देवी रूप भवानी का 400वां जयंती वर्ष; कश्मीर की महान दार्शनिक संत, जिसने कश्मीरी भाषा और शैव दर्शन को परंपरा नया जीवनदान दिया
   30-जून-2020

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17 वीं सदी की कश्मीरी रहस्यवादी कवयित्री और संत माता रूप भवानी का 400 वां जयंती वर्ष बीते सोमवार से शुरू हुआ। इस मौके पर उपराज्यपाल गिरीश चंद्र मुर्म ने राजभवन में कविताओं की स्मारिका का विमोचन किया। जीसी मुर्मू  ने कहा कि समुदाय को दुनिया भर में कश्मीर शैववाद के संदेश को फैलाना और बढ़ावा देना जारी रखना चाहिए। श्री अलख साहिबा ट्रस्ट के अध्यक्ष चंदर मोहन धर ने बीते सोमवार को कहा कि हमने आज से माता रूप भवानी की 400 वीं जयंती के उपलक्ष्य में साल भर का उत्सव शुरू किया है।
 
 
 जानिए कौन थी देवी रूप भवानी


कश्मीरी पंडितों की देवी रूप भवानी का जन्म येष्ठ पूरनमासी वर्ष 1621 धर परिवार में हुआ था। देवी रूप भवानी को अक्लेश्वरी माता के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने कश्मीरी भाषा और शैव दर्शन को एक नई दिशा थी। कश्मीरी हिन्दू में मुख्य रूप से सप्रू और धर उपनाम वाले परिवार कृष्ण पक्ष के माग महीने में माता रूप भवानी के नाम से हवन करते और घर में प्रसाद के रूप में खीर बनाते हैं।


माता रूप भवानी के जन्म को लेकर एक मान्यता है कि माधव जू धर नाम के कश्मीरी हिन्दू जो बहुत धार्मिक और दार्शनिक व्यक्ति थे। वह माता शारिका यानि शक्ति के उपासक थे। माधव जू अपने दिन की शुरुआत देवी के दर्शन से ही करते थे। रोज़ ब्रह्म मुहूर्त में वहां पूजा अर्चना करते थे और घंटों माता शारिका की पूजा करते थे। ऐसा माना जाता है कि माधव जू नवरात्री के पहले दिन आश्विन महीने वर्ष 1620 में मध्यरात्रि को पूजा अर्चना करने पहुंचे थे। उनके भक्ति भाव को देखकर देवी ने एक छोटी कन्या के रूप में उनको दर्शन दिया। माधव जू कन्या को देखकर बहुत प्रसन्न हुये और उनका भक्ति भाव आंसुओं के रूप में छलक पड़ा। माधव जू समझ गये थे कि साक्षात देवी ने उन्हें दर्शन दिया है।  उन्होंने चरणों में फूल अर्पित किये और मिठाई दी। उनकी सादगी को देखकर देवी अत्यंत प्रसन्न हुई।  माधव जू ने देवी से अनुरोध किया कि व उनके घर में बेटी के रूप में जन्म ले और इसके बाद ही माता रूप भवानी का जन्म हुआ और उनका नाम अक्लेश्वरी रखा गया था। अक्लेश्वरी का बचपन मां शारिका की भक्ति में बीता था। उनके पिता माधव जू अध्यात्म में इतने लीन रहते थे कि उनके दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से चलकर आते थे। बचपन से ही अक्लेश्वरी उन्हें देखते हुये बड़ी हो रही थीं, जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ रही थी वैसे-वैसे उनका अध्यात्म ज्ञान भी बढ़ रहा था। उनके पिता माधव जू ही उनके गुरु थे जिन्होंने उनको अध्यात्म का रास्ता दिखाया और दीक्षा दी।
 

