15 नवंबर 1875 ; स्वाधीनता संग्राम के महानायक, जनजातीय गौरव के प्रतीक बिरसा मुंडा की कहानी, जिन्होंने महज़ 25 वर्ष की आयु में अंग्रेजों को झूंकने पर किया मजबूर

    15-नवंबर-2023
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 Birsa Munda
 
बिरसा मुंडा को जनजातीय समुदाय आज भी भगवान के रूप में पूजते हैं। वे एक ऐसे समाज सुधारक व स्वतंत्रता सेनानी रहे जिनको जनजातीय लोग आज भी गर्व से याद करते हैं। जनजातीय समुदाय के हितों के लिए संघर्ष करने वाले बिरसा मुंडा ने 18वीं सदी में महज़ 25 वर्ष की आयु में ब्रिटिश शासन से भी लोहा लेते हुए उनके दांत खट्टे कर दिये थे। सामाजिक हितों के लिए बिरसा मुंडा के योगदान के चलते ही उनकी तस्वीर भारतीय संसद के संग्रहालय में लगी हुई है। इसके अलावा उनके नाम से डाँक टिकट भी जारी हुआ।
 
संक्षिप्त परिचय -
 
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी के उलिहातु वर्तमान में झारखंड के खूँटी ज़िले में हुआ था। बिरसा मुंडा के पिता का नाम सुगना मुंडा व माता जी का नाम करमी था। बिरसा मुंडा ने बहुत कम उम्र में ही अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोह की शुरुआत कर दी थी। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ उन्होंने ये लड़ाई तब शुरू की थी जब वो महज़ 25 वर्ष के थे।
 

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 बिरसा मुंडा के अनुयायी
 
बिरसा मुंडा की प्रारंभिक शिक्षा जयपाल नाग की देखरेख में सालगा में हुई थी। कई किताबों जैसे 'बिरसा मुंडा एंड हिज़ मूवमेंट', 'द लीजेंड ऑफ़ बिरसा मुंडा' में वर्णनीत है कि उन्होंने एक जर्मन मिशन स्कूल में दाख़िला लेने के लिए ईसाई धर्म स्वीकार किया था। इसके अलावा उनके पिता , चाचा ने भी ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया, लेकिन जब उन्हें लगा कि अंग्रेज़ आदिवासियों का धर्म बदलवाने की मुहिम में लगे हुए हैं तो उन्होंने ईसाई धर्म का परित्याग कर दिया। 1894 में छोटानागपुर में भयंकर अकाल और महामारी ने पांव पसारना शुरू कर दिया था। उस समय नौजवान बिरसा मुंडा ने पूरे मनोयोग से लोगों की सेवा की।
 
अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आंदोलन की शुरुआत
 
बिरसा के संघर्ष की शुरुआत चाईबासा में हुई थी जहाँ उन्होंने 1886 से 1890 तक चार वर्ष बिताए। यहीं से उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक जनजातीय आंदोलन की शुरुआत की। इस दौरान बिरसा मुंडा ने एक नारा दिया -
 
"अबूया राज एते जाना/ महारानी राज टुडू जाना" (अर्थात् अब मुंडा राज शुरू हो गया है और महारानी का राज ख़त्म हो गया है)।
 
अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लोगों को एकजुट करते हुए बिरसा मुंडा ने अपने लोगों को आदेश दिया कि वो ब्रिटिश सरकार को किसी भी तरह का कोई कर न दें। 19वीं सदी के अंत में अंग्रेज़ों की भूमि नीति ने परंपरागत आदिवासी भूमि व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया था। साहूकारों ने उनकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया था और जनजातीय समुदाय को जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया गया था। मुंडा लोगों ने एक आंदोलन की शुरुआत की थी जिसे उन्होंने 'उलगुलान' का नाम दिया था।
 
केएस सिंह अपनी किताब 'बिरसा मुंडा एंड हिज़ मूवमेंट' में लिखते हैं, "बिरसा अपने में भाषण में कहते थे, डरो मत। मेरा साम्राज्य शुरू हो चुका है। ब्रिटिश सरकार का राज समाप्त हो चुका है। उनकी बंदूकें लकड़ी में बदल जाएंगी जो लोग मेरे राज को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं उन्हें रास्ते से हटा दो।"
 
