अफगानिस्तान में भारत का भविष्य: एक विश्लेषण
   23-अगस्त-2021

 Afghanistan An analysis_
 
लेखक-देवेंद्र सिकरवार
 
विस्तृत विश्लेषण से पूर्व ही एक पंक्ति में भविष्य की एक चेतावनी अवश्य लिख देना चाहूँगा-
 
"भारत सरकार ने किसी भी स्थिति में, यहाँ तक कि अमेरिका सहित पूरे विश्व द्वारा मान्यता देने की स्थिति में भी अगर तालिबान को मान्यता दे दी तो भारत और भाजपा दोनों को वो क्षति उठानी पड़ेगी जिससे वह कभी उबर नहीं पायेंगे।"
ऐसा कहने के पीछे न तो कोई पूर्वाग्रह है और न ही कोई काल्पनिक समीकरण बल्कि वह सुस्पष्ट तथ्य हैं जो सामने सूरज की रोशनी की तरह साफ हैं।
 
1-अफगानिस्तान पर तालिबान का सरलता से कब्जा:-- 
 
कुछ लोग इसमें अमेरिका की पराजय देख रहे हैं और कुछ लोग अमेरिका की चालबाजी देख रहे हैं।
 
अमेरिकी पराजय के विषय में बस यही कहना सही होगा यह लोगों की गलतफहमी है कि अमेरिका युद्धों को अधूरा छोड़ता है। दरअसल अमेरिका युद्ध में सदैव अपने न्यूनतम लक्ष्य हासिल करता ही है चाहे बोनस मिले न मिले।
 
उदाहरण के लिये:-
 
-जापान को पराजित किया और फिर जापान के सम्राट को पद पर बने रहने दिया। अब आप इसे अमेरिका की पराजय मानें या रूस के खिलाफ जापान को इस्तेमाल करने की रणनीति, अपनी अपनी सोच है पर आज भी प्रशांत महासागर में जापान अमेरिका का सबसे बड़ा सैन्य सहयोगी है।
 
-वियतनाम में अमेरिका का मूल उद्देश्य था रूस, चीन और वियतनाम की 'लाल रेखा' न बनने देना और जब किसिंजर ने 1971 में चीन को रूस से अलग कर दिया तो अमेरिका वियतनाम को छोड़कर हट गया। लोग चाहें तो इसे अमेरिका की पराजय कह सकते हैं लेकिन सत्य तो यह है कि 1971 में किसिंजर की गोपनीय चीन यात्रा के बाद चीन न केवल रूस से अलग हो गया बल्कि 1979 में उसी वियतनाम पर आक्रमण कर दिया जिसका अमेरिका के विरुद्ध समर्थन कर रहा था।
 
-अमेरिका अफगानिस्तान में दो लक्ष्यों को लेकर उतरा था, प्रथम ओसामा को दंडित करना और दूसरे अल कायदा का अफगानिस्तान से सफाया। तालिबान उसकी हिट लिस्ट में कभी थे ही नहीं क्योंकि अमेरिकियों की निगाह में अमेरिकी मुख्य भूमि पर हमला करने की क्षमता अल कायदा की थी, गंवार और मूर्ख तालिबान की नहीं। इसीलिये ओसामा को दंडित करने और अल कायदा का सफाया करने के लिए उसने इधर तालिबान को फोड़ा जिसका सबसे बड़ा प्यादा बना गनी बरादर और आईएसएस के महाभ्रष्ट अफसर।
 
चूँकि अब दोंनों लक्ष्य पूर्ण हो चुके इसलिये अमेरिका की अब अफगानिस्तान में कोई दिलचस्पी नहीं बची है फिर भी अमेरिका के अनुरोध से बरादर का जेल से मुक्त होना बहुत कुछ कहानी बयान करता है जिसमें एक संभावना यह है कि अमेरिका तालिबान को काबुल का खुला रास्ता मिलना चीन में उइगर लड़ाकों को समर्थन से जुड़ा हुआ है जिसके कारण चीन बुरी तरह डरा हुआ है और फूँक-फूँक कर कदम उठा रहा है।
 
लेकिन चीन ने जिस तरह लपककर तालिबान को मान्यता दी है उससे लगता नहीं कि अमेरिका को यहाँ कोई बोनस लाभ मिलने जा रहा है।
 