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मान्यता है कि अक्लेश्वरी का विवाह सप्रू परिवार में हुआ था और उनका विवाहित जीवन बहुत दर्द भरा था। उनके पति का नाम हीरानंद सप्रू था, जो अक्लेश्वरी के अध्यात्म ज्ञान को नहीं समझ थे। उनकी सास सोंप कुंज ने भी उनके इस भाव में कोई रुचि नहीं दिखाई और अंततः उनको केवल दुःख ही दिये और सिर्फ कमियां ही निकाली। एक बार मध्य रात्रि को अक्लेश्वरी माता शारिका की पूजा अर्चना के लिए जा रही थी। हीरानंद को कुछ शक होने लगा तो वो उनका पीछा करते-करते मंदिर पहुंचे, जब अक्लेश्वरी ने उन्हें देखा तो उन्हें देवी की आराधना के लिए आमंत्रित किया। लेकिन अचानक उन दोनों के बीच एक झरना-सा बन गया और हीरानंद को वापस लौटना पड़ा। एक अक्लेश्वरी के पिता माधव जू ने अक्लेश्वरी के यहां मटके में खीर भेजी और इस पर भी उनकी सास सोंप कुंज को गुस्सा आ गया और बोलने लगी ये खीर कम है मैं सभी रिश्तेदारों को कैसे दूंगी। जिसके बाद  अक्लेश्वरी ने बस बांटने के लिए कहा और ऐसा कहा जाता है कि वो खीर बंटती चली गई, इसीलिए इस दिन खीर बनाई जाती है। 
 


अक्लेश्वरी ने ससुराल में बहुत दुख सहने के बाद अपने पति को छोड़ दिया और अध्यात्म को ही अपने जीवन का अर्थ समझा। उन्होंने जहां-जहां भी साधना की वहां पर उनका सामना अनेक भक्तों से हुआ।  एक ग्वाले पर अक्लेशवरी की कृपा हुई तो ग्वाले लाल चन्द्र ने अक्लेश्वरी की बहुत सेवा की पर अक्लेश्वरी ने एकांत पाने के लिए गांव छोड़ दिया और शकोल नदी के किनारे एक झोपड़ी में रहने लगी। वहां पर वह कभी किसी नेत्रहीन व्यक्ति को ठीक करना, लोगों की मदद करना, कश्मीरी भाषा और अपने अध्यात्म पर ध्यान केंद्रित करती थी। उनके अनेकों चमत्कार देखकर उनके भक्त चौंक जाते थे। एक बार किसी भक्त ने उनसे नाम पूछा तो भवानी ने कहा 'रूप' जिसका अर्थ होता है 'आत्म बोध' इसीलिए उन्हें 'रूप भवानी' कहा जाता है।
 


माता रूप भवानी संस्कृत, फ़ारसी और शारदा लिपि में निपुण थी और वेदांत, उपनिषदों और कश्मीर शैव मतों की अच्छी जानकार थी। उनकी वाक्स (आध्यात्मिक कविता) रूपा भवानी रहसोपदेश (आध्यात्मिक शिक्षा) का एक हिस्सा है।
 

माता रूप भवानी ने अपने उपदेश में कहा था कि साधना के पथ में पूरा ज्ञान होने के साथ राम का नाम ले तो ब्रह्म रूप स्वयं प्राप्त हो जाता है। वास्तव में राम हमारे जीवन के आधार रहे हैं, वे हमारी जीवन-शैली और संस्कृति के अंग हैं। शिव एक सर्वकालिक अभिभावक की तरह हमारी रक्षा करते हैं। ये हमारे आर्त-क्षणों में सहायक होते हैं। हमारे ध्यान में शिव चाहे हमेशा न रहें पर उनकी चिंताओं में हम हमेशा रहते हैं। शिव बिना देरी किये प्रार्थना सुनते ही तत्काल निदान करते हैं इसलिए राम और शिव अलग नहीं हैं। बस दोनों की भूमिकाएं अलग हैं। माता रूप भवानी का मंदिर/आश्रम जम्मू के तालाब तिल्लो में स्थित है। अध्यात्म की धरती कश्मीर ने एक से एक संतों और देवी देवताओं के अवतारों का अनुभव किया है। ऐसा ही एक अवतार था 'रूप भवानी' जिन्हें आज भी कश्मीरी हिंदू परिवार अपना अराध्य मानते है।