स्वामी विवेकानंद जयंती विशेष; जानिए आधुनिक इतिहास में विश्व को धर्म, ज्ञान से ओतप्रोत सनातन संस्कृति के दिव्य दर्शन कराने वाले महान संत की गाथा
   12-जनवरी-2023
 Sister Nivedita swami vivekananda
 
 
 
 
वेदान्त दर्शन के प्रखर विद्वान और भारतीय वैदिक ज्ञान के समकालीन और भविष्योन्मुखी प्रयोगशीलता के भाष्यकार , आध्यात्मिक शिक्षाविद, दूरदर्शी विचारक, युवाओं में सकारात्मकता , सामाजिक समस्याओं के प्रति व्यापक चेतना के प्रेरक , ओजस्वी विपुल वक्ता, निर्भीकता एवं साहस की प्रतिमूर्ति स्वामी रामकृष्ण परमहंस’ के शिष्य और रामकृष्ण मठ एवं रामकृष्ण मिशन के संस्थापक नरेंद्रनाथ दत्ता उपाख्य स्वामी विवेकानंद का जन्म पौष कृष्ण पक्ष, सप्तमी, 1919 विक्रम संवत तदनुसार ग्रेगोरियन पंचांग के 12 जनवरी 1863 को हुआ था।
 
 
स्वामी विवेकानंद जी ने युवाओं को समाज सेवा के महत्व का संदेश देने, उनका मार्गदर्शन करने और उनमें उच्च चरित्र और नेतृत्व के गुणों की आधारशिला रखने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया । गरीबों के प्रति उनकी सेवा की अवधारणा ने लाखों युवाओं के मन में प्रेरणा जगाने में सहायता की और इसके अतिरिक्त परतंत्रता के दिनों के ब्रिटिश उपनिवेवाद के चंगुल में जकड़े भारत से निकलकर विश्व-मंच पर भारतीय अध्यात्म और ज्ञान का परचम लहराना उनके अनंत योगदानो में से एक प्रमुख मील का पत्थर है। उनका जन्मदिन (12 जनवरी) प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है 
 
 
 
 
 
स्वामी विवेकानंद के कथन  
 
1. उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए।
 
2. स्वयं को शक्तिहीन समझना सबसे बड़ा पाप है।
 
3. तुम्हें कोई पढ़ा नहीं सकता, कोई आध्यात्मिक नहीं बना सकता। तुमको सब कुछ स्वयं के अंदर विद्यमान अनंत चेतन से स्वयं सीखना है। आत्मा से अच्छा कोई शिक्षक नहीं है।
 
4. सत्य को हज़ार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी हर बार सत्य एक ही होगा।
 
5. मनुष्य का बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है।
 
6. ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारे अंदर हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आंखों पर हांथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है।
 
7. विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहां हम खुद को मज़बूत बनाने के लिए आते हैं।
 
8. हृदय और मस्तिष्क के मध्य दवंद की स्थिति में हृदय की सुनो।
 

Swami Vivekananda
 
 
9. शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु हैं। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु हैं। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु हैं।
 
10. किसी दिन, जब आपके सामने कोई समस्या ना आए-आप सुनिश्चित हो सकते हैं कि आप गलत मार्ग पर चल रहे हैं।
 
11. जो कुछ भी तुमको शारीरिक बौद्धिक या मानसिक रूप से कमजोर बनाता है उसे जहर की तरह त्याग दो।
 
12. वेदान्त कोई पाप नहीं जानता, वह केवल त्रुटि जानता हैं। और वेदान्त कहता है कि सबसे बड़ी त्रुटि यह कहना है कि तुम कमजोर हो, तुम पापी हो, एक तुच्छ प्राणी हो, और तुम्हारे पास कोई शक्ति नहीं है और तुम यह नहीं कर सकते।
 
13. एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका हैं।
 
14. क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढता पूर्वक खड़ा होकर कार्य करना चाहिए। धीरे धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा।
 
15. जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो; वे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही हैं।
 
 
 