बहुत संभव है कि तालिबान, अमेरिका, गनी डील पहले ही हो चुकी थी, लेकिन तालिबान चीन से पंगे लेगा इसकी संभावना ना के बराबर ही है।
 
यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि इस तथाकथित गुड-तालिबान से अमेरिकी वार्ता ट्रंप के काल में चली और सेना वापसी का निर्णय भी उन्हीं का था, जो बिडेन ने तो उसे कार्यान्वित भर किया है लेकिन यह बिडेन की फूटी किस्मत कि पूरा ठीकरा उन्हीं के मत्थे आ पड़ा जबकि अमेरिकी थिंक टैंक की सहमति के बिना अमेरिकी राष्ट्रपति इस तरह के निर्णय नहीं लेते।
 
 
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2- पुतिन कहाँ तो अपने संरक्षण वाले मध्य-एशियाई देशों की खातिर बाँहें चढ़ा रहे थे लेकिन तालिबान के काबुल पर कब्जे के साथ ही उन्हें 'पाकिस्तान से बसपन का प्यार' याद आ गया है और वे तालिबान को मान्यता देने के लिए उतावले नजर आ रहे हैं।
 
3-तालिबान एक ओर तो भारत से अनौपचारिक रूप से अपने राजनयिकों को वहीं बना रहने देने का अनुरोध कर रहा है वहीं पाकिस्तान के इशारे पर कॉन्सुलेट की तालाशी लेकर अपना दृष्टिकोण जता रहा है।
 
एक ओर अपने प्रोजेक्ट को पूरा करने देने का 'एहसान दिखा रहा है और दूसरी ओर 'भारत की सैन्य कार्रवाई' से डरकर घुड़कियाँ भी दे रहा है।
 
बहरहाल व्यापार अफगानिस्तान के पक्ष में होने के बाद भी ट्रांजिट रोड को बंद कर उसने भारत को अपना चेहरा दिखा दिया है, बाकी दुनिया के लिये चाहे जो हो।
 

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4-भगोड़े राष्ट्रपति अशरफ गनी और अफगान सेना की तालिबान से मिलीभगत से जाहिर हुआ इस्लामिक अफगानी चरित्र देर-सवेर भारत के खिलाफ ही इस्तेमाल होना है।
 
कुल मिलाकर कम से कम आज अफगानिस्तान में भारत बहुत बड़े घाटे में है।
 
-अरबों डॉलर्स का निवेश डूब चुका है।
 
-चाबहर बंदरगाह की उपयोगिता समाप्त प्रायः है।
 
-काबुल के भारत विरोधी आतंकवादियों के अड्डे के रूप में बदल जाने की पूरी संभावना है।
 
-पुतिन की शृगाल नीति के कारण ताजिकिस्तान का एयरबेस अपनी उपयोगिता खो सकता है क्योंकि उसका रूस की इच्छा के विरुद्ध उपयोग असंभव है।
 
 
-हताश निराश और टूटने के कगार पर पहुंचे पाकिस्तान को संजीवनी मिल गई है।
 
भारत के लिए इस प्रकरण में आशाएं:--
 
-तात्कालिक रूप से पंजशीर के शेर कहे जाने वाले अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद व भारत समर्थक पूर्व उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह द्वारा तालिबान के खिलाफ नॉर्दर्न-एलायंस को पुनर्जीवित करने की कोशिश लेकिन पंजशीर के मुखियाओं द्वारा अमरुल्लाह सालेह को पंजशीर छोड़ने को कहने तथा अहमद मसूद द्वारा तालिबान से वार्ता की स्वीकृति देने से लगता है कि अहमद मसूद का लक्ष्य सिर्फ सत्ता में भागीदारी है न कि तालिबान से कोई दीर्घ संघर्ष।
 
स्पष्ट है अफगानी चरित्र विश्वास के योग्य नहीं होते लेकिन तालिबान के विरोध को बनाये रखने के लिए पंजशीर का तालिबान के विरोध में सतत खड़े रहना बहुत जरूरी है।
 
