
ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ 1846 की अमृतसर सन्धि से सम्पूर्ण जम्मू कश्मीर क्षेत्र महाराजा गुलाब सिंह के आधिपत्य में पहले से ही था। जोकि आगे चलकर सन्धि की शर्तों के अंतर्गत देशी रियासतों की आजादी के बाद और 1947 के भारत स्वतन्त्रता अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार अब महाराजा गुलाब सिंह के उत्तराधिकारी तत्कालीन महाराजा हरिसिंह के निर्णयाधीन था। निर्णयाधीन इसलिए क्योंकि कानून के अनुसार महाराजा ही एक मात्र निर्णयकर्ता थे कि उनकी स्टेट का विलय भारत संघ में हो या पाकिस्तान में। महाराजा हरि सिंह भारत के स्वतंत्र होने के बाद पहले दिन से ही जम्मू कश्मीर के भारत संघ में विलय का मन बना चुके थे और मन्तव्य स्पष्ट भी कर चुके थे। लेकिन वो दबाव में थे, दबाव यह था कि महाराजा हरिसिंह के 1932 में लंदन के गोलमेज सम्मेलन में स्वराज समर्थन में दिए भाषण से माउंटबेटन और अंग्रेज़ी हुकूमत महाराज से नाराज थे। क्योंकि असल में अंग्रेज अपनी वैश्विक कूटनीति के कारण जम्मू कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहते थे। इधर दूसरी तरफ़ महाराजा ने जिन्ना को भी जम्मू कश्मीर के पाकिस्तान में विलय से मना कर दो टूक जवाब दे दिया था, जिससे जिन्ना भी महाराजा को हमले की धमकी दे रहा था ।

आख़िरकार 1947 में जम्मू-कश्मीर के भारत में अधिमिलन से ठीक पहले पाकिस्तान ने जबरन जम्मू कश्मीर को हथियाने के इरादे से 22 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर के बड़े हिस्से पर हमला कर दिया। इस हमले में कबाइलियों के भेष में पाकिस्तानी सेना ने जम्मू कश्मीर में वो नरसंहार किया जिसकी बानगी मानव इतिहास में बेहद कम ही मिलती है। जिन इलाकों पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया था वहां पाकिस्तानी हमलावरों ने हजारों निर्दोष हिन्दुओं और सिखों का कत्लेआम किया। जम्मू-कश्मीर पर हुए आक्रमण का रचयिता था पाकिस्तानी सेना का मेजर जनरल अकबर खान। अकबर खान ने ही आक्रमण की योजना और रणनीति बनाकर इस कत्लेआम को अंजाम दिया। पाकिस्तानी सेना ने एक साथ मुज़्ज़फ़्फ़राबाद, बारामूला, पुँछ और मीरपुर पर धावा बोल दिया।
मीरपुर पर हमला
पाकिस्तानी हमले को देखते हुए महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर को जम्मू कश्मीर का अधिमिलन भारत के साथ कर दिया, जिसके बाद भारतीय सेना जम्मू कश्मीर पहुँची और पाकिस्तानी हमलावरों को पीछे ढकेलना शुरू कर दिया। बँटवारे के दौरान भारत और पाकिस्तान दोनों देशों से बड़ी संख्या में लोग पलायन कर रहे थे। भारत से पाकिस्तान जाने वाले मुस्लिम सुरक्षित पाकिस्तान पहुँच रहे थे। लेकिन पाकिस्तान में हिंदू और सिखों पर लगातार हो रहे अत्याचार से तंग आकर हज़ारों लाखों की संख्या में हिंदू भारत लौटने लगे थे। पाकिस्तान में अपना घर बार छोड़कर हज़ारों हिंदू जम्मू कश्मीर के मीरपुर ज़िले में आ पहुँचे। वे इस सोच में थे कि अब वे पाकिस्तानी हमलावरों से पूरी तरह सुरक्षित हैं। स्वाधीनता के बाद हिंदू समुदाय के लोग पहली दिवाली मना रहे थे। लेकिन उनकी दिवाली कब मातम में बदल गई उन्हें अंदाज़ा भी नहीं हुआ।

