मनुष्य के खून तक पहुंचा प्लास्टिक! “पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी, भारत में बढ़ी जागृति”
    09-अप्रैल-2022

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जीवन और पर्यावरण दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। बीते सप्ताह दो बड़ी खबरों ने पर्यावरण के प्रति जागरूक लोगों का ध्यान खींचा है। पहली खबर दुनिया भर के लिए खतरे की घण्टी है तो दूसरी खबर भारत के लिए थोड़ी राहत वाली है।
 
नीदरलैंड के शोधकर्ताओं के द्वारा एक परीक्षण के दौरान मानव रक्त में पहली बार माइक्रो प्लास्टिक मिलने की बात कही गई, जिसने दुनिया भर के वैज्ञानिकों को गंभीर चिंता में डाल दिया है। मानव रक्त में माइक्रोप्लास्टिक मिलना मानव जीवन के लिए एक बड़े खतरे के रूप में देखा जा रहा है ।
 
वहीं दूसरी ओर 'द प्लास्टिक वेस्ट मेकर्स इंडेक्स' के अनुसार दुनिया की 10 प्रमुख अर्थव्यवस्था वाले देशों में सिंगल यूज प्लास्टिक का सबसे कम उपयोग करने वालों में अपना देश भारत भी शामिल है। ये रिपोर्ट 2019 से 2021 के बीच किए शोध के आधार बनाई गई है। रिपोर्ट की माने तो भारत में प्रति व्यक्ति 4 किलोग्राम प्लास्टिक कचरा पैदा करता है।
 
इन दोनों खबरों में अगर समानता की बात करें तो एक चीज है जो दोनों खबर में देखने को मिल रही है। और वो है... प्लास्टिक। हवा के अलावा एक मात्र चीज "प्लास्टिक" ही है जो दुनिया के हर हिस्से में किसी न किसी रूप में मौजूद है ।
 
पृथ्वी पर प्रदूषण गंभीर समस्या है। इनमें से ज्यादात्तर समस्याएं इंसानों ने खुद खड़ी की है। अगर प्रदूषण के बढ़ने के कारणों का आंकलन करें तो सभी प्रकार के प्रदूषण चाहे वो जल हो भूमि या फिर वायु प्रदूषण । हर तरह के प्रदूषण को फैलाने में प्लास्टिक उत्पादों की एक बड़ी भूमिका है।
 
दरअसल प्लास्टिक एक प्रकार का रसायन है, जिसका उपयोग आज विभिन्न तरह के उत्पादों को बनाने में होता है। ये उत्पाद मानव जीवन को सरल और सहज बनाने के नाम पर बाजार ने हमारे घरों तक पहुंचाया है। पलास्टिक की ब्रांडिग और प्रमोशन का काम ऐसा जोरदार हुआ है कि प्लास्टिक के बिना जीवन की कल्पना भी बेमानी नजर आने लगती है।
 
उपयोग की दृष्टि से प्लास्टिक को मोटे तौर पर दो भागों में बांट सकते हैं ... सिंगल यूज और मल्टीपल यूज प्लास्टिक ।
 
रिसायकिल के नज़रिए से भी इसे दो रूपों में देखा जाता है डिलेड बायोडिग्रेडेबल और नॉन-बायोडिग्रेडेबल ।
 
डिलेड बायोडिग्रेडेबल का अर्थ है कि इसके नष्ट होने में बहुत समय लगे और नॉन-बायोडिग्रेडेबल का मतलब है कि जो कभी खत्म ही न हो ।
 
डिलेड बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक को नष्ट होने में 300 से 1200 साल तक का समय लगता है।
 
यानी मानव निर्मित प्लास्टिक कचड़ा जो रक्तबीज की तरह है जो किसी न किसी रूप में हर जगह पर्यावरण को निगलने के लिए मुंह बाए खड़ा है ।
 
लेकिन सबसे बड़ी समस्या सिंगल यूज प्लास्टिक को लेकर है। क्योंकि इसका इस्तेमाल बहुत ज्यादा होता है। और रिसाइकल नहीं होने के कारण इन्हें इस्तेमाल के बाद खुले में फेंक दिया जाता है। इससे मिट्टी की उर्वरता घट जाती है। पानी में जाने पर वह भी प्रदूषित हो जाता है। और यदि जला दिया जाए तो जहरीला धुआं बनकर हवा में घुल जाता है।
 