 
स्वामी विवेकानंद के बारे मे कथन
 


Rabindranath Tagore Swami Vivekananda 
 
16. यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद का अध्ययन करें। उसमें सब कुछ सकारात्मक है और कुछ भी नकारात्मक नहीं है -रवीन्द्र नाथ टैगोर
 
17. विवेकानंद जी ने अपने गुरु , रामकृष्ण का अनुसरण करते हुए, शास्त्रों के कथनों की तुलना में व्यक्तिगत अनुभव की वरीयता को महत्व दिया । शास्त्रों की पर्याप्तता की तुलना किसी यात्री के किसी देश में जाने से पहले मानचित्र की उपयोगिता से की जा सकती है। विवेकानंद के अनुसार, कोई मानचित्र, किसी स्थान पर जाने के पहले, पूर्व ज्ञान के लिए मात्र जिज्ञासा पैदा कर सकता है और उसके बारे में एक धुंधली जानकारी दिला सकता है। किन्तु मानचित्र वास्तव में उस देश के प्रत्यक्ष ज्ञान के बराबर नहीं हो सकता, वह ज्ञान वहाँ प्रत्यक्ष रूप से जाने से ही प्राप्त होता है - अनंतानंद रामबचन
 
 
18. 'वह नायक बार-बार अपनी परिपूर्ण तर्क संगतता के पटल पर वापस आएगा। उनके लिए बुद्ध आर्यों में न मात्र सबसे महान थे, बल्कि 'एक सबसे समझदार व्यक्ति' थे जिन्हे अभी तक विश्व ने देखा है । उन्होंने कैसे पूजा पाठ को मना कर दिया था! ... धन्य की स्वतंत्रता और विनम्रता कितनी विशाल थी! ... वह अकेले धर्म को अलौकिक के तर्क से पूरी तरह से मुक्त करने में सक्षम थे, और फिर भी वह इसकी शक्ति के बंधनो की बाध्यताओ को न केवल जीते थे बल्कि उसके उस आकर्षण को भी मानते थे जैसा कि वह वास्तव में था । -भगिनी निवेदिता
 

swami vivekananda Sri Aurobindo 
 
19. विवेकानन्द आत्माओं की आत्मा थे, यदि कभी कुछ ऐसा था तो वह मानवों के बीच एक विशालकाय सिंह थे , लेकिन उन्होंने जो निश्चित काम छोड़ा है वह उनकी रचनात्मक शक्ति और ऊर्जा की हमारी धारणा के अनुरूप है। हम देखते हैं कि उनका प्रभाव अभी भी विशाल रूप से काम कर रहा है, हम अच्छी तरह से नहीं जानते हैं कैसे; हम अच्छी तरह से नहीं जानते हैं, कहां; कुछ उसमें ,जो अभी तक बना ही नहीं है; कुछ सिंह-सदृश, भव्य, सहज, उथल-पुथल जो भारत की आत्मा में प्रवेश कर गया है और हम कहते हैं, "देखो, विवेकानंद अभी भी अपनी माँ की आत्मा में और उनके बच्चों की आत्मा में रहते हैं।" -अरबिंदो घोष
 
20. " एक महान आवाज़ आकाश को भरने के लिए होती है। पूरा विश्व इसका ध्वनि पिटारा है .....विवेकानंद जैसे मानव मात्र फुसफुसाहट के लिए नहीं पैदा होते । वे केवल घोषणा कर सकते हैं। सूरज अपनी किरणों को मध्यम नहीं कर सकता। वह अपनी भूमिका के प्रति गहराई से सचेत थे । वेदांत को उसकी अस्पष्टता से बाहर लाना और उसे तर्कसंगत रूप से स्वीकार्य तरीके से प्रस्तुत करना , अपने देशवासियों में अपनी आध्यात्मिक विरासत के बारे में जागरूकता पैदा करना और उनके आत्मविश्वास को पुनः जागृत करना ; यह दिखाना कि वेदांत की गहरी सच्चाई सार्वभौमिक रूप से मान्य हैं और भारत का मिशन पूरे विश्व के लिए इन सच्चाइयों को संप्रेषित करना है - ये वे लक्ष्य थे जो उन्होने अपने सम्मुख निर्धारित किए थे। " -रोम्या रोलां
 
