देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले हमारे वीर बलिदानियों के यूँ तो अनेक किस्से हैं, लेकिन उनमें से एक अमर वीर बलिदानी तुकाराम ओंबले की शौर्य गाथा कुछ अलग है। 26/11 मुंबई आतंकी हमले के एक मात्र जिन्दा पकड़े गए मुख्य आतंकी आमिर अजमल कसाब को पकड़ने में अहम भूमिका निभाने वाले तुकाराम ओंबले की बहादुरी के किस्से सदियों तक याद किए जाते रहेंगे। 1947 में देश के बंटवारे के बाद से ही भारत पर अपनी नापाक निगाहें रखने वाला पड़ोसी देश पाकिस्तान ने देश को कई जख्म दिए हैं।
सीधे मुकाबले में भारत के सामने कहीं भी न टिकने वाली पाकिस्तानी फौज ने तीन-तीन युद्धों में मुंह की खाने और अपने देश का एक टुकड़ा बांग्लादेश के रूप में गवाने के बावजूद नापाक हरकतों को अंजाम देना बंद नहीं किया। पाकिस्तान के नापाक मंसूबों का ही एक उदाहरण है, 26/11 मुंबई आतंकी हमला। जिसमें पाकिस्तानी आतंकियों ने अपने आकाओं के इशारे पर सैंकड़ों निर्दोष और मासूमों की जान ले ली। लिहाजा आज की इस कड़ी में हम मुंबई आतंकी हमले के दौरान अपनी जान की बाजी लगाकर, मुख्य आतंकी अजमल कसाब को जिन्दा पकड़वाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले वीर बलिदानी तुकाराम ओंबले को बात करेंगे।
26 नवंबर 2008 की वो रात
26 नवंबर 2008 मानव इतिहास का यह वो दिन था जब पाकिस्तानी आतंकियों ने भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई को दहलाकर रख दिया। भारत के खिलाफ इस आतंकी हमले को पाकिस्तान प्रायोजित लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों द्वारा अंजाम दिया गया। करीब 15 वर्ष पूर्व 26 नवंबर को प्रतिबंधित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के प्रशिक्षित आतंकवादियों ने मुंबई के कई इलाकों और प्रतिष्ठित इमारतों पर हमला किया था, जो 4 दिन तक चला। मुंबई के इन हमलों में 160 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी।
26 नवंबर, 2008 की रात नाव पर सवार होकर पाकिस्तान से मुंबई पहुंचे हमलावरों ने तब 2 फाइव स्टार होटलों, एक अस्पताल, रेलवे स्टेशनों के साथ एक यहूदी सेंटर को निशाना बनाया था। इस काली और मनहूस रात में महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे समेत मुंबई पुलिस के कई आला अधिकारी और तुकाराम ओंबले जैसे कई जवान वीरगति को प्राप्त हो गए। लियोपोल्ड कैफ़े और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से शुरू हुआ मौत का ये तांडव आखिरकार होटल ताजमहल में जाकर खत्म हुआ। देश के इन दुश्मनों को पकड़ने व मौत के घाट उतारने में 60 घंटे से ज्यादा का वक्त लगा था।
बलिदानी तुकाराम ओंबले की वीरगाथा
मुंबई से करीब 285 किलोमीटर दूर स्थित 250 परिवारों वाला केदाम्बे गांव तुकाराम ओंबले का गांव है। मीडिया चैनलों को तुकाराम ओंबले के परिवार ने बताया था कि उनसे पहले इस गांव से कोई शख्स पुलिस की नौकरी में भर्ती नहीं हुआ था।ओंबले के परिजन बताते हैं कि बचपन से ही मेहनत और ईमानदारी की रोटी खाने वाले तुकाराम ने परिवार का खर्च चलाने के लिए आम तक बेंचे थे। उन्होंने कुछ समय गाय-भैंस चराने का काम भी किया। देशभक्ति तो मानो उनमें कूट-कूट कर भरी थी। ओंबले के मौसा सेना में ड्राइवर थे। इस वजह से बचपन से ही उनका लगाव सेना और पुलिस के सम्मानित पेशे और सरकारी वर्दी की ओर था। लिहाजा आगे चलकर उनकी नौकरी बिजली विभाग में लगी, लेकिन फिर 1979 में वो अपनी ये नौकरी छोड़कर महाराष्ट्र पुलिस में भर्ती हो गए।