घर, ऑफिस, रेस्टोरेंट, होटल, अस्पताल हर जगह सिंगल यूज प्लास्टिक का जाल फैला हुआ है। जिसे इस्तेमाल कर फेंक दिया जाता है और यही प्लास्टिक फिर कूड़े के विशालकाय पहाड़ के रूप में दैत्य की तरह हर शहर में नजर आता है।
 
जहां आग लगी रहती है और यह धुएं में जहर घुलता रहता है। बहुत से जगहों पर रिसायकिल की भी व्यवस्था की गई है जो नाकाफी है और लापरवाही से की जाती है।
 
शहर ही नहीं गांवों में प्लास्टिक किसी खूंखार दैत्य से कम नहीं है। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में प्लास्टिक को तालाब, नदी, नाले या खुली जमीन पर फेंक दिया जाता है। फिर ये किसी ना किसी तरह खेतों तक पहुंच जाता है । और जमीन की उवर्रता को नुकसान पहुंचाता है।
 
कुल जमा बात यह है कि मिट्टी,जल और वायु की बात छोड़ दीजिए अब तो अंतरिक्ष भी प्लास्टिक कचड़े से पटा पड़ा है।
 
इसकी जिम्मेदारी भी हम लोगों पर ही है। प्रकृति की सुंदरता का आनंद लेने के लिए लोग हिल स्टेशन पर जाते हैं। जाना भी चाहिए इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन लोग वहां भी कचरा और प्रदूषण फैलाने से बाज नहीं आते हैं। ये गलत है।
 
एक छोटा सा वाक्या बताता हूँ ... कोरोनकाल से पहले घूमने के लिए परिवार के साथ सुदूर हिमाचल के एक हिल स्टेशन पर जाना हुआ । हिल स्टेशन से नीचे काफी लंबे सफर के बाद हमलोग वोटिंग के लिए एक डैम पर पहुंचे, वोटिंग का टिकट कटाया और नदी के किनारे बने रैम्प पर गए तो देखा जहां तक नज़रें जा रही है स्थिर पानी मे बस पॉलीथिन,प्लास्टिक की बोतलें, जूते-चप्पल और प्लास्टिक की वस्तुएं तैर रही थी ।दृश्य ऐसा था मानो प्लास्टिक के समुद्र में आ गए हों। मजबूरन ऐसे हालात को देख पैसा खर्च करने के बाद भी बिना वोटिंग के लुत्फ उठाये ही बेरंग लौटना पड़ा।
 
रास्ते भर मन में सवाल उठते रहे कि हम प्रकृति के साथ क्या कर रहे हैं? इस क्रिया की प्रतिक्रिया में प्रकृति से जो परिणाम मिल रहा है उसके बारे में हम सोच भी रहे हैं क्या ? यह सब कुछ हमारे अतिवाद का ही तो परिणाम है जहां उपभोक्ता के रूप में हम बाजार की सुविधा भोगी जीवन शैली के क्षणिक सुख में फंसते जा रहे हैं ।
 
मनुष्य जीवन का अर्थ क्या केवल अर्थ का उपार्जन मात्र रह गया है ? या केवल क्षणिक सुविधा के नाम पर मनुष्य सहित प्राणी मात्र को विनाश की ओर ले जाने वाली वस्तुओं का बाज़ार बनाना रह गया है ?
 
इस विषय पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता आन पड़ी है ।
 
बाजार ने लालच में एक ऐसा जहर दुनिया को दिया जो हमें धीरे-धीरे विनाश की ओर ले जा रहा है। प्लस्टिक जनित प्रदूषण विभिन्न स्तर पर मानव शरीर में घुसपैठ कर हमें कैंसर, थायरायड आदि अनेक जानलेवा बीमारियों से ग्रसित करता जा रहा है और हम क्षणिक सुविधा या आलस्य के मारे रोजाना मौत को घर लाने का काम कर रहे हैं।
 

कोरोना से मौत का डर लगा तो हम मास्क लगाए घूम रहे हैं। लेकिन प्लास्टिक से कैंसर का डर हमें क्यों नहीं लगता ??