जन्म और बचपन:
 
स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को एक संभ्रांत बंगाली परिवार में कलकत्ता में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्ता था। उनके पिता, विश्वनाथ दत्ता कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक वकील थे। नरेंद्र के दादा दुर्गाचरण दत्ता, संस्कृत और फ़ारसी भाषाओं के विद्वान थे, उन्होंने अपने परिवार को छोड़ दिया था और 25 साल की उम्र में एक भिक्षु बन गए थे । स्वामी विवेकानंद को 1870 में श्री ईश्वरचंद विद्यासागर द्वारा स्थापित स्कूल में भर्ती कराया गया था। मैट्रिक के बाद उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया और दर्शनशास्त्र में एमए पूरा किया।

अपने गुरु से मिलना और सन्यास स्वीकार करना:
 
नरेंद्र श्री रामकृष्ण से 1881 में अपने पड़ोसी सुरेंद्रनाथ के घर पर मिले थे। शुरू में कुछ दिनों तक श्री रामकृष्ण ने नरेंद्रनाथ को एक पल के लिए भी अपना पक्ष रखने की अनुमति नहीं दी। उन्होंने बहुत आग्रह के बाद नरेन्द्र को अपने पास बैठाया। जब दोनों अकेले होते तो धर्म और अध्यात्म पर बड़ी चर्चा होती।
 
श्री रामकृष्ण ने नरेंद्र को उनके अधूरे मिशन को पूरा करने की जिम्मेदारी देने का निर्णय किया था। एक दिन श्री रामकृष्ण एक कागज़ में लिखकर दिया , "नरेंद्र जनता को ज्ञान देने का काम करेंगे।" कुछ संकोच के साथ नरेंद्रनाथ ने उत्तर दिया, "मैं यह सब करने में सक्षम नहीं हूँ।" श्री रामकृष्ण तुरंत बड़े संकल्प से बोले, “क्या? नहीं कर पाओगे ? आपकी हड्डियाँ यह कार्य करेंगी। ” बाद में श्री रामकृष्ण ने नरेंद्रनाथ को संन्यास के मार्ग पर चलाया और उन्हें स्वामी विवेकानंद नाम दिया। श्री रामकृष्ण की मृत्यु 16 अगस्त 1886 को हुई थी। श्री रामकृष्ण ने स्वामी विवेकानंद को सिखाया कि मानव की सेवा ईश्वर की सबसे प्रभावी पूजा है।
 
श्री रामकृष्ण की मृत्यु के बाद, विवेकानंद ने रामकृष्ण के काशीपुर मठ की जिम्मेदारी ली। उन्होंने मठ को बारानगर स्थानांतरित कर दिया। 1899 में मठ को बेलूर स्थानांतरित कर दिया गया था। इसे अब बेलूर मठ के रूप में जाना जाता है।
 
विवेकानंद की यात्राएं:
 
विवेकानंद ने 1888 से भारत में भ्रमण शुरू कर दिया था। वह लगभग पूरे पांच साल भारत में भटकते रहे और अलग-अलग तरह के लोगों के साथ रहे। विवेकानंद जुलाई, 1893 में शिकागो गए। उस समय वहाँ विश्व धर्म का संसद आयोजन हो रहा था। लेकिन पहली बार में पहचान के अभाव के कारण, उन्हें बोलने का अवसर नहीं दिया गया। लेकिन हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट की मदद से उन्हें बोलने का मौका मिला।
 
11 सितंबर 1893 को विश्व धर्म संसद में, उन्होंने हिंदू धर्म पर अपना पहला संक्षिप्त भाषण दिया। उन्होंने "अमेरिका की बहनों और भाइयों" के साथ अपने भाषण की शुरुआत की। इस भाषण के साथ उन्हें वहां जमा हुए सात हजार लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सम्मान प्राप्त हुआ ।
 