-गनी बरादर, अखुंदजादा, मुल्ला याकूब और सिराजुद्दीन हक्कानी के बीच सत्ता संघर्ष की संभावना हाल फिलहाल तो कम लग रही है विशेषतः आईएसआई के रहते, लेकिन अभी कुछ समय पहले जिस तरह तालिबान के नेता संगठन पर कब्जा करने के लिये आपस में कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ रहे थे, उससे निश्चित है कि इनमें आंतरिक संघर्ष तय है, सवाल केवल तिथि व घटना का है।
 
-तालिबान आतंकवादी जब 1996 में काबुल घुसे थे तब वह खण्डहर का ढेर था लेकिन आज का काबुल विश्व के किसी भी राजधानी शहर की तरह भव्य है। इसके शानदार मॉल, भव्य सरकारी व निजी इमारतें, जिम, प्लेग्राउंड, भोजनालय, आइसक्रीम पार्लर, पार्क आदि जबकि गुफाओं में जीवन बिताने वाले ये बर्बर जिस तरह आचरण कर रहे हैं उससे स्पष्ट है कि काबुल की विलासिता में देर सवेर सत्तासुख, शक्ति का मद इनसे वह सबकुछ करवाएगा जिसके विरोध में होने का दावा ये करते हैं।
 
इस बीच भारत 'वेट एंड वॉच' की पॉलिसी फॉलो कर रहा है।
 
लेकिन कहते हैं ना कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं तो इतने बुरे घटनाक्रम में भारत के गृहक्षेत्र में इस घटना के कुछ सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं।
 
-वामपंथी, लिबरल बुद्धिजीवियों और धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों द्वारा तालिबान की भर्त्सना से आँखें चुराने और समस्त मुस्लिम समाज व मुस्लिम सांसदों द्वारा जिस तरह से उल्लास प्रकट किया है उसने न केवल हिंदुओं को एकजुट कर दिया है बल्कि भाजपा विरोधी जातियों व समाजों के काफी बड़े वर्ग को भी भाजपा और विशेषतः योगी का समर्थक बना दिया है जिसका सबसे ज्यादा फायदा आगामी चुनाव में उसे मिलेगा।
 
 
अब ऐसी परिस्थितियों में यदि सरकार तालिबान को मान्यता दे देती है तो न केवल न्यूट्रल बल्कि कट्टर भाजपा समर्थकों को भी भयानक निराशा हो सकती है। यह निराशा वोटों का नुकसान ही नहीं करेगी बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से हिंदुओं में हीन भावना का संचार करेगी।
 
लेकिन इसका सबसे भयानक प्रभाव यह होगा कि तालिबान के रूप में इस्लामिक आतंक को न केवल मान्यता मिलेगी बल्कि मुस्लिम इसे इस्लाम की जीत के रूप में देखेंगे बल्कि देखना शुरू कर दिया है।
 
दूसरी ओर मान्यता देने से तालिबान के इस्लामिक मिजाज में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला और एक बार मान्यता हासिल करने के बाद तालिबान को भारत के खिलाफ कश्मीर में उतरने से कोई नहीं रोक सकेगा। उसने भारतीयों को अगवा करके अपने इरादे जाहिर भी कर दिये हैं।
 
क्योंकि अब जेहादी ताकतों का निशाना अकेले भारत है तो भारत को ये जान लेना चाहिये कि तालिबान व पाकिस्तान के विरुद्ध लड़ाई उसे जो लड़ाई लड़नी है अपने दम पर लड़नी है क्योंकि अमेरिका व यूरोप इ स्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध अपनी पुरानी शुतुरमुर्गी नीति पर लौट आये हैं क्योंकि अब उनका ध्यान सिर्फ चीन पर है।
 
ऐसी स्थिति में भारत को दृढ़ता के साथ अपने स्टैंड पर बरकरार रहना चाहिए और वक्त का इंतजार करना चाहिए।
 
भारत की ताकत उसकी 'राष्ट्रवादी हिंदू' जनसंख्या में निहित है, यूरोप या अमेरिका में नहीं।
 
(उपरोक्त विश्लेषण लेखक की निजी राय है, JKNow का मकसद अफ़ग़ानिस्तान को लेकर चल रही परिस्थितियों को जानने-समझने में अलग-अलग पहलु और विचार को सामने रखना है।)