उन्होंने पुलिस स्टेशनों और ज़मींदारों की संपत्ति पर हमला करना शुरू कर दिया था। कई जगहों पर ब्रिटिश झंडे यूनियन जैक को उतारकर उसकी जगह सफ़ेद झंडा लगाया जाने लगा जो मुंडा राज का प्रतीक था।
 

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बिरसा मुंडा की गिरफ़्तारी
 
बिरसा मुंडा के इस क्रांतिकारी कदम से ब्रिटिश हुकूमतों की नींव हिलने लगी। लिहाज़ा अंग्रेजों बिरसा मुंडा की गिरफ़्तारी के लिए योजना बनाई। योजना के तहत अंग्रेजों ने उस समय बिरसा पर 500 रुपए का इनाम रखा था जो उस ज़माने में बड़ी रक़म हुआ करती थी। ऐसा कहते हैं कि बिरसा मुंडा के कुछ अपने ही लोगों ने बिरसा मुंडा की जानकारी पुलिस को दे दी। लिहाज़ा पुलिस ने बिरसा मुंडा को पहली बार 24 अगस्त 1895 को गिरफ़्तार किया। उनको 2 साल की सज़ा हुई थी जब 2 साल बाद उन्हें हजारीबाग जेल से छोड़ा गया था तो वो भूमिगत हो गए थे और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलन करने के लिए उन्होंने अपने लोगों के साथ गुप्त बैठकें शुरू कर दी थीं।
 

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बिरसा मुंडा के पैतृक गाँव उलिहातु में बिरसा मुंडा की
प्रतिमा 
 
1897 से 1900 के बीच मुंडा समाज और अंग्रेजी सिपाहियों के बीच लगातार युद्ध होते रहे। अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा और उसके 400 सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाना पर धावा बोला। वर्ष 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजों को हार का सामना करना पड़ा लेकिन बाद में उस इलाके के बहुत से जनजातीय क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा मुंडा एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे। इसी दौरान अंग्रेजी सैनिकों ने हमला कर दिया, इस संघर्ष में काफी संख्या में महिलाएं और बच्चे मारे गये।बिरसा मुंडा के कई शिष्यों की गिरफ्तारियां भी हुईं। 3 मार्च 1900 को अंग्रेजी सेना ने चक्रधरपुर से बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया। जिसके इसके बाद उन्हें चाईबासा ना ले जाकर सीधे रांची जेल लाया गया। रांची जेल में उन्हें अनेक तरह की प्रताड़ना दी गई। उन्हें काली कोठरी में बंद कर दिया गया। मात्र एक सप्ताह में एक बार उन्हें धूप दिखाने के लिए बाहर निकाला जाता था और फिर उन्हें कमरे में क़ैद कर दिया जाता।बिरसा मुंडा पर लूट, दंगा करने और हत्या के 15 मामलों में आरोप तय किए गए थे।
 

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1988 में जारी डाँक टिकट
 
 
 
जेल में बिरसा मुंडा ने त्यागा प्राण
 
एक दिन बिरसा जब सोकर उठे तो उन्हें तेज़ बुख़ार और पूरे शरीर में भयानक दर्द था। उनका गला भी इतना ख़राब हो चुका था कि उनके लिए एक घूंट पानी पीना भी असंभव हो गया था। कुछ दिनों में उन्हें ख़ून की उल्टियां शुरू हो गई थीं। 9 जून, 1900 को बिरसा ने सुबह 9 बजे दम तोड़ दिया। नौ जून की शाम साढ़े 5 बजे शरीर का पोस्टमॉर्टम किया गया। उनके शरीर में बड़ी मात्रा में पानी पाया गया। उनकी छोटी आँत पूरी तरह से नष्ट हो चुकी थी। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में उनकी मौत का कारण हैजा बताया गया। लेकिन उनके समर्थकों का मानना था कि उन्हें ज़हर दिया गया।बिरसा की मृत्यु के साथ ही मुंडा आंदोलन शिथिल पड़ गया था, लेकिन उनकी मौत के 8 साल बाद अंग्रेज़ सरकार ने 'छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट' पारित किया जिसमें प्रावधान था कि आदिवासियों की भूमि को ग़ैर-आदिवासी नहीं ख़रीद नहीं सकते। आज के इस दिन को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जाता है।