शिकागो के भाषण के बाद, उन्होंने विश्व भर में कई भाषण दिए और कई लोगों जैसे कि बहन निवेदिता, मैक्स मुलर, पॉल डूसन और कई और लोग के साथ मुलाकात की ।
 
उन्होंने 1 मई 1897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
 
विवेकानंद जी ने लाहौर में अपने संक्षिप्त प्रवास के दौरान तीन व्याख्यान दिए। इनमें से पहला "हिंदू धर्म के सामान्य आधार" पर था, दूसरा "भक्ति" पर, और तीसरा "वेदांत" पर प्रसिद्ध व्याख्यान था।
 
स्वामी विवेकानंद का विज्ञान और आध्यात्मिकता के एकीकरण की दृष्टि
 
भारतीयता की आवश्यकता के साथ विज्ञान और आध्यात्मिकता के लिए उनकी प्यास निम्नलिखित पंक्तियों में देखी जा सकती है: “अगर मुझे कुछ अविवाहित स्नातक मिल सकते हैं, तो मैं उन्हें जापान भेजने और वहां उनकी तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था करने की कोशिश कर सकता हूं, ताकि जब वे वापस आएं, तो वे अपने ज्ञान को भारत के लिए सबसे अच्छे ज्ञान भंडार में बदल सकें। इससे अच्छी बात क्या होगी! " मित्र ने पूछा," क्यों महाराज, क्या इंग्लैंड की तुलना में हमारे लिए जापान जाना बेहतर है? " स्वामी जी ने उत्तर दिया, "निश्चित रूप से! मेरी राय में, यदि हमारे सभी अमीर और पढ़े-लिखे आदमी एक बार जापान जाकर देख लें, तो उनकी आँखें खुल जाएंगी। जापान में, आप ज्ञान का एक अच्छा आत्मसात पाते हैं, न कि इसका अपच, जैसा कि हमारे पास है। उन्होने यूरोपीय लोगों से सब कुछ ले लिया है, लेकिन वे सभी जापानी समान हैं, और यूरोपीय नहीं बने; जबकि हमारे देश में, पश्चिमी बनने के भयानक उन्माद ने हमें एक प्लेग की तरह पकड़ लिया है। ”
 
स्वामीजी ने विज्ञान पर बहुत अधिक निर्भरता के खतरों के प्रति सचेत किया और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के साथ भारत की आध्यात्मिक विरासत को संरक्षित करने पर जोर दिया। उन्होंने कहा ‘भौतिक विज्ञान केवल सांसारिक समृद्धि दे सकता है, जबकि आध्यात्मिक विज्ञान शाश्वत जीवन के लिए है। यदि कोई शाश्वत जीवन नहीं है, तब भी आदर्शों के रूप में आध्यात्मिक विचारों का आनंद सहकर्मी है और एक आदमी को अधिक खुशहाल बनाता है, जबकि भौतिकवाद की मूर्खतापूर्ण प्रतिस्पर्धा और अवांछनीय मृत्यु और व्यक्तिगत मृत्यु की ओर ले जाती है, इसलिए आध्यात्मिकता व्यक्तिगत और राष्ट्रीय दोनों पक्षों को एकीकृत करती है। पेशेवर जीवन में बेहतर प्रदर्शन करने की क्षमता को बढ़ाती है।‘
 
विवेकानंद के जीवन के अन्य आयाम
 
वर्ष 1884 का समय था, जब अचानक नरेंद्र के पिता की मृत्यु हो गई और संपूर्ण परिवार दिवालिया सा बन गया था। साहूकार दिए हुए कर्जे को वापस करने की मांग कर रहे थे और उनके रिश्तेदारों ने भी उनके पैतृक घर से उनके अधिकार को हटा दिया था।
 
