विस्थापन का दंश लिये त्रिशंकु की स्थिति में अधर में लटके सत्तर साल बीत गये।
 
 
 
ऊपर वर्णित सभी समूहों के विस्थापितों ने अपनी जड़ों से उखड़ने के बाद जीवन चलाये रखने के लिये जहाँ संभव हुआ वहीं अपने आपको रोप दिया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि विशेष वातावरण में जीने का अभ्यस्त पौधा कहीं उगेगा तो वैसे ही फल-फूल भी सकेगा। देवदार और रुद्राक्ष जैसे पर्वतीय वृक्ष किसी बिगड़ैल धनिक के गमले की शोभा तो बढ़ा सकते हैं लेकिन वह उतने ही वैभव के साथ आकाश छुएंगे और बादलों को आमंत्रित करने में सक्षम होंगे इसकी संभावना कम ही है।
 
विस्थापन से पहले लगभग सभी विस्थापित संयुक्त परिवारों में रहते थे। विस्थापन के बाद परिवारों का बिखराव शुरू हुआ और एकल परिवारों की अधिकता हो गयी। नयी पीढ़ी के बच्चों के लिये न तो दादी-नानी की कहानियाँ हैं और न ही पर्व-त्यौहार। जो हैं, उनका स्वरूप बदल गया है। अब वह होली-दिवाली मनाता है और शिवरात्रि तथा बैसाखी अब कर्मकाण्ड भर रह गये हैं। विस्थापन के यह वर्ष प्रत्येक समाज को उसकी परम्पराओं, प्रवृत्तियों और संबंधों से काटने में एक हद तक सफल रहे हैं। नयी पीढ़ी अपनी भाषा भूल चुकी है, मुहावरे, कहावतें, किस्से पीछे छूट चुके हैं। परिवेश जिसमें पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, वृक्ष, पर्वत, हिम था, वह अब अदृश्य है। नयी पीढ़ी के लिये उसकी कल्पना भी असंभव है।
 
विस्थापन के इन वर्षों में उस पीड़ा को अभिव्यक्त करता काफी कुछ लिखा गया है। कुछ रचनायें तो कसौटी बन गयी हैं। लेकिन एक समाज नयी पीढ़ी में आकार ले रहा है जो इन स्मृतियों से भी वंचित है। नयी पीढ़ी कटी पतंग की तरह हवा में लहरा रही है लेकिन उसकी नियति उसे अपनी जड़ों से शायद ही फिर से मिलने दे। समय है जब पीछे छूट गयी इन स्मृतियों को सहेज लिया जाय ताकि सांस्कृतिक रूप से समृद्ध इस विस्थापित समाज की पीड़ा और जिजीविषा की यह अद्भुत् गाथा भारतीय साहित्य में अपना स्थान पा सके।
 
 
 
( आशुतोष भटनागर जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक हैं)  
Powered By Sangraha 9.0