27 जुलाई, 1998 की वो काली रात, जब आतंकियों ने 2 गावों के 16 बेगुनाह हिंदूओं की हत्या कर दी थी
   27-जुलाई-2021

16 innocent Hindus were m
 
23 साल पहले, 1998 में देश के हालात तेजी से बदल रहे थे। बीजेपी तीस से ज्यादा राजनीतिक दलों के साथ केंद्र में सरकार चला रही थी। लेकिन देश राज्य जम्मू कश्मीर में आतंकवाद की समस्या अभी भी ज्यों की त्यों बनी हुई थी। केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर में हालात सुधारने की कोशिश में लगी थी। लेकिन वो कोशिश नाकाफी थी। कश्मीर घाटी के बाद जम्मू क्षेत्र में भी हिंदूओं के गांवों पर पाकिस्तान परस्त इस्लामिक आतंकी लगातार हमले कर रहे थे। ऐसा ही एक हमला हुआ डोडा जिले में 27 जुलाई 1998 की रात। जहां आतंकवादियों ने आस-पास बसे दो गांवों के 16 बेकसूर लोगों की हत्या कर डाली थी।
 
जुलाई, 1998 के उन दिनों में किश्तवाड़ (उस वक्त किश्तवाड़ भी डोडा जिले का हिस्सा था) का मौसम बहुत अच्छा था, यहां किश्तवाड़ से 2 घंटे के सफर के बाद ठकराई औऱ फिर वहां से 3 घंटे की पहाड़ी चढ़ाई चढने के बाद गांव आता है हाडना, बड़े गांव हाडना के पास एक और गांव है सरवन। 27 जुलाई की रात कुछ आतंकी पहाड़ों को पार कर दूसरी तरफ से गांव में घुसे और सोते हुए लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दी। गोली की आवाज इतनी तेज थी कि उन बेगुनाहों की चीख की आवाज भी नहीं सुनाई दे रही थी। इस हमले में 9 मासूमों को जान गंवानी पड़ी।
 
इस हमले के बाद आतंकी इत्मीनान से पास ही के सरवन गांव की तरफ बढ़े। जहां पर उन्होंने फिर एक हिंदू परिवार पर हमला करके 7 बेगुनाह लोगों का शरीर गोलियों से छलनी कर दिया। घटना को अंजाम देने के बाद आतंकी रात के अंधेरे का फायदा उठाकर पहाड़ी जंगल में वापिस गायब हो गये।
 
एक ही रात में इस्लामिक आतंकियों 16 बेगुनाहों की नृशंस हत्या कर दी थी। लेकिन गांववालों ने सिर्फ आतंकी की गोलियां नहीं खायी, बल्कि प्रशासन के बेरूखी और गहरे ज़ख्म देने वाली थी। इतना स्पष्ट है कि दूरदराज गांवों में होने के चलते घायलों को समय पर अस्पताल नहीं पहुंचाया जा सका। घायलों का सही आंकड़ा स्पष्ट नहीं है। उस समय आउटलुक मैगज़ीन में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक (जोकि 2 हफ्तों बाद प्रकाशित हुई), 16 लोगों की हत्या के बाद भी एक हफ्ते तक न पुलिस और न ही कोई प्रशासनिक अधिकारी हाडना या सरवन पहुंचा। यहां तक की लोकल मीडिया को भी खबर कई दिन बाद लगी। तत्कालीन न्यूज रिपोर्ट्स के मुताबिक घटना के करीब 9 दिन के बाद सबसे पहले अधिकारी डोडा जिले डिप्टी कमिश्नर देवेन्द्र नरगोत्रा घटना स्थल पर पहुंचे। जिसके बाद पहला एक स्थानीय पत्रकार नजीर अहमद अपने टीम के साथ इन गांवों में पहुंचे।
 

16 innocent Hindus were m 
 
इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जम्मू कश्मीर में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला किस कदर जम्मू में हिंदूओं और आतंकी हमलों के प्रति निष्क्रिय थे। जो तुरंत कार्रवाई तो दूर, प्रशासन समय पर मारे गये बेगुनाहों के परिवार वालों के सांत्वना तक नहीं दे पाये।
 
किश्तवाड़ के लोगों के फारूख अब्दुल्ला की राज्य सरकार पर कोई भरोसा नहीं था। लिहाजा लोगों ने वाजपेयी सरकार न्याय और सहायता की गुहार लगायी। लेकिन केंद्र का कोई नेता भी उनके जख्मों पर मरहम लगाने में नाकाम रहा।
 
सुरक्षा की मांग को लेकर 3 दिन तक गांव वालों का धरना
 
डर के साये में रह रहे गांव वाले आखिरकार किश्तवाड़ पुलिस स्टेशन में जमा हुए। जहां वो 3 दिन तक पुलिस अधिकारियों से अपनी सुरक्षा की भीख मांगते रहे। लेकिन पुलिस ने उन्हें किसी तरह की सुरक्षा नहीं दी। पुलिस प्रशासन का मानना था कि दूरदराज के गांवों में पुलिस के लिए चौबीसों घंटे सुरक्षा मुहैया कराना संभव नहीं है। लिहाजा बेहतर होगा गांव वाले खुद अपनी सुरक्षा का जिम्मा उठायें। लिहाजा तीन दिनों धरने के बाद पुलिस ने जिले के अलग-अलग गांवों में विलेज डिफेंस कमेटी बनायी। जिसमें हरेक गांव के युवाओं को कुल 303 राइफल बांटी गयी। अब गांव के लोगों की सुरक्षा इन्हीं वीडीसी यानि विलेज डिफेंस कमेटी के हवाले थी।
 
पुलिस ने युवाओं को बंदूक तो दे दी, लेकिन बंदूक चलाने का प्रशिक्षण नहीं दिया। बंदूक मिलने के बाद भी गांव वालों की दिन-रात की नींद उड़ चुकी थी। सभी गांव वाले हर वक्त डर के साये में जी रहे थे। गांव का स्थानीय निवासी 20 वर्षीय सुनील कुमार ने एक स्थानीय पत्रकार को बताया कि मुझे बंदूक तो मिल गई, लेकिन मुझे चलाना नहीं आता है।
 
मामला मीडिया में उठा तो इन वीडीसी को आर्मी की मदद से कुछ दिनों की ट्रेनिंग दे गयी। जिसके बाद जम्मू के गांवों में हालात थोड़े बेहतर हो पाये। लेकिन 16 बेगुनाहों के हत्यारें आतंकियों को कभी सज़ा नहीं मिल पायी।