 
ऐसी स्थिति में नरेंद्र काफी विचलित हो गए थे। परंतु अपने आप को संभालते हुए वे कोई काम ढूंढने के असफल प्रयास में लग गए और जब भगवान के अस्तित्व का प्रश्न उनके सामने खड़ा हुआ तब रामकृष्ण के पास उन्हें संतुष्टि मिली और उन्होंने दक्षिणेश्वर जाना आना बढ़ा दिया। एक दिन रामकृष्ण ने नरेंद्र दत्ता से उनके परिवार की आर्थिक भलाई के लिए माता काली के सामने प्रार्थना करने को कहा और नरेंद्र ने भी उनके बातों को स्वीकार करते हुए करीब तीन बार मंदिर गए।
 
परंतु वे हर बार अपनी जरूरत की पूर्ति करने के बजाए खुद को सच्चाई के मार्ग पर ले जाने और लोगों की भलाई करने की शक्ति देने की प्रार्थना करते थे। मंदिर जाने के क्रम में ही एक बार नरेंद्र को भगवान की अनुभूति हुई और तब से वे भी अपने गुरु रामकृष्ण के साथ दक्षिणेश्वर मंदिर में रहने लगे।
 
1885 में जब पता चला कि रामकृष्ण को गले का कैंसर हो गया है तो उन्हें कलकत्ता जाना पड़ा और बाद में वह काशीपुर गार्डन गए। रामकृष्ण जान चुके थे कि यह उनके जीवन का अंतिम क्षण है तब उन्होंने नरेंद्र को अपने मठवासियों का ध्यान रखने को कहा। उन्होंने स्वामी विवेकानंद जी से कहा कि मैं तुम्हें एक गुरु के रूप में देखना चाहता हूं और 16 अगस्त 1886 को काशीपुर मे सुबह के समय उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली । गुरु के मृत्यु से स्वामी जी को काफी बड़ा धक्का लगा किंतु विचलित हुए बिना उन्होंने सन्यास आश्रम में अपना पदार्पण किया तथा अपने गुरु की शिक्षा को प्रसारित और प्रचारित करने का निश्चय किया और जीवन के आलोक को जगत के अंधकार में भटकती प्राणियों के समक्ष अपने को उपस्थित करने के लिए पैदल ही उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की और बाद में शिकागो के अपने प्रसिद्ध भाषण से वह विश्व व्याख्यात हुए।
 
इसी बीच 1891 ई० को माउंट आबू में खेतड़ी के राजा अजीत सिंह से उनकी पहली मुलाकात हुई और पहली मुलाकात में ही राजा अजीत सिंह नरेंद्र दत्त के बातों से प्रभावित होकर उन्हें राजस्थान स्थित अपने महल खेतड़ी आने का आग्रह किया।
 
नरेंद्र ने उनकी बातों का सम्मान करते हुए उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया और भारत का भ्रमण करते हुए 4 जून 1891 ई० को खेतड़ी स्थित राजा अजीत सिंह के महल पहुंचे।
 
जब विवेकानंद को विश्व धर्म सम्मेलन के बारे में पता चला तो उन्होंने चाहा कि वे भी इसमें शामिल होने का अवसर प्राप्त करें। परंतु जब बात खर्च की आई तो इतने रुपए भी उसके पास नहीं थे, कि वे विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल हो सके। दूसरी बात यह भी थी कि उन्हें सम्मेलन में आमंत्रित भी नहीं किया गया था। इन सब बातों का ध्यान में रखते हुए वह पुनः अपने मित्र अजीत सिंह से मिलने 1893 मे खेतड़ी गए।
 
इसी दौरान बातों-बातों में उन्होंने अजीत सिंह के सामने विश्व धर्म सम्मेलन में जाने की इच्छा व्यक्त की और उनकी इतनी सी बात को सुनते ही अजीत सिंह ने बिना किसी संकोच के उनसे कहा कि आपके मार्ग व्यय के पुण्य कार्य का सौभाग्य खेतड़ी के इस धरती को ही प्राप्त करने दीजिए। काफी शालीनता के साथ उन्होंने स्वामी जी के लिए संपूर्ण धनराशि की व्यवस्था किया ताकि वे भी विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल हो सकें।
 