23 नवंबर 1947 को पाकिस्तानी सेना ने मीरपुर के मुख्य पूर्वी द्वार से एक बड़ा हमला किया। लेकिन मीरपुरी युवाओं ने आमने-सामने की लड़ाई में दुश्मनों के इस हमले को नाकाम कर दिया। लेकिन हमलावर इतने पर चुप नहीं हुए उन्होंने 24 तारीख की सुबह एक भीषण हमले को अंजाम दिया और मीरपुर शहर में प्रवेश करने में सफल हो गए। देखते ही देखते हमलावरों ने शहर में आग लगा दी, जिससे अराजकता और चारों तरफ उथल-पुथल मच गई। पाकिस्तानी सैनिकों ने निर्ममता से लगभग हजारों हिंदू और सिख लोगों को मार डाला। एक अमरीकी पत्रकार, मार्गरेट बर्क वाइट, इस आक्रमण के समय जम्मू-कश्मीर में थी। उन्होंने लिखा कि इस नरसंहार में कई गाँव तबाह हो गए, पाकिस्तानी सेना ने मासूम महिलाओं के साथ बलात्कार किया और सैंकड़ों हिन्दू, सिख महिलाओं को अगवा कर लिया। मीरपुर में जम्मू-कश्मीर की जो 8 सौ सैनिकों की चौकी थी, उसमें आधे से अधिक मुसलमान सैनिक थे, वे अपने हथियारों समेत पाकिस्तान की सेना से जा मिले थे। लिहाजा मीरपुर के लिए 3 महीने तक कोई सैनिक सहायता नहीं पहुंची। शहर में 17 मोर्चों पर बाहर से आए हमलावरों को महाराजा की सेना की छोटी-सी टुकड़ी ने रोका हुआ था। लेकिन सैनिक लड़ते हुए मरते जा रहे थे।

मेरा जम्मू कश्मीर के लेखक धरम मित्तर गुप्ता मीरपुरी लिखते हैं कि "जब तक भारतीय सेना ने झंगड़ से मीरपुर की ओर मार्च शुरू किया और 10 से 14 नवंबर तक 15 किलोमीटर तक के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और मीरपुर की ओर बढ़ रहे थे, उन्हें रोक दिया गया।" हिंदू महासभा विधायक आर.सी. सदावर्ती ने अन्य राजनीतिक नेताओं के साथ मीरपुर को बचाने के लिए शेख अब्दुल्ला से कई बार मुलाकात की, लेकिन उन्होंने अतिरिक्त सेना भेजने से इनकार कर दिया। अगर सेना समय से मीरपुर पहुँच जाती तो इस नरसंहार को रोका जा सकता था।

हिंदू बहुल शहर था मीरपुर
उस वक्त मीरपुर जम्मू-कश्मीर रियासत का एक हिंदू बहुल शहर था। इसके पास भिम्बर और कोटली जैसे बड़े कस्बे थे जो आज जिले बन चुके हैं। विदित हो कि मीरपुर से विभाजन के समय सभी मुसलमान 15 अगस्त 1947 के कुछ दिन बाद ही बिना किसी नुकसान के पाकिस्तान चले गए थे ,और पाकिस्तान के पंजाब से हजारों हिंदू और सिख मीरपुर में आ गए थे। इस कारण उस समय मीरपुर में हिंदुओं की संख्या करीब 40 हजार हो गई थी। पाकिस्तान से आये ये हिन्दू मीरपुर के पाकिस्तान गए मुसलमानों के खाली मकानों के अलावा वहां के गुरुद्वारा दमदमा साहिब, आर्य समाज, सनातन धर्म सभा और सभी मंदिरों में शरणार्थियों के रूप में रह रहे थे। कोटली, पुंछ और मुजफ्फराबाद में भी यही स्थिति थी।
जम्मू कश्मीर के पाकिस्तान अधिक्रान्त गुलाम जम्मू कश्मीर में स्थित "मीरपुर" में 1947 में हुए नरसंहार की घटना एक ऐसी लोमहर्षक और दुर्भाग्यपूर्ण घटना है, जिससे आज के लोक सामान्य को कुछ सबक लेकर भविष्य के लिए देशहीत में संकल्पित होना चाहिए।
शेष कहानी अगले भाग में......