ऑपरेशन पवन : नायक सुखदेव सिंह की वीरता की कहानी, जख्मी होने के बाद भी करते रहे दुश्मनों पर वार
सन 80 का दशक श्रीलंका के लिए बेहद ही कठिन दौर था। उस वक्त श्रीलंका भीषण गृहयुद्ध से जूझ रहा था। इस गृहयुद्ध में श्रीलंका ने भारतीय सेना की मदद ली और भारतीय शांति सेना ने श्रीलंका के जाफना को लिट्टे से मुक्त कराने के लिए ऑपरेशन पवन चलाया। दरअसल 11 अक्टूबर, 1987 को भारतीय शांति सेना ने श्रीलंका में जाफना को लिट्टे के कब्जे से मुक्त कराने के लिए ऑपरेशन पवन शुरू किया था।
शांति समझौते के तहत भारतीय सेना श्रीलंका पहुंची
इसकी पृष्ठभूमि में भारत और श्रीलंका के बीच 29 जुलाई 1987 को हुआ वह शांति समझौता था, जिसमें भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति जे.आर. जयवद्धने ने हस्ताक्षर किया था। समझौते के अनुसार, श्रीलंका में जारी गृहयुद्ध को खत्म करना था, इसके लिए श्रीलंका सरकार तमिल बहुल क्षेत्रों से सेना को बैरकों में बुलाने और नागरिक सत्ता को बहाल करने पर राजी हो गई थी।
शांति बनाए रखने के उद्देश्य से इंडियन पीस कीपिंग फोर्स को भेजा गया श्रीलंका
ऑपरेशन पवन की पृष्ठभूमि श्रीलंकाई गृहयुद्ध 1983 में अल्पसंख्यक तमिल आबादी और बहुसंख्यक सिंहली के बीच शुरू हुआ था। लिट्टे यानि ( जिसे तमिल टाइगर्स के रूप में भी जाना जाता है) यह उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में एक तमिल मातृभूमि बनाने के उद्देश्य से एक प्रमुख विद्रोही गुट के रूप में उभरा था। श्रीलंकाई सेना के साथ उनकी झड़पों में सिंहली और तमिल दोनों आबादी के उच्च नागरिक बड़ी संख्या में हताहत हुए।
इस दमन चक्र का परिणाम यह हुआ कि श्रीलंका से तमिल नागरिक बतौर शरणार्थी भारत के तमिलनाडु में भागकर आने लगे। यह स्थिति भारत के लिए अनुकूल नहीं थी। इसीलिए श्रीलंका के साथ हुए समझौते में ''इंडियन पीस कीपिंग फोर्स'' का श्रीलंका जाना तय हुआ, जहां वह तमिल उग्रवादियों का सामना करते हुए वहां शांति बनाने का काम करें, ताकि श्रीलंका से भारत की ओर शरणार्थियों का आना रुक जाए।
भारतीय सेना के जाबांज जवानों ने दिखाया अपना परचम
भारत ने राजनयिक और सैन्य साधनों के माध्यम से गृहयुद्ध में हस्तक्षेप किया। इस ऑपरेशन में भारतीय सेना के कई जवान शहीद हुए थे। उन्हीं जवानों में से एक थे ''नायक सुखदेव सिंह''। नायक सुखदेव सिंह श्रीलंका में भारतीय सेना के अल्फ़ा 1 ट्रूप के नंबर वन रॉकेट लॉन्चर थे। श्रीलंका में 4 मार्च 1989 में उनकी टीम को बड़ी संख्या में उग्रवादियों के एक समूह का सामना करना पड़ा। उस ऑपरेशन में नायक सुखदेव सिंह उग्रवादियों से कड़ी टक्कर लेते हुए एक माइंस से बुरी तरह जख्मी हो चुके थे।
बावजूद इसके उन्होंने दुश्मनों पर लगातार प्रहार करना जारी रखा। नायक सुखदेव सिंह के सर में बुरी तरह से चोट लगी थी फिर भी वो लगातार 90 मिनट तक दुश्मनों पर गोलियां बरसाते रहे। अपनी अंतिम सांसों तक वो उग्रवादियों के समूह से मुकाबला करते रहे और अंत में वीरगति को प्राप्त हो गए। नायक सुखदेव सिंह को मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।