जब विवेकानंद अमेरिका के शहर शिकागो पहुंचे तो विश्व धर्म सम्मेलन में पंजीकरण की तिथि निकल गई थी । इसी बीच विवेकानंद की शिकागो के एक प्रोफेसर से मुलाकात हुई और उन्होंने कुछ दिन विवेकानंद को अपने घर में रहने को कहा।
 
उन्हें परिषद में प्रवेश पाना भी कठिन हो गया था, काफी प्रयत्न के बाद उन्हें परिषद में प्रवेश का अनुमति दी गयी ।
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11 सितंबर 1893 को जब विश्व धर्म सम्मेलन मे पश्चिमी सभ्यता के सभी विद्वान अपना भाषण दे चुके थे। तब एक अमेरिकी प्रोफेसर ने पूर्व से आने वालों को भी मौका देने की बात कही और जैसे ही विवेकानंद मंच पर सभा को संबोधित करने पहुंचे। उन्होंने अपने भारतीय हिंदू धर्म की भव्यता, अपने संस्कृति और अपने गुरु का स्मरण करते हुए, सभा को संबोधित करते हुए कहा “मेरे अमेरिकी बहनों और भाइयों ”इतनी बात सुनते ही सभा में बैठे करीब 7000 प्रतिनिधियों ने तालियों के साथ उनका स्वागत किया। उन्होंने सभा में उपस्थित सभी लोगों को मानव की अनिवार्य दिव्यता के प्राचीन वेदांतिक संदेश और सभी धर्मों में निहित एकता से परिचित कराया। उन्होने इस भाषण के बाद पूरे सम्मेलन में कई और भाषण दिये और पूरे विश्व को हिन्दू धर्म की विशालता और उत्कृष्टता का बोध कराया।
 
सन् 1896 तक वे अमेरिका में रहे। विश्व धर्म सम्मेलन से लौटने के बाद पुनः 1897 में स्वामी जी खेतड़ी नरेश अजीत सिंह से मिलने पहुंचे। जो उनकी आखिरी मुलाकात थी। जब स्वामी जी ने अपने व्याख्यान से अमेरिका में विजय परचम फहराया तो सबसे बड़ी प्रसन्नता राजा अजीत सिंह को हुई।
 
इस प्रकार ब्रिटिश शासन में जब भारत माता परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी। उस समय विश्व के मंच पर भारत को पहचान दिलाने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को जाता है।
 
स्वामी जी ने 1 मई 1897 में अपने गुरु के नाम पर रामकृष्ण मिशन कोलकाता में और 9 दिसंबर 1898 को गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की । उन्होंने कई ग्रंथों ज्ञानयोग, राजयोग, योग इत्यादि की रचना की जिसके द्वारा युवा वर्ग के लोगों में मानव कल्याण तथा रस्त्र के प्रति दायित्व की एक नयी चेतना का संचार हुआ जिसका प्रभाव सदियों तक जनमानस के मस्तिष्क पर आज भी देखा जा सकता है।
 
प्रतिदिन की भांति 4 जुलाई 1902 की सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करके बेलूर मठ के पूजा घर में पूजा करने के बाद नियमानुसार स्वामी जी ने योग किया। तत्पश्चात अपने शिष्यों को वेद, संस्कृत और योग साधना के बारे में पढ़ाया और बाद में रामकृष्ण मठ में वैदिक महाविद्यालय बनाने पर विचार विमर्श किया ।
 
उसी दिन करीब उन्होंने 7:00 बजे रामकृष्ण मठ स्थित अपने कमरे में ध्यान मग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर 40 वर्ष की आयु में अपने जीवन की अंतिम सांस ली। इस प्रकार, भारत की इस धरती पर एक महान आत्मा के रूप में अवतरित और इस धरती की शक्ति पूरे विश्व को दिखाने वाले स्वामी विवेकानंद इस धरती से अंतिम विदा लेकर चले गए ।
 
 
 
 
संदर्भ
द कम्प्लीट वर्क्स ऑफ़ स्वामी विवेकानंद, 9 खंड कलकत्ता: अद्वैत आश्रम, 1997