26 नवंबर को जब आतंकियों ने मुंबई में आतंकी वारदात को अंजाम देना शुरू किया, तब तुकाराम ओंबले अपनी टीम के साथ एक चेकपोस्ट की रखवाली कर रहे थे। लियोपोल्ड कैफ़े, छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से होते हुए होटल ताज में आतंकी वारदातों को अंजाम देने के बाद आतंकी कसाब अपने एक साथी के साथ एक कार से भाग रहा था। हमले की सूचना मिलने के बाद से ही पुरे शहर में नाकाबंदी कर दी गई थी। तभी कसाब की कार उसी नाकाबंदी से गुजर रही थी जहाँ तुकाराम ओंबले अपनी टीम के साथ ड्यूटी पर तैनात थे। जैसे ही पुलिस ने कार का नंबर देखा तो तुरंत कार को रोकने के लिए वे आगे बढे। लेकिन आतंकियों ने पुलिस को चकमा देकर भागने का प्रयास किया और पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। आतंकियों और पुलिस के बीच हुई फायरिंग में कसाब का एक साथ जो कार चला रहा था वो मारा गया।

कुछ देर के लिए पुलिस ने फायरिंग रोकी और आगे बढ़कर देखने का प्रयास किया। तुकाराम ओंबले अपनी टीम के साथ कार के तरफ बढे तो देखा कि आतंकी कसाब अभी ज़िंदा था। कसाब ने खुद को पुलिस से घिरा देख आत्मसमर्पण करने का नाटक करते हुए कार से बाहर निकला। लेकिन पुलिस की टीम अभी कुछ समझ पाती उससे पहले ही कसाब ने अचानक फायरिंग शुरू कर दी। ऐसे हालात में एक मात्र तुकाराम ओंबले ने बहादुरी का परिचय देते हुए और अपनी जान की परवाह न करते हुए आतंकी कसाब को धर दबोचा। साथ ही एक हाथ से उसकी AK 47 मशीन गन का बैरल अपनी तरफ कर लिया, ताकि वो किसी और को नुकसान न पहुंचा सके। इस दौरान दूसरे पुलिसकर्मियों को मौका मिला और उन्होंने कसाब को जिंदा पकड़ लिया। लेकिन पुलिस जब तक कसाब को पकड़ती तब तक देर हो चुकी थी और कसाब की फायरिंग में तुकाराम ओंबले अपने अन्य साथियों की जान बचाते हुए वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। लेकिन प्राण न्योछावर करने से पहले पहले तुकाराम ओंबले ने आतंकी कसाब को जिन्दा पकड़वाने में मुख्य भूमिका निभाई।
असामान्य परिस्थितियों में अपनी जान की परवाह न करते हुए अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण व कसाब को जिन्दा पकड़वाने में मदद हेतु अमर बलिदानी तुकाराम ओंबले को शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया। इसके बाद साल 2009 में तुकाराम ओंबले को मरणोपरांत अशोक चक्र से भी नवाजा गया था।
मुंबई में हालात काबू होने के बाद मीडिया को दिए इंटरव्यू में उनके साथी पुलिसवालों ने बताया, 'तुकाराम ओंबले उन सब से अलग थे। जब ड्यूटी खत्म होने पर हम लोग जल्दी घर निकलने की राह देखते थे तब ओंबले अपनी ड्यूटी से ज्यादा रुक जाते थे। वो अक्सर नाइट शिफ्ट में देर तक रुक जाते थे ताकि उनके साथियों को असुविधा न हो, इसके बावजूद वो अगले दिन अपनी शिफ्ट पर टाइम से आ जाते थे।